2003 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव बेहद रोमांचक हो रहा था। अब महिला बनाम महिला का मुकाबला नहीं, बल्कि दो ऐसे नेताओं का था जो मुख्यमंत्री रह चुके थे। एक तरफ मौजूदा मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तो दूसरी तरफ दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने मदन लाल खुराना। भारतीय जनता पार्टी (BJP) विकास के मुद्दों पर कांग्रेस को घेरने की कोशिश कर रही थी तो कांग्रेस उन्हीं मुद्दों को अपनी कामयाबी बता रही थी। इतना ही नहीं, शीला दीक्षित ने वादा किया कि अब वह दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने की दिशा में काम करेंगी। गुटबाजी दोनों तरफ थी ऐसे में दोनों दलों के नेताओं के सामने बड़ी चुनौती थी कि विपक्षियों से लड़ने के साथ-साथ अपने घर को भी संभाला जाए। यह स्पष्ट था कि जो भी इस दोहरे संघर्ष से पार पाएगा, वही इस चुनाव का विजेता होगा। आखिर में हुआ भी वही और आपसी कलह भारी पड़ी।
पांच साल सरकार चला चुकीं शीला दीक्षित अब दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी का बनाने का वादा कर रहे थे। शीला दीक्षित को चुनौती देने की कोशिश में कांग्रेस के सज्जन कुमार, जयप्रकाश अग्रवाल, जगदीश टाइटलर और रामबाबू शर्मा जैसे नेताओं ने गुटबाजी करने की कोशिश की लेकिन वे शीला दीक्षित के व्यक्तित्व को चुनौती नहीं दे पाए थे। इस बार गोल मार्केट सीट पर बीजेपी ने कीर्ति आजाद की पत्नी पूनम आजाद को उतारा था। सामने मुख्यमंत्री शीला दीक्षित थीं और नतीजा फिर वही हुआ। शीला दीक्षित फिर से इस सीट से चुनाव जीत गईं।
फिर चूक गए खुराना
वहीं, 2003 में बीजेपी की ओर से मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री पद का चेहरा थे लेकिन फिर से उनका ख्वाब अधूरा ही रह गया। वह हर हाल में दिल्ली में वापसी चाहते थे। हालांकि, अभी भी पार्टी में साहिब सिंह वर्मा जैसे उनके धुर विरोधी मौजूद थे। कैंपेन कमेटी के चेयरमैन बने विजय कुमार मल्होत्रा भी सीएम पद के दावेदार थे। दूसरी तरफ विजय गोयल जैसे नेता भी दम भर रहे थे। इस गुटबाजी का असर पार्टी के चुनाव प्रचार में भी दिखा। मदनलाल खुराना ने पूरी दिल्ली में रथयात्रा तो निकाली लेकिन बाकी दिग्गज नेताओं ने उनका साथ ही नहीं दिया। वह अकेले पड़ गए और इसका असर नतीजों में दिखा। बीजेपी सिर्फ 20 सीटें ही जीत पाई।
मोती नगर से चुनाव लड़ने उतरे मदन लाल खुराना के खिलाफ कांग्रेस ने दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ की अध्यक्ष अल्का लांबा को चुनाव में उतारा। चुनाव में वह अल्का लांबा के बारे में कहते, 'वह मेरी बेटी जैसी है। वह विधानसभा को भी नहीं जाती है। वह कुछ दिन घूमेगी और 1 दिसंबर को हम उसे विदा कर देंगे।' चुनाव से ठीक पहले उन्हें दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (DMRC) का चेयरमैन बनाया गया था। चुनाव लड़ने से पहले उन्होंने अपना पद नहीं छोड़ा जिसे कांग्रेस ने मद्दा भी बनाया और यह कहा कि वह लाभ के पद पर रहते हुए चुनाव लड़ रहे हैं।
कांग्रेस ने काम से पलट दिया गेम!
बीजेपी ने विकास के मुद्दों पर सरकार को घेरने की कोशिश की। उसने आरोप लगाए कि बिजली और पानी की स्थिति खराब है। इसके ठीक उलट शीला दीक्षित की अगुवाई में कांग्रेस बिजली, पानी और विकास के मुद्दों में ही अपनी कामयाबी बताकर चुनाव लड़ रही थी। उन्होंने यह भी कहा कि कई सुधार हुए हैं और जो बाकी हैं उन्हें अगले कार्यकाल में पूरा किया जाएगा।
मेट्रो को लेकर भी दोनों तरफ से दावे हुए। बीजेपी इसे अपनी कामयाबी बता रही थी तो शीला दीक्षित ने इसे अपनी सरकार की सफलता बताकर प्रचार किया। सत्ता से बाहर रहते हुए बीजेपी ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की बात भी कही। दबे स्वर में ही सही लेकिन कांग्रेस ने भी इसका आश्वासन दिया। उस वक्त केंद्र में बीजेपी की ही सरकार थी ऐसे में वह कई मुद्दों पर खुद ही घिर जाती थी। दरअसल, कानून व्यवस्था और आवास-विकास जैसे मुद्दे तब भी केंद्र सरकार के ही हाथ में थे।
आंकड़ों में कैसा था चुनाव?
2003 में कुल 70 में से 57 सीटें अनारक्षित थीं और 13 सीटें ऐसी थीं जो अनुसूचित जाति के लिए आरक्षिण थीं। इस चुनाव में मतदाताओं की संख्या 84.48 लाख तक पहुंच गई थी जिसमें से 45.13 लाख लोगों ने वोट डाला। नतीजे आए तो बीजेपी एक बार फिर से चूक गई थी। 70 सीटों में सिर्फ 20 पर ही उसे जीत हासिल हुई। वहीं, शीला दीक्षित की अगुवाई में कांग्रेस ने 47 सीटें जीत हासिल की और लगातार दूसरी बार दिल्ली में सरकार बना ली। इस चुनाव में एनसीपी को 1, जेडीएस को 1 और एक निर्दलीय उम्मीदवार को भी जीत मिली थी।
नतीजे आने के बाद कांग्रेस में भी थोड़ी सुगबुगाहट हुई। स्पष्ट बहुमत होने के बावजूद एक हफ्ते तक शपथ ग्रहण नहीं हुआ। हालांकि, सोनिया गांधी ने आखिर में शीला दीक्षित के नाम को ही मंजूरी दी। इसके बाद तो शीला दीक्षित का एकछत्र राज हो गया। शीला ने प्रेम सिंह को विधानसभा अध्यक्ष के पद से हटवा दिया और अजय माकन को अध्यक्ष बनाया गया। हालांकि, कहा जाता है कि इसके पीछे का प्लान यह था कि अजय माकन कमजोर हो गए।