बिहार के विधानसभा चुनाव के नतीजे आए और सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाए बैठे लालू यादव के परिवार को तगड़ा झटका लगा। महागठबंधन के सहयोगियों पर दबाव बनाकर खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवाने में कामयाब रहे तेजस्वी यादव बड़ी मुश्किल से अपनी सीट जीत पाए। ऐसे नतीजे आने के बाद लालू परिवार की अंदरूनी कलह मीडिया के कैमरों पर दिख गई। पहले रोहिणी आचार्य और फिर बाकी बहनों ने भी लालू यादव का घर छोड़ दिया। आरोप लगे हैं कि तेजस्वी यादव और उनके सहयोगियों ने रोहिणी आचार्य से बदसलूकी की।

 

इन सबके बाद लालू यादव के परिवार में खलबली मच गई है। एक समय पर लालू यादव को अपनी किडनी देने वाली उनकी बेटी रोहिणी आचार्य ने खुद को परिवार से अलग कर लिया है। मीसा भारती और तेजस्वी यादव के रिश्ते पहले से ही ठीक नहीं रहे हैं। तेज प्रताप को पहले ही परिवार और पार्टी से निकाला जा चुका है। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि लालू यादव की पार्टी के साथ-साथ उनके परिवार का क्या होगा? भारत की राजनीति में हावी कई परिवार ऐसे हैं जिनमें पीढ़ी बदलने के साथ ही टकराव हुए और कई परिवार इसी टकराव के चलते सत्ता से बाहर हो गए।

 

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मौजूदा वक्त में ही तेलंगाना के के चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश के रेड्डी परिवार में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिल रहा है। कहीं भाई-बहन आमने-सामने हैं तो कभी चाचा-भतीजे की खूब लड़ाई हुई है। महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों में पावर और पार्टी पर कब्जे को लेकर हुए टकरावों का नतीजा यह हुआ है कि परिवार आधारित पार्टियां न सिर्फ बिखर गई हैं बल्कि कई ऐसी भी रही हैं जो फिर कभी सत्ता में नहीं लौट पाए हैं। आइए ऐसे परिवारों और उनकी राजनीति के बारे में विस्तार से समझते हैं...

सबसे पहले लालू परिवार की बात

 

लालू यादव खुद जब जेल गए तो उन्होंने अपनी पार्टी के किसी दूसरे नेता के बजाय अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया था। इससे उनके दोनों साले सुभाष यादव और साधु यादव तक हाशिए पर चले गए। स्पष्ट था कि लालू यादव ने 'अपने खून' को तरजीह थी और अप्रत्यक्ष तौर पर सत्ता अपने हाथ में रखी। लालू-रबड़ी युग खत्म हुआ और आरजेडी अपने अस्तित्व को जूझने लगी थी। खुद लालू प्रसाद यादव 2009 में पाटलिपुत्र लोकसभा सीट से चुनाव हार गए। इसी के बाद लालू की पहली संतान यानी मीसा भारती राजनीति में आईं। 2014 के लोकसभा चुनाव में मीसा भारती इसी पाटलिपुत्र सीट से चुनाव लड़ीं लेकिन हार गईं।

 

राजनीति में संघर्ष का इनाम भी उन्हें मिला और 2016 में उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया गया। उनसे पहले 2015 में ही तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव चुनाव जीतकर विधायक बन गए थे। 2013 में आरजेडी में सक्रिय हो चुकीं मीसा भारती को पहला झटका उसी वक्त लगा जब 2015 में ही लालू और नीतीश साथ आए और उस सरकार में मीसा भारती से काफी छोटे और कम अनुभवी तेजस्वी यादव को डिप्टी सीएम बना दिया गया। मीसा भारती का यह दर्द कई बार उनके बयानों में भी झलका।

 

आखिर में मीसा भारती ने यह स्वीकार कर लिया कि आरजेडी और लालू यादव ने तेजस्वी को ही 'वारिस' बनाने का फैसला कर लिया है। आगे चलकर 2019 में भी मीसा भारती लोकसभा चुनाव लड़ीं और फिर हार गईं। 2024 में उन्होंने इसी पाटलिपुत्र सीट से चुनाव जीत लिया और उन्हीं राम कृपाल यादव को हराया जिनसे दो बार हार चुकी थीं। दूसरी तरफ तेजस्वी यादव ने खुद को लगातार मजबूत किया। 2 बार डिप्टी सीएम बन चुके तेजस्वी यादव ने पार्टी पर भी अपनी पकड़ बना ली है। लालू यादव के जेल जाने और बीमार रहने के बीच अब तेजस्वी यादव ही पार्टी के अघोषित सर्वेसर्वा हैं और मीसा भारती हाशिए पर हैं।

 

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संभवत: वही सलूक रोहिणी आचार्य के साथ भी होने लगा जो कभी मीसा के साथ हुआ था। अब चुनाव के नतीजे आते ही रोहिणी आचार्य ने परिवार का साथ ही छोड़ दिया है। उधर अपनी निजी तस्वीरें सार्वजनिक होने के बाद तेज प्रताप यादव को पहले ही पार्टी और परिवार से बेदखल किया जा चुका है। इस बार तेजस्वी यादव अकेले पड़ते नजर आ रहे हैं और लालू-राबड़ी मौन हैं।

केसीआर का परिवार

 

बेटे और बेटी में किसे नेतृत्व सौंपना है, इसके बारे में के चंद्रशेखर राव यानी केसीआर ने भी जब फैसला लिया तो तरजीह बेटे को दी। नतीजा- बेटी के कविता को दिल्ली की राजनीति में उतारा गया। हालांकि, वह 2019 में लोकसभा का चुनाव हारीं और 2020 में विधानसभा परिषद की सदस्य बन गईं। अपने भाई के टी रामा राव यानी केटीआर से उनका टकराव होने लगा। कई अन्य नेताओं को लेकर भी उन्होंने आरोप लगाए कि 2019 में निजामाबाद से उन्हें चुनाव हराया गया। दिल्ली आबकारी नीति में वह जेल भी गईं और धीरे-धीरे हाशिए पर जाने लगीं। 2024 में तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति (BRS) की हार हुई और उसी के तुरंत बाद केसीआर बीमार हो गए।

 

लगभग एक साल तक के कविता और केटीआर का संघर्ष पर्दे के पीछे चलता रहा। आखिरकार सितंबर 2025 की शुरुआत में केसीआर ने अपनी ही बेटी को पार्टी से निलंबित कर दिया। उन्हें शायद उम्मीद थी कि उनके तेवर नरम पड़ेंगे। हालांकि, इस फैसले ने कविता को और आगबबूला कर दिया। उन्होंने अगले ही दिन पार्टी से इस्तीफा दे दिया। तब कविता ने अपने चचेरे भाइयों और चाचा पर भी आरोप लगाए। 

 

अपने पिता केसीआर का आशीर्वाद लेतीं के कविता, File Photo Credit: PTI

 

 

कुल मिलाकर एक परिवार के इर्द-गिर्द सिमटी यह पार्टी आपसी कलह से परेशान है। केटीआर खुद को अगला नेता स्थापित करने में लगे हैं तो कविता अपनी लड़ाई लड़ रही हैं। नतीजा यह है कि तेलंगाना आंदोलन से उपजी पार्टी बीआरएस 2024 के लोकसभा चुनाव में राज्य की एक भी सीट नहीं जीत सकी। 2023 के विधानसभा चुनाव में केसीआर की पार्टी सिर्फ 39 सीटें जीत पाई थी और सत्ता से बाहर हो गई थी। इसमें से भी लगभग 10 विधायक पिछले 2 साल में पार्टी छोड़ चुके हैं। बीआरएस के पास अब 4 राज्यसभा सांसद बचे हैं। वहीं, विधान परिषद में उसके पास 21 सदस्य हैं। अब देखना यह होगा कि आखिर यह पार्टी कैसे खुद को उबारती है और 2028 के विधानसभा चुनाव या 2029 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के सामने कितनी चुनौती पेश कर पाती है?

आंध्र प्रदेश का रेड्डी परिवार

 

आंध्र प्रदेश की राजनीति में एक समय पर राजशेखर रेड्डी का नाम कद्दावर नेता के तौर पर लिया जाता था। अचानक एक हादसे में उनकी मौत हुई और सब बदल गया। उनका परिवार मुख्यमंत्री पद चाहता था लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने इसे स्वीकार नहीं किया और रेड्डी परिवार की राहें कांग्रेस से जुदा हो गईं। दुश्मनी एकदम कट्टर टाइप की हुई। ऐसी दुश्मनी कि रेड्डी परिवार ने बदला लेने की कसमें खा लीं। 2009 में राजशेखर रेड्डी का निधन हुआ था और 2011 में YSR कांग्रेस की स्थापना हुई।

 

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राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी का संघर्ष शुरू हुआ और लंबा चला। पार्टी बनाने के अगले ही साल यानी 2012 में जगन मोहन रेड्डी को सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया। उस वक्त उनकी बहन वाई एस शर्मिला ने मां विजयम्मा के साथ मिलकर वाईएसआर कांग्रेस को संभाला। उसी वक्त 18 विधानसभा सीटों के साथ-साथ एक लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए। नई नवेली YSR कांग्रेस विजयम्मा और शर्मिला की अगुवाई में चुनाव लड़ी और 18 में से 15 विधानसभा सीट और इकलौती लोकसभा सीट पर जीत हासिल कर ली। 

 

मां विजयम्मा और बहन शर्मिला के साथ जगन मोहन रेड्डी, File Photo Credit: Social Media

 

 

इन चुनावों से पहले शर्मिला ने ही 3000 किलोमीटर लंबी पदयात्रा शुरू की थी जो अगस्त 2013 में पूरी हुई थी। 2019 में भी वह अपने भाई के साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर चलीं और बस से आंध्र प्रदेश की यात्रा की। नतीजा हुआ कि इस बार चंद्रबाबू नायडू को हराकर वाईएसआर कांग्रेस सत्ता में आ गई। सीएम बने जगन मोहन रेड्डी। 2 ही साल में भाई-बहन का टकराव इस कदर बढ़ गया कि शर्मिला ने वाईएसआर कांग्रेस छोड़ दी। साल 2021 में शर्मिला ने नई पार्टी वाईएसआर तेलंगाना बनाई और तेलंगाना शिफ्ट हो गईं। जनवरी 2024 में उन्होंने अपनी इस पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया और कुछ ही दिनों में कांग्रेस ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बना दिया।

 

पहले से ही अपने भाई के खिलाफ चल रहीं शर्मिला अब सीधे-सीधे अपने भाई जगन के सामने हैं। अब वह सीधे-सीधे आरोप लगाती हैं कि जगन मोहन रेड्डी की सरकार में गंभीर स्तर पर भ्रष्टाचार हुए। वहीं, जगन का कैंप आरोप लगाता है कि शर्मिला कांग्रेस के हाथों खेल रहे हैं। दोनों के बीच संपत्ति के बंटवारे का भी विवाद है। इन विवादों का असर यह है कि रेड्डी परिवार अब आंध्र प्रदेश की सत्ता से बाहर हो चुका है और दो अलग-अलग दिशाओं से सत्ता में वापसी के लिए संघर्ष कर रहा है।

महाराष्ट्र का पवार परिवार

 

शरद पवार महाराष्ट्र में कई बार सीएम बने, केंद्र में मंत्री बने और राजनीति के बेहद चतुर खिलाड़ी माने गए। हालांकि, एक चूक उनसे भी हुई जो आगे चलकर भारी पड़ी। शरद पवार ने राजनीतिक वारिस माने जा रहे भतीजे अजित पवार की जगह बेटी सुप्रिया सुले को आगे बढ़ाना शुरू किया। नतीजा- कई बार छोटी-मोटी बगावत कर चुके अजित पवार ने ऐसी बगवात कर डाली कि शरद पवार के हाथ से उनकी ही बनाई पार्टी चली गई। अब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष अजित पवार हैं और शरद पवार के लाख रोकने के बावजूद अजित पवार एनडीए के साथ हैं।

 

शरद पवार के साथ मौजूद अजित पवार और सुप्रिया सुले, File Photo Credit: ANI

 

 

शरद पवार की अगुवाई वाला धड़ा कमजोर हो चुका है। लोकसभा चुनाव में शरद पवार की एनसीपी (शरद पवार) की 8 सीटें आईं और अजित पवार की NCP एक ही सीट जीत पाई। वहीं, कुछ महीनों बाद ही हुए विधानसभा चुनाव में अजित पवार की एनसीपी ने शरद पवार को पीछे छोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि शरद पवार हासिए पर चले गए और अजित पवार अब महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम हैं।

मुलायम परिवार- टूटे, बिखरे और जुटे लेकिन सत्ता गंवा दी

 

समाजवादी पार्टी की स्थापना मुलायम सिंह यादव ने की। उनके भाई शिवपाल सिंह यादव शुरुआत से उनके साथ रहे। उम्मीद लगा बैठे कि मुलायम की विरासत उन्हें मिलेगी और वही पार्टी के मुखिया होंगे। हालांकि, 2017 में मुलायम ने अपने बेटे को तरजीह दी और अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बना दिया। बाद में अखिलेश और शिवपाल का टकराव हुआ तो मुलायम फंसते नजर आए। कभी वह शिवपाल को समझाते तो कभी अखिलेश को डांटते। बढ़ती उम्र और खराब तबीयत ने इस समस्या को खराब कर दिया। मुलायम की आंखों के आगे ही उनका परिवार और उनकी बनाई पार्टी बिखरने लगी। 

 

इसी लड़ाई के बीच उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए और समाजवादी पार्टी सत्ता से बाहर हो गई। बाद में शिवपाल यादव ने अपनी नई पार्टी बना ली और समाजवादी पार्टी से अलग हो गए। 2019 के लोकसभा चुनाव में और 2022 के विधानसभा चुनाव में शिवपाल अलग ही चुनाव लड़े। समय के साथ रिश्ते सुधरे और 2022 में शिवपाल यादव समाजवादी पार्टी में लौट आए और अपनी पार्टी का विलय भी कर लिया। हालांकि, तब तक यह परिवार बहुत कुछ खो चुका था। इसी लड़ाई में मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा सिंह बिष्ट बीजेपी में चली गईं।

 

शिवपाल के दूर रहने के चलते समाजवादी पार्टी न सिर्फ 2017 का चुनाव हारी बल्कि 2022 में भी उसकी वापसी नहीं हो पाई। 2024 के लोकसभा चुनाव में जरूर उसे अभूतपूर्व कामयाबी मिली लेकिन अभी भी समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह यादव का परिवार उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर है। कहा जाता है कि भले ही शिवपाल सिंह यादव सपा में लौट आए हैं लेकिन अब उनकी वह हैसियत नहीं रही जो मुलायम सिंह यादव के जमाने में रहा करती थी। अब सभी बड़े फैसले अखिलेश यादव की मर्जी से होते हैं।

 

इन पांच-छह परिवारों और इन परिवारों पर ही केंद्रित पार्टियों के हश्र ने यह दिखाया है कि अक्सर पीढ़ियां बदलने के साथ ही नेतृत्व को लेकर टकराव होते हैं और इन टकरावों से बचकर निकल जाना बेहद मुश्किल होता है। यूपी में समाजवादी पार्टी, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तेलंगाना में बीआरएस और आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस का हश्र यही दिखाता है। एक समय पर बेहद मजबूत हो चुकीं ये पार्टियां चुनाव दर चुनाव अपना अस्तित्व बचाने में खर्च होती जा रही हैं। इन सबमें समाजवादी पार्टी ही ऐसी बची है जिसने खुद को मजबूती से बचा रखा है।

 

रेड्डी परिवार, पवार परिवार और बीआरएस परिवार पहले ही बिखर चुके हैं। अखिलेश यादव का कुनबा अब कमोबेश एकजुट है। अब ऐसा लगता है कि बिखरने की बारी लालू परिवार की है, जो कि बिहार चुनाव में हार के बाद एकदम से चर्चा में आ गया है।