दिल्ली की राजनीति हमेशा से चुनावी रणनीतिकारों और अन्य विशेषज्ञों के लिए टेढ़ी खीर साबित हुई है। दिल्ली के लोग एक चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (BJP) को लोकसभा की सातों सीटें देते हैं तो विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (AAP) को बंपर बहुमत देते हैं। कभी कांग्रेस और बीजेपी की लड़ाई का केंद्र रहने वाली दिल्ली में अब कांग्रेस का वजूद खत्म सा हो गया है और यह लड़ाई AAP और बीजेपी के बीच ही सिमट गई है। इस लड़ाई में न सिर्फ कांग्रेस हाशिए पर चली गई है बल्कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी (BSP), नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड), इंडियन नेशनल लोकदल (INLD), शिरोमणि अकाली दल (SAD) और कई अन्य दल भी दिल्ली की राजनीति से लगभग बाहर हो गए हैं।
एक समय ऐसा भी था जब दिल्ली की मुख्य पार्टियों को इन पार्टियों के चलते नुकसान उठाना पड़ता था। कई बार तो बीजेपी ने ही जेडीयू, एलजेपी और शिरोमणि अकाली दल जैसे दलों से गठबंधन भी किया। एक समय ऐसा भी आया जब मायावती की BSP के चलते बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस को भी अच्छा-खासा नुकसान हुआ। आइए समझते हैं कि पिछले 5 चुनाव में दिल्ली में सक्रिय रही पार्टियां कैसे सिमटती गईं और एक बार फिर से दिल्ली की राजनीति कैसे दो ही पार्टियों के बीच सिमट गई।
2003 का चुनाव
कांग्रेस की तेजतर्रार नेता शीला दीक्षित की अगुवाई में दिल्ली में सक्रिय कांग्रेस पार्टी सत्ता पर काबिज होने का सपना लेकर उतरी थी। दूसरी तरफ बीजेपी आपसी कलह से ही जूझ रही थी। 2003 के विधानसभा चुनाव में कुल 6 राष्ट्रीय पार्टियों और 12 राज्य स्तरीय पार्टियों ने दिल्ली के विधानसभा चुनाव में हिस्सा लिया था। कई अन्य पार्टियां भी चुनाव में उतरी। मुख्य मुकाबला तब भले ही बीजेपी और कांग्रेस के बीच हुआ लेकिन अन्य पार्टियों को नकारा नहीं जा सका और कुछ क्षेत्रों में वे कम से कम इस स्थिति में जरूर थीं कि वे खुद भले ही न चुनाव जीतें लेकिन किसी को हरा जरूर सकती थीं।

कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़कर 47 सीटें जीत ली थी। उसे 48.13 पर्सेंट वोट मिले। बीजेपी ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे 35.22 पर्सेंट वोट मिले और सिर्फ 20 सीटें जीत पाई। बाकी के बचे लगभग 17 पर्सेंट वोट में कई ऐसे दल रहे जो दिल्ली की अलग-अलग विधानसभाओं में अलग-अलग वजहों से मजबूत बने रहे। उस चुनाव में बसपा 40 सीटों पर चुनाव लड़ी और उसे 5.76 पर्सेंट वोट मिले। इसी चुनाव में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने 33 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, उसे 2.24 पर्सेंट वोट मिले और एक सीट पर उसे जीत भी मिली।
जनता दल (सेक्युलर) ने 12 सीटों पर चुनाव लड़कर एक सीट पर जीत हासिल की और उसे 0.75 पर्सेंट वोट मिले। तब इंडियन नेशनल लोकदल को भी 0.25 पर्सेंट वोट मिले थे।
समाजवादी पार्टी को 0.65 पर्सेंट और लोक जनशक्ति पार्टी को 0.39 पर्सेंट वोट मिले। भले ही इन पार्टियों को मिले वोट प्रतिशत में कम रहे हों लेकिन कई सीटों पर इन पार्टियों ने जीत और हार का फैसला करवा दिया।
2008 का चुनाव और BSP का जलवा
2008 में भी दिल्ली की लड़ाई बीजेपी बनाम कांग्रेस की ही थी लेकिन उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज मायावती अपनी पार्टी के विस्तार में लगी हुई थीं। इस चुनाव के नतीजों ने जो दिखाया उसने हर किसी को हैरान कर दिया। 5 साल शासन कर चुकी कांग्रेस के खिलाफ माहौल बना रही बीजेपी को बड़ा झटका बसपा ने ही दिया। कांग्रेस का वोट प्रतिशत और सीटें कम हुईं लेकिन वह सरकार बनाने में कामयाब हुई। इस चुनाव में बीजेपी ने 69 सीटों पर चुनाव लड़कर 23 सीटें जीती और उसे 36.34 प्रतिशत वोट मिले। वहीं, कांग्रेस ने सभी 70 सीटों पर चुनाव लड़ा और 43 सीटें जीती। उसका वोट प्रतिशत पिछली बार की तुलना में लगभग 8 पर्सेंट कम होकर 40.31 प्रतिशत पहुंच गया।

इस चुनाव में बसपा ने सभी 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे और उसे दो सीटों पर जीत हासिल हुई। उसे 14.05 पर्सेंट वोट मिले। इस चुनाव में एनसीपी ने 16 सीटों पर चुनाव लड़ा, उसे 1.34 पर्सेंट वोट मिले। एलजेपी ने 41 सीटें लड़कर एक सीट पर जीत हासिल की और उसे 1.34 पर्सेंट वोट मिले। इसी तरह आरजेडी तो 0.64 पर्सेंट वोट मिले।
यानी 2003 और 2008 के चुनाव में बीएसपी, जेडीयू और एलजेपी जैसी पार्टियां कुछ सीटों पर मजबूत थीं और एकाध सीट जीतने का भी माद्दा रखती थीं।
2013 का चुनाव और AAP की एंट्री
2013 में AAP की एंट्री ने इन सभी क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खत्म सा कर दिया। पहले ही चुनाव में AAP ने सभी 70 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और उसे 28 सीटों पर जीत मिली। तब AAP को कुल 29.49 पर्सेंट वोट मिले। बीजेपी ने तब 68 सीटों पर चुनाव लड़ा, उसे 31 पर जीत मिली और उसका वोट प्रतिशत 33.07 प्रतिशत हो गया। कांग्रेस के वोट प्रतिशत में भारी गिरावट देखी गई। पिछले चुनाव में 40 पर्सेंट वोट पाने वाली कांग्रेस पार्टी 24.55 प्रतिशत वोटों पर आ गई और सिर्फ 8 सीटें जीत पाई। 2008 में 14 पर्सेंट वोट पाने वाली बसपा को भी झटका लगा। 69 सीटें लड़ने वाली बसपा इस बार 5.45 पर्सेंट वोटों पर सिमट गई।

जेडीयू ने कुल 27 सीटों पर चुनाव लड़ा था और एक सीट पर उसे जीत भी मिली थी। 2013 में उसका वोट प्रतिशत 0.87 प्रतिशत पर रह गया। शिरोमणि अकाली दल ने दो सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 1 सीट पर जीत भी मिली थी। उसका वोट प्रतिशत 0.91 प्रतिशत था। वहीं, आईएनएलडी ने भी दो ही सीट पर चुनाव लड़ा था और उसे 0.57 पर्सेंट वोट मिले। यह ऐसा आखिरी चुनाव था जिसमें किसी अन्य पार्टी को सीटें मिलीं। इसके बाद दिल्ली की राजनीति काफी हद तक बदल गई।
2015 का चुनाव और AAP की आंधी
पहले ही झटके में सीएम की कुर्सी तक पहुंच जाने वाले अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की राजनीति बदल दी थी। 2015 में विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो सिर्फ बीजेपी ऐसी बची जिसका वोट बैंक 30 पर्सेंट से ज्यादा था। 69 सीटों पर लड़ने वाली बीजेपी सिर्फ 3 सीटें जीत पाई और उसे 32.19 पर्सेंट वोट मिले। AAP की आंधी चली और उसे 67 सीटों पर जीत मिली और कुल 54.34 पर्सेंट वोट मिले। कांग्रेस को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली और उसका वोट पर्सेंट कम होकर 9.65 पर्सेंट पर आ गया।

कभी 14 पर्सेंट वोट तक पहुंचने वाली बसपा इस बार भी 70 सीटों पर चुनाव लड़ी लेकिन उसे सिर्फ 1.30 पर्सेंट वोट ही मिले। आईएनएलडी को 0.61 पर्सेंट, शिरोमणि अकाली दल को 0.50 पर्सेंट और जेडीयू को सिर्फ 0.02 पर्सेंट वोट मिले। इस चुनाव ने स्पष्ट कर दिया कि अब लड़ाई AAP और बीजेपी के बीच आ गई है। लगातार तीन बार दिल्ली की सत्ता पर राज करने वाली कांग्रेस न सिर्फ सत्ता से बाहर हुई बल्कि विधानसभा में भी उसका कोई प्रतिनिधि नहीं बचा।
2020 का चुनाव, AAP की हैट्रिक
2020 में विपक्षी बीजेपी ने अपना वोट प्रतिशत बढ़ाया लेकिन AAP को इसका नुकसान कम ही हुआ। BJP इस बार 8 सीटें जीती और वोट प्रतिशत बढ़कर 38.51 प्रतिशत हो गया। AAP को 62 सीटें मिली और वोट प्रतिशत में मामूली कमी आई और उसे कुल 53.57 पर्सेट वोट मिले। कांग्रेस सिर्फ 4.26 पर्सेंट वोट पर सिमट गई और एक बार फिर उसे एक भी सीट नहीं मिली। इस बार बसपा सिर्फ 0.71 पर्सेंट वोट ही पा सकी। 2 सीटें लड़ने वाली जेडीयू को सिर्फ 0.91 पर्सेंट, एलजेपी 5 सीटें लड़कर 0.35 पर्सेंट ही पा सकी।

2025 के चुनाव में भी BSP के अलावा कई अन्य दल अपनी किस्मत आजमाने जा रहे हैं। जेडीयू और एलजेपी (राम विलास) जैसे दल इस उम्मीद में हैं कि बीजेपी उनके लिए कुछ सीटें छोड़ देगी। वहीं, अपने अस्तित्व को जूझ रही शिरोमणि अकाली दल लगभग पस्त हो गई है। वामदलों ने जरूर कुछ सीटों पर उतरने का मन बनाया है लेकिन वे भी इतने मजबूत नहीं हैं कि दिल्ली में चुनावी लड़ाई को त्रिकोणीय या बहुकोणीय बना सकें।