यमुना में काफी पानी बह चुका था और पांच साल में बीजेपी की तस्वीर भी बदल चुकी थी। साल 2008 के विधानसभा चुनाव में दो बार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को चुनौती देने के लिए भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने विजय कुमार मल्होत्रा को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया था। वह ग्रेटर कैलाश से चुनाव लड़े। तब बीजेपी में नरेंद्र मोदी तो थे लेकिन उनका दौर नहीं था। तब 75 साल में 'रिटायरमेंट' वाली नीति नहीं थी, शायद यही वजह रही कि बीजेपी ने कम उम्र के विजय गोयल और हर्षवर्धन जैसे नेताओं के बजाय 78 साल के विजय कुमार मल्होत्रा को सीएम कैंडिडेट बनाया। नतीजा हुआ कि बीजेपी एक बार फिर लगभग जीती हुई बाजी हार गई। बाद में बीजेपी नेताओं ने खुद माना कि अगर कोई युवा चेहरा होता तो बात दूसरी हो सकती थी।

 

इस चुनाव से पहले कांग्रेस के खिलाफ एंटी-इनकम्बेंसी बताई जा रही थी। अन्य राज्यों के भी चुनाव थे और माना जा रहा था कि दिल्ली में तो बीजेपी आराम से जीत रही है। इससे पहले 2007 के एमसीडी चुनाव में बीजेपी ने एकतरफा जीत हासिल करके अपना जोर भी दिखाया था। दिल्ली में बीजेपी ने अरुण जेटली को चुनाव का प्रभारी बनाया। उनके अच्छे दोस्त और गुजरात के मुख्यमंत्री के पद पर काबिज नरेंद्र मोदी भी दिल्ली आए और खूब प्रचार किया। बीजेपी ने नारा दिया था 'कांग्रेस पड़ी भारी'। कांग्रेस थोड़े बहुत दबाव में थी लेकिन शीला दीक्षित को अपने काम पर भरोसा था।

सीलिंग पर फंसती कांग्रेस को मिल गई थी संजीवनी

 

उसी समय दिल्ली में सीलिंग शुरू हो गई थी। रिहायशी इमारतों में चलने वाले बिजनेस बंद किए जाने लगे। ज्यादातर कारोबारी रिहायशी इमारतों में ही दुकानें चलाते थे, ऐसे में उन्हें समस्या होने लगी। कांग्रेस इस मुद्दे पर फंस रही थी। बीजेपी हमलावर हो रही थी। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने सीलिंग रोक दी और दुकानें फिर से खुल गई। इसका फायदा कांग्रेस को हुआ और उसके खिलाफ व्यापारियों का गुस्सा थोड़ा कम हो गया।

 

वहीं, विजय कुमार मल्होत्रा जैसा कमजोर चेहरा लेकर चुनाव में उतरी बीजेपी के लिए शीला दीक्षित के सामने टिक पाने की भी चुनौती थी। इसी बीच दिल्ली के चुनाव में वोटिंग से ठीक पहले मुंबई में हुए आतंकी हमले ने कांग्रेस का माहौल और खराब कर दिया। केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी तो बीजेपी ने दिल्ली सरकार को भी आतंकवाद के मुद्दे पर घेरना शुरू किया। हालांकि, चुनाव नतीजों ने यह बताया कि बीजेपी का केंद्रीय मुद्दों वाला एजेंडा दिल्ली में काम नहीं कर पाया और लोगों ने स्थानीय मुद्दों के आधार पर ही वोट डाले।

 

नतीजों के बाद विजय कुमार मल्होत्रा ने कहा, 'यह हमारी हार है। विधानसभा चुनाव के नतीजे हमारी उम्मीद के मुताबिक नहीं रहे। जाहिर तौर पर हम इसकी समीक्षा करेंगे कि हमारे उम्मीदवार उन जगहों पर भी क्यों नहीं जीत पाए जो कि हमारे गढ़ हुआ करते थे।'विजय कुमार मल्होत्रा को आगे करने से नाराज हुए विजय गोयल ने चुनाव नतीजों के बाद कहा, 'यह एक सुनहरा मौका था जो हमने गंवा दिया। हमें अपनी वापसी के लिए झुग्गी-झोपड़ियों और अनअथराइज्ड कॉलोनियों में काम करने की जरूरत है।'

 

बीजेपी प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने तो विजय कुमार मल्होत्रा को सीएम कैंडिडेट बनाने के फैसले पर ही सवालिया निशान लगा दिए और कहा, 'एक युवा सीएम कैंडिडेट शायद बेहतर विकल्प होता। खुद अरुण जेटली बेहतर विकल्प हो सकते थे।' वहीं हार के बाद अरुण जेटली ने कहा, 'स्पष्ट रूप से यह कांग्रेस के लिए बड़ी जीत है। मैं हार की नैतिक जिम्मेदारी लेता हूं।'

बीजेपी को लगा था तगड़ा झटका

 

नरेंद्र मोदी की विकास पुरुष वाली छवि, 10 साल की एंटी इनकम्बेंसी, आतंकी हमला और तमाम अन्य मुद्दों पर कांग्रेस को घेर रही बीजेपी को लग रहा था कि वह दिल्ली में वापसी कर लेगी। हालांकि, दिल्ली की बीजेपी एक बार फिर से आपसी कलह से उबर नहीं पाई थी। जिन लोगों को टिकट नहीं मिले उन्होंने आरोप लगाए कि पैसे लेकर टिकट दिए गए। हर्ष वर्धन और विजय गोयल के समर्थकों को झटका लगा था तो वे भी उदासीन हो गए थे और पार्टी पर एक बार फिर गुटबाजी हावी होती दिख रही थी। नतीजे आए तो बीजेपी कार्यकर्ता और नेता सन्न रह गए।


परिसीमन के बाद बदली-बदली थी दिल्ली

चुनाव से पहले ही दिल्ली में परिसीमन हुआ था। 2008 में हुए नए परिसीमन के बाद सीटों का क्षेत्र और नाम बदल गए थे। ऐसे में इस बार शीला दीक्षित जिस सीट से चुनाव लड़ीं उसका नाम था नई दिल्ली। उन्होंने बीजेपी के विजय जॉली को चुनाव हराकर न सिर्फ अपनी जीत की हैट्रिक लगाई बल्कि कांग्रेस की सरकार की हैट्रिक भी लगवा दी।

 

2008 में दिल्ली में विधानसभा सीटों की संख्या तो 70 ही थी लेकिन आरक्षित सीटों की संख्या 12 और अनारक्षित सीटों की संख्या 58 हो गई थी। ये सभी 12 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं और यही व्यवस्था अभी भी लागू है। इस चुनाव में कुल मतदाताओं की संख्या 1.07 करोड़ तक पहुंच गई जिसमें से 61.77 लाख लोगों ने वोट डाले। सिर्फ 3 महिलाएं ही इस विधानसभा में भी चुनी गईं जिसमें एक तो खुद मुख्यमंत्री शीला दीक्षित थीं। उनके अलावा कांग्रेस की ही किरण वालिया और बरखा सिंह भी चुनाव जीतीं।

 

एक बार फिर से मुकाबला कांग्रेस बनाम बीजेपी ही था लेकिन कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार कामयाबी हासिल की। कांग्रेस ने कुल 43 सीटों पर जीत हासिल की। बीजेपी ने अपनी सीटें तो बढ़ाईं लेकिन वह 23 पर ही रह गई। इस बार मायावती की बहुजन समाज पार्टी को 2 और राम विलास पासवान की एलजेपी को भी एक सीट मिली। ओम प्रकाश चौटाला के इंडियन नेशनल लोकदल ने भी एक सीट यानी नजफगढ़ में जीत हासिल की।

मायावती ने खराब कर दिया गेम

 

उत्तर प्रदेश में जीत के बाद पूरे देश में पैर पसारने में लगीं मायावती ने दिल्ली में भी अपनी पार्टी को मजबूत करने का फैसला किया था और विधानसभा चुनाव में उतर गई थीं। उनकी पार्टी को भले ही सिर्फ 2 सीटों पर जीत मिली हो लेकिन वह दिल्ली में 14 पर्सेट वोट लेकर बीजेपी का काम बिगाड़ चुकी थी। 2003 में भी BSP दिल्ली के चुनाव में उतरी थी लेकिन तब उसे सिर्फ 5.8 पर्सेंट वोट ही मिले थे। BSP ने बीजेपी को सत्ता से तो दूर किया ही, उसने कांग्रेस के भी वोट काटे और पिछले चुनाव की तुलना में उसे 7.8 पर्सेंट वोट और 4 सीटें कम मिलीं। बीजेपी की सीटें बढ़ीं लेकिन उसकी सत्ता में लौटने की उम्मीद फिर से धूमिल हो गई।