पिछले कुछ महीनों से रुपये की कीमत लगातार गिरती ही जा रही है। बुधवार को रुपये की कीमत गिरकर 84 रुपये के पार हो गई। इस बात को लेकर राजनीतिक गलियारों में बहस देखी गई। विपक्ष ने भी समय समय पर रुपये की गिरती कीमत को लेकर सरकार को घेरने की कोशिश की है।
तो खबरगांव आपको बता रहा है कि आखिर रुपये की कीमत लगातार गिर क्यों रही है, इससे फर्क क्या पड़ता है और कैसे तय होती है रुपये की कीमत?
क्यों कम हो रही रुपये की कीमत?
रुपये की कीमत गिरने के पीछे का कारण घरेलू इक्विटीज़ की बिकवाली और नवंबर में व्यापार असंतुलन का बढ़ना है। फॉरेन एक्सचेंज मार्केट में तेल का आयात करने वाले देशों की तरफ से डॉलर की डिमांड बहुत ज्यादा थी, जिसकी वजह से भी रुपये की कीमत गिरी। मुद्रा बाजार पर नजर रखने वाले एक्सपर्ट्स का कहना है कि इस महीने रुपये की कीमत और ज्यादा गिरकर 85 डॉलर तक पहुंच सकती है. संभावना इस बात की भी जताई जा रही है कि अगले साल 25 मार्च तक रुपये की कीमत और ज्यादा घटकर 85.50 तक पहुंच सकती है।
दरअसल, अमेरिकी चुनाव और विदेशी फंड की निकासी की वजह से रुपये पर काफी समय से दबाव है। न सिर्फ नवंबर में बल्कि विदेशी निवेशकों ने अक्तूबर में करीब 12 बिलियन डॉलर की इक्विटी की बिकवाली की थी।
कैसे तय होती है रुपये की कीमत?
रुपये की कीमत फ्री मार्केट के आधार पर तय होती है। यह पूरी तरह से ऑटोमेटेड होता है। दरअसल, किसी भी देश की करेंसी की कीमत करेंसी के डिमांड और सप्लाई के आधार पर तय होती है। फॉरेन एक्सचेंज मार्केट में जिस करेंसी की डिमांड ज्यादा होती है उसकी कीमत ज्यादा होती है और जिसकी डिमांड कम होती है उसकी कीमत भी कम होती है। दुनिया के ज्यादातर देशों की करेंसी की कीमत इसी फ्री मार्केट के जरिए ही तय होता है।
हालांकि, सरकारों के पास इस बात का अधिकार होता है कि वे अपनी मुद्रा की कीमत किसी भी अन्य देश की मुद्रा की तुलना में खुद निर्धारित कर सकें। इसे पेग्ड एक्सचेंज रेट (Pegged Exchange Rate) कहते हैं। पर सरकारें इसका सहारा नहीं लेती हैं।
मिडिल ईस्ट के कई देश, जापान, नेपाल इत्यादि ने कई अन्य देशों की मुद्राओं के साथ इस तरह की नीतियों को अपनाया है। उदाहरण के लिए नेपाल ने भारत की मु्द्रा के लिए अपनी मुद्रा का एक्सचेंज रेट 1.6 पर निर्धारित कर रखा है। इसलिए एक भारतीय रूपये की कीमत 1.6 नेपाली रुपये है। जब कोई देश डॉलर के मुकाबले जानबूझकर अपनी मुद्रा की कीमत को घटाता है तो उसे मुद्रा का अवमूल्यन कहते हैं।
क्या होता है फॉरेन एक्सचेंज मार्केट?
यह एक तरह का अंतर्राष्ट्रीय बाजार होता है जिसमें दुनिया भर की मुद्राओं की खरीद बिक्री होती है। इस मार्केट में जिस करेंसी की डिमांड ज्यादा होती है उसकी कीमत ऊंची होती है और जिसकी डिमांड कम होती है उसकी कीमत भी कम होती है।
रुपये की कीमत गिरने से पड़ता है क्या फर्क?
रुपये की कीमत गिरने का भारत द्वारा विदेशी से आयात की जाने वाली वस्तुएं महंगी हो जाती हैं। चूंकि रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले कम हो जाती है इसलिए जो चीजें हम विदेशों से खरीदते हैं उनके लिए हमें अब ज्यादा पैसा देना पड़ता है।
इसी तरह से रुपये की कीमत गिरने से निर्यात को बढ़ावा मिलता है। चूंकि भारतीय रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले कम होती है, इसलिए दूसरे देश जो भी चीज़ें भारत से खरीदते हैं उसके लिए उन्हें कम डॉलर चुकता करना पड़ता है, जाहिर है अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत के वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है।
इसलिए कभी-कभी जब सरकार को व्यापार असंतुलन को कम करना होता है तो निर्यात को बढ़ावा देने और आयात को कम करने के लिए सरकार डॉलर के मुकाबले अपनी मुद्रा का अवमूल्यन भी कर देती है।
सरकार क्या कर सकती है?
सरकार मुद्रा की कीमत को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में निर्धारित कर सकती है। यानी कि अगर सरकार चाहे तो केंद्र सरकार रुपये की कीमत को डॉलर की तुलना में अपने हिसाब से तय कर सकती है, लेकिन ऐसा करने से लंबी अवधि में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इसलिए सरकारें आमतौर पर ऐसा नहीं करती हैं।