बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर सबको चौंका दिया है। चुनाव से चर्चाएं थीं कि कुछ भी हो जाए नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे। जब नेशनल डेमोक्रैटिक अलायंस (NDA) ने मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर किसी के नाम का एलान नहीं किया गया तो विपक्ष ने भी खूब सवाल उठाए। आखिर में नीतीश कुमार ने एक बार फिर से सभी कयासों को धता बता दिया और 10वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। पिछले 2 दशक में नीतीश कुमार ने ऐसे-ऐसे राजनीतिक दांव लगाए हैं जिनसे कभी उनके विरोधी चित हुए तो कभी साथी ही हैरान हो गए। 

 

लगभग 50 साल के अपने राजनीतिक करियर में नीतीश कुमार ने हर बार संदेह और आलोचना के दौर से उबरकर ‘फीनिक्स’ पक्षी की तरह फिर से उठ खड़े होने की अद्भुत क्षमता दिखाई है। मंडल राजनीति के बाद उभरने वाले नेताओं में सबसे अलग रहे नीतीश कुमार ने प्रशासनिक कमियों को दूर करने की दक्षता दिखाई जबकि उन्हीं के समय के कई नेता इस मामले में पीछे रह गए। आलोचक अक्सर उन पर अवसरवाद की राजनीति करने का आरोप लगाते रहे हैं। इसे राजनीतिक अवसरवाद कहें या दूरदर्शिता, नीतीश की रणनीति की वजह से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) अब तक राज्य में अपना मुख्यमंत्री नहीं बना सकी है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी बहुत मजबूत है और हालिया विधानसभा चुनाव में 89 सीट जीती है, जबकि जनता दल यूनाइटेड (JDU) को 85 सीटें मिलीं।

 

यह भी पढ़ें- बिहार की नई सरकार में कौन-कौन बना मंत्री? सब के नाम जान लीजिए


नीतीश कुमार सबसे लंबे समय तक पद पर रहने वाले 10 मुख्यमंत्रियों में शामिल हो गए हैं। वह कुल 19 वर्षों से सत्ता में हैं। राजनीतिक पाला बदलने की आदत के कारण उन्हें आलोचक और विरोधी दलों के नेता ‘पलटू राम’ कहने लगे जबकि सुशासन के लिए उनकी लोकप्रियता ‘सुशासन बाबू’ के नाम से भी है। पिछले साल के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी जेडीयू ने बीजेपी से बेहतर ‘स्ट्राइक रेट’ दर्ज किया। दोनों ने बराबर सीटें जीतीं, जबकि जेडीयू ने एक कम सीट पर चुनाव लड़ा था। केंद्र में बहुमत न होने के कारण बीजेपी गठबंधन के इस सहयोगी दल पर निर्भर है।

कैसे शुरू हुआ नीतीश का करियर?

 

इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद और जेपी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाने के बाद नीतीश कुमार ने राज्य बिजली विभाग की नौकरी ठुकराकर राजनीति में कदम रखा। उनका यह कदम बिहार के युवाओं में सरकारी नौकरी के प्रति गहरे आकर्षण को देखते हुए एक असामान्य कदम ही था। लालू प्रसाद और रामविलास पासवान के साथ जेपी आंदोलन के सहयात्री होने के बावजूद चुनावी सफलता उन्हें लंबे समय तक नहीं मिली। वह पहली बार 1985 में हरनौत से लोक दल के उम्मीदवार के रूप में जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। इसके चार साल बाद, वह बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए जबकि सारण से तत्कालीन सांसद लालू प्रसाद ने बिहार की राजनीति में कदम रखते हुए मुख्यमंत्री पद संभाला और तेजी से ऊंचाई हासिल की।

 

यह भी पढ़ें- बिहार में जीतने वालों को कितने वोट मिले? चुनाव आयोग ने सब बता दिया

 

अगले डेढ़ दशक में लालू प्रसाद राज्य के सबसे प्रभावशाली लेकिन विवादित नेताओं में से एक बनकर उभरे। चारा घोटाले में नाम आने के बाद उन्होंने इस्तीफा देकर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। उधर, इसी अवधि में नीतीश कुमार ने लालू से दूरी बनाई, समता पार्टी बनाई और अपने राजनीतिक आधार को मजबूत किया। समता पार्टी ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया और नीतीश ने संसद में अपनी प्रभावशाली कार्यशैली से अलग पहचान बनाई।

 

जनता दल के अध्यक्ष रहे शरद यादव और लालू प्रसाद के बीच मतभेद के चलते लालू ने राष्ट्रीय जनता दल (RJD) का गठन किया। बाद में समता पार्टी का विलय शरद यादव के जनता दल में हुआ और बीजेपी के साथ उसका गठबंधन जारी रहा। साल 2004 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के केंद्र की सत्ता से हटने के बाद बिहार में जीत ने बीजेपी-JDU गठबंधन को नए सिरे से शक्ति दी। फरवरी 2005 के विधानसभा चुनावों के बाद NDA बहुमत से चूक गया था। उस समय केंद्र में भी सत्तारूढ़ RJD-कांग्रेस के गठजोड़ से बिहार की सत्ता पाने की NDA की कोशिशों में तब गतिरोध पैदा हो गया, जब तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह ने विधायकों की कथित खरीद-फरोख्त के मद्देनजर विधानसभा भंग करने का विवादास्पद फैसला लिया।

लालू युग का अंत और नीतीश काल शुरू 

 

हालांकि, यह फैसला कुमार के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ और नौ महीने बाद हुए चुनाव में JDU-बीजेपी गठबंधन को बहुमत मिला और ‘लालू युग’ का अंत हुआ। मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार के पहले पांच वर्ष कानून व्यवस्था में सुधार के लिए याद किए जाते हैं। लालू की तुलना में कम जनसंख्या वाले जातीय समूह से आने वाले कुमार ने अतिपिछड़ा और महादलित जैसी श्रेणियां बनाकर नए सामाजिक समीकरण तैयार किए। स्कूली लड़कियों के लिए साइकिल और ड्रेस देने जैसी योजनाओं ने उन्हें 2010 में प्रचंड बहुमत दिलाया। 

 

यह भी पढ़ें- बिहार: BJP हो या JDU, सबको क्यों चाहिए गृह मंत्रालय? ताकत समझिए

 

साल 2013 में नरेन्द्र मोदी को बीजेपी की चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख बनाए जाने के बाद नीतीश ने बीजेपी से 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया। कांग्रेस के समर्थन से विश्वास मत जीतने के बावजूद 2014 में लोकसभा में JDU के कमजोर प्रदर्शन की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने इस्तीफा दे दिया और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया। एक साल से कम समय में वह फिर मुख्यमंत्री बन गए। कभी अपने ही विश्वस्त रहे जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाकर उन्होंने इस बार आरजेडी और कांग्रेस के समर्थन से सत्ता संभाली।

 

यह महागठबंधन 2017 के चुनाव में जीत तो गया लेकिन दो वर्ष बाद तेजस्वी यादव के खिलाफ उभरे कथित भ्रष्टाचार के मामले पर मतभेद के कारण टूट गया। नीतीश ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और 24 घंटे से भी कम समय में बीजेपी के समर्थन से फिर मुख्यमंत्री बन गए। 2022 में उन्होंने बीजेपी पर जेडीयू को तोड़ने का आरोप लगाते हुए गठबंधन खत्म कर दिया और RJD, कांग्रेस और लेफ्ट दलों के साथ मिलकर नया विपक्षी गठजोड़ ‘इंडिया’ बनाया। हालांकि, इस मोर्चे में उचित महत्व नहीं दिए जाने की अटकलों के बीच उन्होंने इसे भी छोड़ दिया और राजग ने उन्हें दोबारा खुले दिल से वापस स्वीकार कर लिया।