असम ही हिमंत बिस्व सरमा ने मंगलवार को नेली नरसंहार से जुड़ी रिपोर्ट विधानसभा में रखी। यह रिपोर्ट टीडी तिवारी कमीशन ने तैयार की थी। साल 1983 के विधानसभा चुनाव के आसपास हुए इस नरसंहार के बारे में आयोग की बातें शुरुआत में सार्वजनिक नहीं की गई थीं। अब आगामी विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इस रिपोर्ट को विधानसभा में रखा गया है। ऐसे में माना जा रहा है कि राज्य की राजनीति में इस रिपोर्ट से निकलने वाली बातें अहम हो सकती हैं। टीडी कमीशन की इस रिपोर्ट में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) और ऑल असम गण संग्राम परिषद को जिम्मेदार माना गया है। साथ ही, इसे पूरी तरह सांप्रदायिक हिंसा मानने से इनकार कर दिया गया है।
स्थानीय बनाम बाहरी का मुद्दा असम में पहले से हावी है और इस बीच वोटर लिस्ट का स्पेशल रिवीजन भी हो रहा है। यह सब कुछ लगभग वैसा ही होता दिख रहा है जिसके चलते असम आंदोलन हुआ था। ऐसे में यह समझना जरूरी है कि उस वक्त ऐसा क्या हुआ था।
रिपोर्ट के मुताबिक, इस आयोग ने पाया कि सार्वजनिक स्थलों पर जमकर लूट की गई, संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया, रेल पटरियां उखाड़ी गईं, जगह-जगह दंगा और बलवा हुआ और एक सुनियोजित ढंग से अभियान चलाया गया कि चुनाव न कराए जा सकें। रिपोर्ट के मुताबिक, स्थिति बेकाबू हो गई और हिंसक घटनाओं में बहुत सारे लोगों की जान गई और करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुआ।
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तब यह रिपोर्ट तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर साइकिया को सौंपी गई थी और उन्होंने 1983 में आयोग का गठन किया था। मौजूदा मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने कहा है कि असम गण परिषद के नेता प्रफुल्ल कुमार महंता जब मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने यह रिपोर्ट विधानसभा के स्पीकर को तो सौंपी लेकिन विधायकों को यह रिपोर्ट नहीं दी गई।
1983 में क्या हुआ था?
धान के खेत में इंसानी हड्डियां बिखरी पड़ी थीं। कुत्ते, लोमड़ी और गिद्ध उथली कब्रों को खोद-खोदकर शवों को बाहर निकाल रहे थे। भिनभिनाती मक्खियां और हवा में सड़ती लाशों की बदबू। दूर-दूर तक इंसान का कोई अता-पता नहीं। मिट्टी और भूसे की झोपड़ियां पूरी तरह जल चुकी थीं। यह तस्वीर असम के नेली गांव की थी। 1983 में यहां बंदूक, भाले और तीर-कमान से लैस भीड़ ने सात घंटों के अंदर 1800 लोगों को मार डाला। आज तक एक भी शख्स को सजा नहीं हुई। केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी। मामले की जांच हुई, रिपोर्ट भी बनी लेकिन आज तक इस रिपोर्ट को पब्लिक नहीं किया गया था। अब असम की हिमंता बिस्वा सरमा सरकार 42 साल बाद इस नरसंहार की फाइल खोलने जा रही है। इस रिपोर्ट को अब विधानसभा में पेश किया गया है।
इस नरसंहार के पीछे के कारणों को समझने के लिए असम को थोड़ा समझना होगा। पुराने हिंदू ग्रंथ जैसे महाभारत और पुराणों में असम का जिक्र मिलता है लेकिन पहला आधुनिक रिकॉर्ड 1228 का है। उस साल अहोम समुदाय ब्रह्मपुत्र घाटी में आया और बस गया। 1838 तक अहोम असम पर राज करते रहे। फिर अंग्रेज़ों ने यहां कब्ज़ा कर लिया। कब्ज़ा करने के बाद अंग्रेज़ों ने ढेर सारे लोगों को बुलाना शुरू किया। चाय बागानों के लिए बिहार, बनारस, छोटा नागपुर से मज़दूर लाए गए। जूट की खेती के लिए बंगाल से लोग लाए गए। पहले असम आना जाना बहुत मुश्किल था क्योंकि यहां घने जंगल थे लेकिन असम-बंगाल रेलवे बनने के बाद असम आना जाना सुलभ हो गया। इसीलिए 20वीं सदी में तो लोगों का आना और तेज़ हुआ।
3 बड़े ग्रुप आए।
पहले चाय मज़दूर- जो 1891-1921 के बीच बिहार-यूपी से आए।
बंगाली किसान- 1921 में 3 लाख थे जो 1951 में 8 लाख हो गए।
नेपाली- 1951 तक इनकी संख्या करीब 57 हजार थी।
आजादी के बाद भी इसमें रुकावट नहीं आई। 1901 से 1951 तक असम में प्रवासियों की आबादी 138% बढ़ी जो पूरे भारत में सबसे ज्यादा थी। स्थानीय लोग डरने लगे कि इससे हम अल्पसंख्यक हो जाएंगे। असमिया लोग अपनी पहचान, नौकरी और जमीन खोने के डर से परेशान हो गए। असम में राष्ट्रपति शासन था और धीरे-धीरे तनाव बढ़ता जा रहा था। स्थानीय संगठन और खासकर स्टूडेंट यूनियनों के विरोध प्रदर्शनों ने इसके बाद ज़ोर पकड़ना शुरू किया। इसके बाद 1963 में विदेश मंत्रालय ने कहा कि असम में बाहर से आए गैरकानूनी लोग वोटर लिस्ट में नाम डलवा रहे हैं। अगस्त 1975 में गृह मंत्रालय ने सभी राज्य सरकारों को चिट्ठी लिखी और CID से जांच करने को कहा कि गैरकानूनी विदेशी वोटर लिस्ट में घुसे हैं या नहीं। 1978 में चीफ इलेक्शन कमिश्नर एस. एल. शकधर ने खुलेआम बोला, 'बड़ी संख्या में विदेशियों के नाम वहटर लिस्ट में डाले जा रहे हैं और यह काम राजनीतिक पार्टियां खुद करवा रही हैं।'
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असम में यह खबर आग की तरह फैल गई। इसके बाद 1979 में एक घटना हुई जिसने प्रदर्शनों को और भड़का दिया। मंगलदोई लोकसभा सीट से एक सांसद की मौत हो गई। यह सांसद हीरालाल पटवारी थे। मौत के बाद इलेक्शन कमीश ने सांसद की सीट पर उपचुनाव करवाने की घोषणा की। वोटर लिस्ट को रिवाइज़ करने की प्रक्रिया भी शुरू हुई। इसी बीच ये इल्ज़ाम लगने लगे कि नई वोटर लिस्ट में गैरकानूनी रूप से रह रहे विदेशियों को जोड़ा गया है। वोटर लिस्ट में 45 हजार ऐसे नामों को जोड़ दिया गया था, जो गैरकानूनी थे। इस मौत के बाद 1979 में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) ने आंदोलन शुरू किया। उनकी मांग थी- 1951 के बाद आए सभी लोगों को निकालो, वोटर लिस्ट साफ करो और बंगालियों का दबदबा खत्म करो।
वोटर लिस्ट पर हुआ बवाल
AASU ने जुलाई 1978 में अपनी 16 मांगों की लिस्ट लिखी। लिस्ट में सब विदेशियों को पहचानने और निकालने की मांग कही गई। मांग यह भी थी कि 13 और जिलों की वोटर लिस्ट पब्लिक की जाए। दो छात्र संगठन आमने-सामने थे। इनमें से एक संगठन था असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू), जो चुनाव नहीं चाहता था। दूसरा था ऑल असम माइनरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (आमसू) जिसे चुनाव से कोई परहेज नहीं था। इस मामले में 27 अगस्त 1979 को असम में एक ऑल पार्टी मीटिंग रखी गयी। सब पार्टियों ने मिलकर तय किया कि जब तक वोटर लिस्ट से विदेशियों का नाम नहीं हटा लिया जाए, तब तक असम में कोई चुनाव नहीं होंगे। छात्रों के इस विरोध का नतीजा हुआ कि 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में असम की 14 सीटों में से केवल दो पर चुनाव हो पाए। यहीं से असम आंदोलन की असली शुरुआत हुई। सरकार ने आंदोलनकारियों से बात करने की कोशिश की। दिसंबर 1982 तक सरकार और आंदोलनकारियों के बीच 23 बार बात हुई लेकिन कट-ऑफ डेट पर बात फंस गई। आंदोलन वाले इसे 1951 चाहते थे जबकि सरकार 1971 चाहती थी। बात न बनने पर इंदिरा गांधी की सरकार ने 1983 में असम में चुनाव की घोषणा कर दी। 6 जनवरी 1983 को AASU-AAGSP लीडर्स दिल्ली से बात करके लौट रहे थे, तभी चुनाव की तारीखें आईं – 14, 17, 20 फरवरी। वही 1979 की पुरानी वोटर लिस्ट इस्तेमाल हुई। ना 1951-1971 सुधार, ना नए युवाओं के नाम लिस्ट में डाले गए। लीडर्स जैसे ही एयरपोर्ट पर उतरे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। सरकार ने चुनावों का एलान किया।और इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ा असम के नेली गांव को।
14 फरवरी वोटिंग का पहला दिन था। AASU के स्थानीय आंदोलनकारियों ने मीटिंग बुलाई। यहां ऐलान कर दिया कि गांव से कोई भी चुनाव में हिस्सा लेगा यानी वोट करेगा तो उसे समाज से निकाल दिया जाएगा और 500 रुपये का जुर्माना भी लगाया जाएगा। Caravan की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 14 फरवरी 1983 को असम भर के बंगाली मुस्लिमों ने यह बात नहीं मानी और वोट डालने पहुंच गए। उनके लिए वोटिंग ही नागरिकता साबित करने का तरीका था। इसके बाद को नौगांव जिले के एक पुलिस स्टेशन के अफ़सर ने मोरीगांव में तैनात पांचवी बटालियन के कमांडेंट को एक सन्देश भेजा। इसमें लिखा था, 'ख़बर है कि पिछली रात नेली गांव के इर्द-गिर्द बसे गांवों से तकरीबन 1000 असमिया लोग ढोल बजाते हुए नेली गांव के नजदीक इकट्ठा हो गए हैं। उनके पास धारदार हथियार हैं। नेली गांव के अल्पसंख्यक भयभीत हैं, किसी भी क्षण उन पर हमला हो सकता है। शांति स्थापित करने के लिए तुरंत कार्रवाई का निवेदन किया जाता है।'
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दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 16 फरवरी को नेली के पास लाहौरीगेट में लालुंग जनजाति के 5 बच्चे मरे मिले। स्थानीय लोगों का गुस्सा भड़क गया। प्रशासन ने 1000 से ज्यादा लोगों को पकड़ा। इसके अलावा 22 लोगों पर NSA लगाकर उन्हें जेल भेजा गया। अगले दिन 17 फरवरी को उसी इलाके में 3 मुस्लिम बच्चों के शव मिले। उसी दिन नेली और आसपास के मुस्लिमों को वोट डालने से रोका गया। CRPF के जवानों को तैनात किया गया। लोगों को लगा कि अब ऐसी कोई घटना सामने नहीं आएगी। तभी आई 18 फरवरी की सुबह। पता चला नेली के पास बसे बोरबोरी गांव में हालात बिगड़ गए हैं। 18 फरवरी 1983 की सुबह के बारे में बोरबोरी गांव के खैरुद्दीन ने Caravan को बताया, '7 बजे जब मैं उठा तो घर में खामोशी थी। न पत्नी, न बच्चे, न मां-बाप कोई नहीं। घबराकर सोचा, शायद सब पास की बहन के घर गए होंगे। वहां भी कोई नहीं। 8 बजे और मैंने देखा-हजारों लोग तलवारें, दाव, भाले लिए गांव की तरफ बढ़ रहे थे।'
एक झटके में खत्म हो गए परिवार
खैरुद्दीन भागने लगे। पीछे से उनका घर आग की लपटों में घिर गया। भागते-भागते रास्ते में उन्हें उनकी बेटी का मृत शरीर पड़ा मिला लेकिन रुकने का वक्त नहीं था। जान बचानी थी। किसी ने सिर पर जोर का वार किया और खून बहने लगा। तभी उनके छोटे बेटे को किसी ने काटकर मार डाला। खैरुद्दीन ने बड़े बेटे को गोद में उठाया और कोपिली नदी की तरफ दौड़े। नदी में तैरते हुए बेटा हाथ से छूट गया। लहरों में गायब। CRPF ने आखिरकार खैरुद्दीन और उनकी पत्नी को बचाया लेकिन पुलिस स्टेशन में पत्नी की मौत हो गई। एक ही दिन में खैरुद्दीन का परिवार खत्म हो गया। भीड़ ने सबसे पहले बोरबोरी गांव को निशाना बनाया। जिसके बाद ये आस-पास के 14 गांवों में हुआ। ये गांव तीन छोटी-छोटी नदियों कोपिली, किलिंगी और देमल के डेल्टा पर स्थित थे। जिनमें नेली भी था।
इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार हेमेन्द्र नारायण तब वहीं मौजूद थे। अपनी रिपोर्ट में वह लिखते हैं, 'पहले उन्होंने डेमलगांव के मुसलमानों के घरों में आग लगाई। पहले सफ़ेद धुआं निकला, जो जल्द की काले धुंए में बदल गया और फिर उस धुंए ने लाल लपटों का रूप ले लिया। कुछ ही मिनटों में सारे घर ढह गए।' 18 फरवरी 1983 को सुबह 8 बजे से दोपहर 2 बजे तक – सिर्फ 7 घंटे में नेली और आसपास के 14 गांवों में करीब 3000 लोग मारे गए। आधिकारिक रिकॉर्ड्स इसे 1800 बताते हैं। इनमें ज्यादातर बंगाली मुस्लिम थे। इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार हेमेंद्र नारायण ने 19 फरवरी को लिखा, 'हम इन बिदेशी मियाओं को खत्म कर देंगे। इन्होंने हमें अपनी ही जमीन पर बिदेशी बना दिया – यही नारा था हमलावर भीड़ का।'
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18 फरवरी 1983 को शाम ढलते ही CRPF की टुकड़ी नेली पहुंची और नरसंहार रुक गया। स्थानीय पुलिस ने CRPF को धोखा देने की पूरी कोशिश की। पुलिस वालों का कहना था कि वह धुंआ दिख रहा है वह खेत की पराली जलाने से है, घरों से नहीं। नरसंहार के 2 दिन बाद। अधिकारियों ने नेली के लोगों के लिए गांव में ही कैंप लगाया। हालत यह थी कि कैंप में लोग मुर्गियां ला रहे थे क्योंकि उनके पास और कुछ बचा ही नहीं था। फिर 22 फरवरी को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हेलिकॉप्टर और गाड़ी से नेली का दौरा किया। इंदिरा गांधी ने इस नरसंहार के लिए चुनाव विरोधी स्टूडेंट लीडर्स को ज़िम्मेदार ठहराया लेकिन दिल्ली में संसद में विपक्ष ने हंगामा किया। कुछ ने इस्तीफा भी मांगा। कुछ जगहों पर 22 फरवरी को भी वोटिंग चल रही थी क्योंकि पहले हिंसा की वजह से नहीं हो पाई थी। इंदिरा गांधी ने हेलिकॉप्टर से धान के खेतों में लाशें देखीं लेकिन अफसरों ने उन्हें जमीन पर उतरकर लाशें देखने नहीं दी। शवों को तालाब-नदियों में फेंक दिया गया था। जब मरने वालों की संख्या पर इंदिरा गांधी से सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा, 'अखबार 1000 तक बता रहे, यह झूठ है, बढ़ा-चढ़ाकर लिखा।' जब पूछा गया कि क्या सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है? तो वह गुस्से में बोलीं – 'क्यों? जिम्मेदार तो आंदोलनकारी हैं! चुनाव पसंद न आए तो क्या कानून हाथ में ले सकते हैं? 1980 से यहां हिंसा हो रही है, असम आंदोलन बांग्लादेश से आए लाखों मुस्लिमों को निकालना चाहता है।'
पर क्या असम आंदोलन और उसे लीड करना वाला AASU संगठन इस नरसंहार के लिए जिम्मेदार था। क्या इसका कोई और पहलू भी है? The Hindu अखबार की पत्रिका Frontline में 'The Dangerous Game' नाम का एक आर्टिकल छपा है। इस आर्टिकल के मुताबिक, RSS को असम में चल रहा छात्रों का आंदोलन बहुत पसंद आया था क्योंकि यह बिना किसी पार्टी के सपोर्ट के चल रहा था। RSS इसमें शामिल होना चाहता था लेकिन RSS और AASU में कुछ मतभेद थे। RSS का मानना था कि 1951 को अवैध प्रवास का कट-ऑफ साल रखा जाए पर वे हिंदुओं और मुसलमानों को अलग-अलग देखना चाहते थे। RSS के एक बड़े नेता, के. एस. सुदर्शन ने तब कहा था, 'हिंदुओं को शरणार्थी मानकर आसपास के राज्यों में बसाना चाहिए लेकिन मुसलमानों का छिपा मकसद है कि वे असम को मुस्लिम-बहुल बनाएं। ऐसे मुसलमानों को 1951 की जनगणना के आधार पर पकड़कर बांग्लादेश भेज देना चाहिए।'
वाजपेयी के बयान से भड़की हिंसा?
दूसरी तरफ, AASU के लिए असमिया पहचान का आधार था भाषा, न कि धर्म। असम में ढेर सारे मुसलमान थे जो असमिया बोलते थे और AASU में भी मुस्लिम नेता थे। वे चाहते थे कि हाल के सभी प्रवासी- हिंदू, मुसलमान, बंगाली, नेपाली, बिहारी- सबको बाहर निकाला जाए। RSS का हिंदू-मुस्लिम वाला रुख असमिया नेताओं को पसंद नहीं था, जो इस मुद्दे पर सावधानी से चल रहे थे। उन्हें डर था कि RSS उनका आंदोलन हाइजैक न कर ले। इसलिए AASU के लोग VHP के जन्माष्टमी जुलूसों में नहीं जाते थे, न ही उनके फंडरेजर में हिस्सा लेते थे। इंदिरा गांधी ने बाद में RSS पर यह इल्ज़ाम भी लगाया कि वह इस आंदोलन को खुलकर सपोर्ट कर रहा है। फिर भी, RSS वाले मेहनत करते रहे। BMS यानी भारतीय मजदूर संघ ने चाय बागानों के मजदूरों के लिए भारतीय चाय मजदूर संघ जैसे यूनियन बनाए। हैरानी की बात यह है कि जनता सरकार ने इस प्रवास मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। उन्हें नहीं पता था कि यह इतना बड़ा मसला बन जाएगा।
जनवरी 1980 में जब जनता पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी को असम भेजा, तब उन्हें समझ आया कि असम के लोग इस आंदोलन से कितना जुड़े हुए हैं। वाजपेयी ने असम में एक भाषण भी दिया था। उन्होंने कहा, 'विदेशी यहां आ गए, सरकार कुछ नहीं कर रही। अगर पंजाब में आते, तो लोग टुकड़े-टुकड़े करके फेंक देते।' यह बात 1996 में लोकसभा में CPI-M सांसद इंद्रजीत गुप्ता ने वाजपेयी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के दौरान कही। वाजपेयी ने इसका खंडन नहीं किया। उसी भाषण के तुरंत बाद कथित तौर पर नेली में हिंसा भड़की।
वाजपेयी असम से दिल्ली लौटे और फिर नेली नरसंहार की निंदा की। वाजपेयी अपनी पब्लिक स्पीच में लोगों को खुश करने की कोशिश करते थे लेकिन असम के लीडर्स ने उनकी एक नहीं सुनी। वाजपेयी उदास रहते थे क्योंकि आंदोलनकारी उनसे मिलने नहीं आते थे। आखिरकार वाजपेयी खुद उनके पास गए और मिन्नत की कि कम से कम हिंदुओं के लिए 1961 को कट-ऑफ डेट मान लो। स्थानीय RSS वाले बहुत कॉन्फिडेंट थे लेकिन उन्होंने यह फॉर्मूला ठुकरा दिया। प्रेस से बात करते वक्त भी वाजपेयी टालमटोल करते रहे। जब उनसे पूछा गया, 'क्या आपकी पार्टी ने असम आंदोलन को हवा दी? ये कम्युनिस्टों और मुस्लिमों के खिलाफ है तो आपका फायदा हो रहा है?'
वाजपेयी ने तब कहा, 'गलत शुरुआत से सही नतीजा नहीं निकलता। सारी पार्टियां मिलकर भी ऐसा जन-आंदोलन नहीं खड़ा कर सकतीं। हमारा पुराना स्टैंड है, घुसपैठिए रोके जाएं, देश से निकाले जाएं। विदेशी आकर वोट डालकर हमारे देश का भविष्य तय न करें लेकिन यह आंदोलन मुस्लिमों या कम्युनिस्टों के खिलाफ नहीं।' वाजपेयी ने इस आंदोलन को सही ठहराया था। इन सारे आरोपों के बाद14 जुलाई 1983 को असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ने रिटायर्ड IAS टीपी तिवारी की अगुवाई में एक कमीशन बनाया। काम था-हिंसा के हालात देखना और यह पता लगाना कि यह नरसंहार किसने क्या किया। 547 पेज की रिपोर्ट बनी। सैकड़ों गवाहों, अफसरों और लोगों के इंटरव्यू थे लेकिन सालों तक वह फाइलें धूल खाती रहीं। बाद में उसके टुकड़े अखबारों में छपे। कमीशन ने AASU और AAGSP को हिंसा का जिम्मेदार ठहराया लेकिन साफ कहा, 'यह पूरी तरह सांप्रदायिक नहीं था।'
रिपोर्ट के एक अंश में लिखा गया था, 'इन घटनाओं को सांप्रदायिक रंग देना बिल्कुल गलत है। कहीं असमिया हमलावर थे, पीड़ित बंगाली बोलने वाले हिंदू-मुस्लिम दोनों। कहीं मुस्लिम हमलावर थे, असमिया पीड़ित। कई जगहों पर तो असमिया आपस में ही भिड़ गए। कुछ इलाकों में मुस्लिमों ने दूसरों के साथ मिलकर अपने ही धर्मवालों पर हमला किया। चौलखोवा में अल्पसंख्यकों का एक हिस्सा घुसपैठियों पर हमला करने में शामिल हो गया।'
यह बात 2012 में इंडियन एक्सप्रेस में पत्रकार मुजम्मिल जलील ने रिपोर्ट से छापी। पुलिस ने कुल 688 क्रिमिनल केस दर्ज किए। इनमें से 378 को 'सबूत नहीं' कहकर बंद कर दिया। बाकी 310 पर चार्जशीट डालने की तैयारी थी। अक्टूबर 1997 में असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंता ने इंडिया टुडे को बताया, 'कांग्रेस की उस वक्त की सरकार ने मुआवजा बांट दिया था, बस बात खत्म।' उसी साल कांग्रेस ने असम चुनाव में जीत हासिल की—109 में से 91 सीटें जीत लीं। 1985 के असम समझौते के तहत भारत सरकार ने सारे केस ही खारिज कर दिए। नतीजा यह कि एक भी आदमी पर मुकदमा नहीं चला।
असम समझौता क्या था?
1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी और AASU लीडर्स के बीच एक समझौता हुआ। इसका मकसद असम आंदोलन को हमेशा के लिए खत्म करना था। इसके तहत- 1966 से पहले आए विदेशियों को भारतीय नागरिक मान लिया गया। 1966-1971 के बीच आए लोगों के वोटिंग राइट्स को 10 साल के लिए छीन लिया गया। 1971 के बाद आए लोगों को घुसपैठिया मानकर देश से निकालने का वादा किया गया। साथ ही असम की संस्कृति, भाषा, पहचान बचाने के कानूनी इंतजाम बनाए गए। बदले में सारे आंदोलन खत्म और पुराने केस माफ कर दिए गए।
कुछ सिविल सोसाइटी वालों ने RTI से रिपोर्ट की कॉपी हासिल की लेकिन 600 पेज का ये दस्तावेज आज भी आम लोगों की नजरों से दूर है। इन सालों में नरसंहार के बचे हुए लोग इकट्ठे हुए, गुवाहाटी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अर्जियां डालीं। सरकार ने बस 5000 रुपये मुआवजा देकर मामला निपटा दिया। खोजी पत्रकार अरुण शौरी ने 15 मार्च 1983 के India Today में एक रिपोर्ट लिखी । उन्होंने बताया था कि पुलिस को तीन दिन पहले से ही पता था कि हमला होने वाला है। यानी उनके पास पूरी जानकारी थी कि हालात बिगड़ सकते हैं लेकिन फिर भी उन्होंने कोई तैयारी नहीं की। जैसे ही हालात खराब हुए, राज्य की मशीनरी पीछे हट गई — मतलब सरकार और प्रशासन ने अपनी जिम्मेदारी छोड़ दी। हमलावर खुलकर घूमते रहे, लोगों को मारते रहे और वहां पर सरकार नाम की चीज़ गायब हो गई।
अरुण शौरी के मुताबिक, सुबह से ही हमले की ख़बरें मिल रही थीं लेकिन पुलिस और पैरामिलिट्री दोपहर 3 बजे जाकर पहुंची। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। नेली नरसंहार की फाइल अब सार्वजनिक हो रही है।
