दिल्ली में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो गया है। अगले महीने तक नई सरकार भी बन जाएगी। इस चुनाव में दिलचस्प बात ये है कि कुछ महीनों पहले तक साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली आम आदमी पार्टी और कांग्रेस इस बार अलग-अलग राह पर हैं। पूर्व सीएम और AAP के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने काफी पहले ही अकेले चुनाव लड़ने की बात साफ कर दी थी।
दिल्ली चुनाव के लिए आम आदमी पार्टी ने सभी 70 सीटों पर उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है। वहीं, कांग्रेस अब तक 48 सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है।
लोकसभा चुनाव के दौरान दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था। दिल्ली की 7 लोकसभा सीटों में से 4 पर AAP और 3 पर कांग्रेस ने उम्मीदवार उतारे थे। हालांकि, दोनों का गठबंधन एक भी सीट नहीं जीत सका था। लोकसभा चुनाव के कुछ महीनों बाद ही हो रहे विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां अलग-अलग उतर रहीं हैं।
कांग्रेस के साथ ही मिलकर बनी थी पहली केजरीवाल सरकार
दिल्ली में पहली बार केजरीवाल सरकार कांग्रेस के साथ मिलकर ही बनी थी। बात 2013 के विधानसभा चुनाव की है। कुछ ही महीनों पहले बनी आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की 70 में से 28 सीटें जीत ली थी। लगातार तीन बार से सरकार बना रही कांग्रेस इस चुनाव में 8 सीटों पर सिमट गई थी। 31 सीटें जीतकर बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी।
चुनाव नतीजों के बाद बहुमत न होने के कारण बीजेपी ने सरकार बनाने का दावा पेश नहीं किया। इसके बाद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने साथ मिलकर सरकार बनाई। अरविंद केजरीवाल पहली बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बने। हालांकि, इस गठबंधन पर सवाल भी उठने लगे। सवाल उठे कि जिस कांग्रेस का विरोध कर आम आदमी पार्टी बनी थी, उसी के साथ मिलकर सत्ता में आ गई।
आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के इस बेमेल गठबंधन में बात बिगड़ने लगी। आखिरकार 49 दिन बार 14 फरवरी 2014 को अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देते वक्त केजरीवाल ने यही कहा कि अभी बहुमत नहीं है, इसलिए जन लोकपाल बिल पास नहीं करवा सकते। अगली बार बहुमत के साथ लौटेंगे।
लगभग एक साल तक दिल्ली में राष्ट्रपति शासन रहा। फरवरी 2015 में दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए और आम आदमी पार्टी ने नया रिकॉर्ड बना दिया। पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीत लीं। ये पहली बार था जब किसी पार्टी को इतनी सीटें मिली थीं। कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत सकी। बीजेपी भी 3 सीटें ही जीत सकी।
जब साथ आए केजरीवाल और कांग्रेस
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी पार्टियों ने मिलकर I.N.D.I.A. ब्लॉक बनाया। आम आदमी पार्टी और कांग्रेस भी इसका हिस्सा बने। दोनों ने मिलकर दिल्ली, हरियाणा, गुजरात और गोवा में लोकसभा चुनाव लड़ा। पंजाब में दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा, क्योंकि आम आदमी पार्टी को यहां अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद थी। हालांकि, ऐसा हुआ नहीं। पंजाब में कांग्रेस ने 7 सीटें जीत लीं। आम आदमी पार्टी 3 सीट ही जीत सकी।
बहरहाल, लोकसभा चुनाव में जिन 4 राज्यों में दोनों ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, वहां आम आदमी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी। कांग्रेस ने तब भी अच्छा प्रदर्शन किया। हरियाणा की 5, गुजरात और गोवा में 1-1 सीटें कांग्रेस ने जीतीं।
लोकसभा चुनाव के बाद जब हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए, तब भी दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन को लेकर बात चल रही थी। हालांकि, सिर्फ बातें ही हो सकीं। गठबंधन नहीं। आखिरकार दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ीं। बीजेपी ने हरियाणा की 90 में से 48 सीटें जीत लीं। कांग्रेस को 37 सीटें मिलीं। जानकार मानते हैं कि अगर हरियाणा में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस साथ मिलकर लड़ते तो नतीजे कुछ और हो सकते थे। दोनों के साथ आने से बीजेपी को सरकार बनाने में मुश्किल आ सकती थी।
दिल्ली में केजरीवाल को कांग्रेस पसंद क्यों नहीं?
सवाल उठता है कि लोकसभा चुनाव में तो दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने मिलकर लड़ा था। मगर विधानसभा चुनाव में दोनों अलग-अलग क्यों लड़ रहे हैं।
कांग्रेस के साथ न आना केजरीवाल की सियासी रणनीति कही जा सकती है। उसकी वजह भी है। दरअसल, दिल्ली में कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है। उसका वोट शेयर लगातार घट रहा है। पिछले तीन लोकसभा और विधानसभा चुनाव से कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत सकी है।
2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 40 फीसदी से ज्यादा वोट लेकर 43 सीटें जीती थीं और सरकार बनाई थी। 2013 में कांग्रेस महज 8 सीटें जीत सकी। उसे करीब 25 फीसदी वोट मिले थे। 2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत सकी। उसका वोट शेयर भी घट गया। 2015 में कांग्रेस को 9.7 तो 2020 में 4.3 फीसदी वोट ही मिले।
यही ट्रेंड लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने दिल्ली की सभी सातों सीटें जीती थीं। उसे वोट भी 57 फीसदी से ज्यादा मिले थे। 2014 के चुनाव में कांग्रेस को करीब 15 फीसदी मिले, लेकिन वो एक भी सीट नहीं जीत सकी। 2019 के चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर बढ़कर 23 फीसदी तो हुआ लेकिन इस बार भी सीट नहीं मिल सकी। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 19 फीसदी वोट मिले थे और तब भी वो एक सीट भी नहीं जीत पाई।
स्विंग वोटर सबसे बड़ी वजह
दिल्ली उन राज्यों में है, जहां की जनता लोकसभा में किसी और को तो विधानसभा में किसी और को जीता रही है। दिल्ली में लोकसभा चुनाव के लगभग 9 महीने बाद विधानसभा चुनाव होते हैं। लोकसभा में तो बीजेपी सारी सीटें जीत लेती हैं, लेकिन विधानसभा में आम आदमी पार्टी से मात खा जाती है।
इसकी वजह स्विंग वोटर्स हैं। दिल्ली की जनता राष्ट्रीय स्तर पर तो बीजेपी को चाहती है, मगर राज्य में उसे केजरीवाल ही पसंद है। इसे ऐसे समझिए कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 65 विधानसभाओं में आगे रही थी, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 8 सीट ही जीत सकी। इससे पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी 60 विधानसभा सीटों पर आगे थी, लेकिन 2015 के चुनाव में 3 सीटों पर सिमट गई।
केजरीवाल के लिए कांग्रेस से दूरी बनाने की एक वजह ये है कि दोनों का वोटर लगभग एक ही है। क्योंकि बीजेपी का तो अपना वोट बैंक बना है। मगर आम आदमी पार्टी को विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट मिल जाता है। पिछले 3 विधानसभा चुनाव के नतीजे देखें तो बीजेपी का वोट शेयर 30 फीसदी से ऊपर ही रहा है, जबकि कांग्रेस का लगातार घट रहा है। जाहिर है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोटर आम आदमी पार्टी के पास चला जाता है।
ऐसी स्थिति में अगर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस साथ मिलकर चुनाव लड़ते तो इससे बीजेपी को फायदा हो सकता था। क्योंकि माना जाता है कि दिल्ली का वोटर कांग्रेस से छिटका हुआ है। ऐसे में बीजेपी को अपने वोटर्स के साथ-साथ कांग्रेस के वोटर्स के वोट भी मिल सकते थे।