महाराष्ट्र की राजनीति में इन दिनों ज़मीन का मुद्दा गर्माया हुआ है। उपमुख्यमंत्री अजित पवार के बेटे पार्थ पवार पर आरोप है कि उन्होंने पुणे के मुंधवा-मांडवा इलाके में सरकारी ज़मीन को कथित तौर पर बहुत कम दाम में अपनी कंपनी एमीडिया एंटरप्राइजेज एलएलपी के ज़रिए खरीदा। कहा जा रहा है कि यह सौदा लगभग 300 करोड़ रुपये में हुआ, जबकि उस ज़मीन की बाज़ार कीमत करीब 1,800 करोड़ रुपये बताई जा रही है।
विवाद यहीं नहीं थमता, जांच में सामने आया कि यह ज़मीन दरअसल ‘महार वतन’ की श्रेणी में आती है, यानी ऐसी ज़मीन जो आजादी के पहले कभी राज्य द्वारा सेवा या प्रशासनिक योगदान के बदले किसी समुदाय को दी जाती थी, लेकिन जिसका स्वामित्व हमेशा राज्य के पास ही रहता था।
कानून के मुताबिक वतन ज़मीन को बेचा या निजी संपत्ति में तब्दील नहीं किया जा सकता। ऐसे में पार्थ पवार पर लगे आरोपों ने यह बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या ऐतिहासिक रूप से संरक्षित वतन ज़मीन अब राजनीतिक सौदों और निजी हितों का माध्यम बन रही है?
इस विवाद ने न केवल पवार परिवार को मुश्किल में डाला है, बल्कि उस पुरानी वतन व्यवस्था को भी चर्चा के केंद्र में ला दिया है, जिसने कभी मराठा शासन और ब्रिटिश काल में ग्रामीण प्रशासन की नींव रखी थी। आगे इस लेख में खबरगांव विस्तार से इस बात पर विचार करेगा कि वतन सिस्टम क्या था, कैसे विकसित हुआ और आज यह महाराष्ट्र की ज़मीन से जुड़ी सबसे पेचीदा कानूनी और राजनीतिक बहस क्यों बन गया है।
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क्या था वतन सिस्टम?
वतन प्रणाली महाराष्ट्र के सामाजिक और प्रशासनिक ढांचे की एक पुरानी नींव रही है। यह व्यवस्था मराठा साम्राज्य के दौर में विकसित हुई, जब गांवों और क्षेत्रों के प्रशासन के लिए स्थानीय परिवारों को स्थायी अधिकार और ज़मीन दी जाती थी। इन ज़मीनों को 'वतन भूमि' कहा जाता था। यानी ऐसी ज़मीन जो किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति नहीं, बल्कि राजकीय सेवा के बदले दी गई जिम्मेदारीपूर्ण भूमि होती थी। वतनधारक का काम गांव में राजस्व संग्रह, न्याय व्यवस्था, सैनिक सहायता और सामाजिक शांति बनाए रखना होता था।
इस व्यवस्था से कई सामाजिक वर्ग जुड़े, जैसे देशमुख, देशपांडे, कुलकर्णी, पाटिल और महार वतनधारक, जो अपने-अपने क्षेत्र में प्रशासनिक या सेवा कार्य करते थे। उदाहरण के लिए, ‘महार वतन’ मुख्यतः गांव के सुरक्षा और सफाई कार्यों से जुड़ा होता था। इसके बदले उन्हें सीमित भूखंड और कुछ कर छूट दी जाती थी।
मराठा साम्राज्य का शासन विशाल क्षेत्र में फैला था, और हर गांव में शासन के आदेशों को लागू करने, कर वसूलने, न्याय करने और व्यवस्था बनाए रखने के लिए भरोसेमंद लोगों की ज़रूरत थी। इसलिए गांव या परगना स्तर पर कुछ पद स्थायी रूप से स्थानीय परिवारों को सौंप दिए गए। इन पदों में प्रमुख थे – पटेल, जो गांव के मुखिया होते थे और राजस्व व प्रशासनिक जिम्मेदारियां संभालते थे; कुलकर्णी, जो सरकारी रेकॉर्ड और खातों का लेखा-जोखा रखते थे; देशमुख और देशपांडे, जो बड़े क्षेत्रों के राजस्व संग्रहकर्ता और प्रशासक होते थे। इसके अलावा जोशी, देशवाडे और देवस्थान वतनदार जैसे धार्मिक या सामाजिक कार्यों से जुड़े पद भी थे।
यह भूमि सामान्य रूप से कर-मुक्त भूमि होती थी। वे इस भूमि से उपज का लाभ उठाते थे और बदले में राज्य को सेवा प्रदान करते थे। प्रारंभ में यह प्रणाली सामूहिक हित के लिए उपयोगी थी क्योंकि इससे स्थानीय प्रशासन बिना अतिरिक्त खर्च के चलता था। वतनदार अपने गांव और राज्य के बीच एक कड़ी का काम करते थे।
लेकिन समय के साथ वतन प्रणाली में विकृति आ गई। वतनदारों ने अपने पदों को केवल वंशानुगत अधिकार मान लिया और ग्रामीण जनता के प्रति उनकी जवाबदेही समाप्त होने लगी। उन्होंने किसानों पर भारी कर लगाना, बेगार कराना और शोषण करना शुरू कर दिया। इस तरह यह व्यवस्था धीरे-धीरे सामंती ढांचे का रूप लेने लगी। सामाजिक दृष्टि से भी यह व्यवस्था ऊंची जातियों और धनी वर्गों के पक्ष में झुकी हुई थी। निम्न वर्गों और दलित समुदायों को प्रशासन या भूमि पर कोई अधिकार नहीं था।
ब्रिटिश शासन ने 19वीं सदी में जब महाराष्ट्र पर नियंत्रण स्थापित किया, तो उन्होंने शुरुआत में वतन प्रणाली को बनाए रखा। ब्रिटिश अधिकारियों को लगा कि वतनदारों के माध्यम से कर वसूली और स्थानीय नियंत्रण आसान रहेगा। परंतु जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि यह प्रणाली ग्रामीण असमानता और विद्रोह का कारण बन रही है। वतनदार अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहे थे और किसान अत्याचार सह रहे थे। कई जगह किसानों ने वतनदारों के खिलाफ शिकायतें भी कीं।
स्वतंत्रता के बाद बने ऐक्ट
साल 1958 में, महाराष्ट्र सरकार 'वतन निर्मूलन अधिनियम' लेकर आई और इसके तहत इन महार वतनों को ख़त्म कर दिया गया. इसके तहत आने वाली ज़मीनों को भी सरकार ने अपने कब्ज़े में ले लिया। इन कानूनों ने यह सुनिश्चित किया कि अब कोई भी व्यक्ति केवल वंशानुगत आधार पर भूमि या पद का स्वामी नहीं होगा। वतन की भूमि को सामान्य कृषि भूमि माना गया और किसानों को उनके अधिकारों की मान्यता दी गई। वतनदारों को कुछ मुआवज़ा दिया गया ताकि परिवर्तन धीरे-धीरे हो सके, परंतु धीरे-धीरे यह पूरी व्यवस्था खत्म हो गई।
हालांकि, इन जमीनों पर सरकारी आधिपत्य जमाने से पहले सरकार ने उन लोगों को मुआवजा भी दिया जो लोग इन पर काम करके अपना जीवन यापन करते थे। इसके बाद 70 के दशक में सरकार ने एक और कदम उठाए जिसके तहत मूल मालिकों को जमीनें वापस कर दी गईं लेकिन इसके लिए उनसे जमीन की दर का 50 प्रतिशत दान के रूप में ले लिया गया।
आज भी अगर इन जमीनों का गैर-कृषि कार्यों के लिए उपयोग किया जाना है तो 50 प्रतिशत सरकार को दान देकर उनसे अनुमति लेकर ऐसा किया जा सकता है। इस तरह से देखा जाए तो नए मालिकों के नाम पर दर्ज तो हो गए लेकिन सरकार का भी अधिकार इस पर रहा।
क्या है प्रतिबंध?
इन जमीनों की खरीद-फरोख्त को लेकर कड़े नियम बनाए गए हैं। दरअसल ये जमीनें सरकार के प्रतिनिधि के रूप में जिला कलेक्टर के अधिकार क्षेत्र में आती हैं। इसका मतलब यह है कि इस तरह की जमीन की खरीद-फरोख्त के लिए जिला कलेक्ट की अनुमति होना जरूरी है। अगर बिना जिला कलेक्टर की इजाजत के जमीन का लेन-देन होता है तो वह उसे सरकार को हस्तांतरित कर सकता/सकती है।
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क्या रहे प्रभाव?
वतन सिस्टम के प्रभाव चौतरफा रहे। एक ओर इसने मराठा शासनकाल में स्थानीय प्रशासन को संगठित रखने में मदद की और शासन को गांव तक पहुंचाया। दूसरी ओर, इसने ग्रामीण समाज में वर्गीय और जातीय असमानता को गहरा किया। किसानों और भूमिहीन मजदूरों के लिए यह प्रणाली अक्सर अत्याचार का प्रतीक बन गई। वतनदारों की शक्ति ने उन्हें स्थानीय स्तर पर छोटा शासक बना दिया, जिससे राज्य और जनता के बीच एक असमान दूरी पैदा हो गई।
आख़िरकार, जब आधुनिक भारत में लोकतंत्र और समानता के सिद्धांत लागू हुए, तो वतन प्रणाली जैसे सामंती ढांचे का बने रहना असंभव था। इसके उन्मूलन के साथ महाराष्ट्र ने एक नई भूमि नीति अपनाई, जहां भूमि का स्वामित्व और प्रशासनिक अधिकार जाति या वंश के बजाय कानूनी और लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित हो गया।
देखा जाए तो महाराष्ट्र का वतन सिस्टम शुरुआत में प्रशासनिक सुविधा का प्रतीक था, जिसने शासन को स्थानीय स्तर तक पहुंचाया। लेकिन समय के साथ यह शोषण, असमानता और सामंतवाद की जड़ बन गया। इसकी समाप्ति ने महाराष्ट्र को सामाजिक न्याय और भूमि सुधार की दिशा में आगे बढ़ाया, जो आज भी ग्रामीण महाराष्ट्र की सामाजिक संरचना में महसूस किया जा सकता है।
