महाराष्ट्र में 20 नवंबर यानी कि बुधवार को विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। चुनाव प्रचार बंद हो चुका है। इस दौरान सभी पार्टियों के नेताओं ने अलग-अलग मुद्दे उठाए। लेकिन इन सबके बीच जिस मुद्दे पर सबसे कम बात की गई वह है सोयबीन का मुद्दा। हालांकि, प्रधानमंत्री मोदी ने एक चुनावी भाषण के दौरान इस पर बात की, लेकिन पूरे चुनाव प्रचार के दौरान शायद जितना बड़ा चुनावी मुद्दा यह बनना चाहिए था, उतना बड़ा मुद्दा यह नहीं बन पाया।

 

खबरगांव ने इस बात की पड़ताल की और यह पता लगाने की कोशिश की कि यह कितना बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है और वोटिंग में यह कितना बड़ी भूमिका निभा सकता है।

क्या है मुद्दा

महाराष्ट्र में सोयाबीन काफी महत्त्वपूर्ण फसल है। राज्य में सोयाबीन की खेती लगभग 40 से 50 लाख हेक्टेयर भूमि पर की जाती है। यह फसल महाराष्ट्र में न सिर्फ आर्थिक बल्कि सामाजिक महत्त्व भी रखती है।

 

सोयाबीन मुख्यतः रेनफेड एरिया की रीढ़ की हड्डी मानी जाती है। रेनफेड एरिया उसे कहते हैं जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है, बल्कि कृषि के लिए किसान सिर्फ बारिश के पानी पर ही निर्भर होते हैं। इसलिए मराठवाड़ा और विदर्भ जैसे इलाकों में सोयाबीन का काफी खेती की जाती है। साथ ही अब कुछ सिंचाई वाले इलाकों में भी इसकी खेती शुरू हो चुकी है।

क्या है समस्या

महाराष्ट्र में इस साल सोयाबीन का पिछले साल की तुलना में अच्छा खासा उत्पादन हुआ है। महाराष्ट्र में लातूर सोयबीन की सबसे बड़ी मार्केट है। रिपोर्ट के मुताबिक इस बाजार में सोयाबीन 4000 से 4200 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बिक रहा है, जबकि महाराष्ट्र में सोयाबीन का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार ने 4892 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। बाज़ार में किसान इसलिए कम मूल्य पर बेचने को मजबूर हैं क्योंकि सरकार की तरफ से एमएसपी पर खरीदने की प्रक्रिया समय से शुरू नहीं हुई और जिस रफ्तार से प्रोक्योरमेंट किया जाना चाहिए था उस उस रफ्तार से इसे नहीं किया जा सका।

 

साथ ही सोयाबीन के उत्पादन की लागत बढ़ती ही जा रही है। पिछले साल प्रति एकड़ उत्पादन लागत 3000 से 3500 रुपये प्रति एकड़ थी जो अब बढ़कर 4500 से 5000 रुपये हो गई है। ऐसे में लागत के बढ़ने और उसे कम कीमत में बेचने के बाद किसानों को सोयाबीन से काफी कम आय हो पाती है।

इस साल ज्यादा आय की थी उम्मीद

पिछले साल महाराष्ट्र में सोयाबीन की उपज अच्छी नहीं हुई थी, जिसकी वजह से पिछले साल भी किसानों को संकट का सामना करना पड़ा था और उनकी आय ज्यादा नहीं हो पाई थी। इस साल किसान उम्मीद कर रहे थे कि उनकी उपज अच्छी हुई है तो पिछले साल की भी भरपाई हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्हें इस साल भी नुकसान उठाना पड़ रहा है।

इस साल क्यों कम रही सोयाबीन की कीमत

दरअसल, सोयाबीन की खेती से मुख्य आय इसके तेल और खली को बेच के होती है। साल 2021 में सोयाबीन ऑयल की रिटेल कीमत बहुत ज्यादा हो गई थी तो सरकार ने ड्यूटी फ्री इम्पोर्ट की अनुमति दे दी थी, ताकि कीमतों को कंट्रोल किया जा सके। लोकसभा चुनाव के बाद सरकार ने सोयाबीन ऑयल पर ड्यूटी को 21 फीसदी कर दिया. लेकिन इसकी वजह से भी सोयाबीन की कीमतों में इजाफा नहीं दिख रहा, क्योंकि देश में खुद ही पैदावार ज्यादा हो गई है।

 

इसके अलावा भारत सोयाबीन ऑयल का निर्यात मुख्यतः ईरान, बांग्लादेश और नेपाल को करता है। बांग्लादेश और ईरान में राजनीतिक अस्थिरता के कारण वहां निर्यात बाधित है। इसलिए डिमांड से कहीं ज्यादा सप्लाई बनी हुई है।

 

तीसरा भारत के अलावा ब्राज़ील सोयाबीन का काफी बड़ा उत्पादक है। इस साल ब्राज़ील में भी काफी अच्छा उत्पादन हुआ है। इसलिए दुनिया के दूसरे देशों में ब्राज़ील भी एक निर्यातक के तौर पर हमें टक्कर दे रहा है। हम एक ग्लोबल मार्केट का हिस्सा हैं तो उसका असर भी भारत पर दिखना ही था।

पीएम मोदी ने क्या है

महाराष्ट्र में बीजेपी और सत्तारूढ़ गठबंधन को इस बात की चिंता है कि कहीं सोयाबीन का मुद्दा उन्हें नुकसान न पहुंचा जाए. इसीलिए पीएम मोदी महाराष्ट्र में अपनी एक रैली के दौरान इसका जिक्र किया। उन्होंने कहा कि सरकार सोयाबीन किसानों को संकट से उबारने के लिए आर्थिक सहायता दे रही है। उन्होंने कहा, ‘सोयाबीन किसानों को संकट से उबारने के लिए 5 हजार रुपये अलग से दिए जा रहे हैं। महायुति की सरकार ने सोयाबीन का न्यूनतम समर्थन मूल्य 6 हजार रुपये प्रति क्विंटल करने का वायदा किया है।’ 

 

आगे उन्होने कहा कि समस्या का समाधान करने के साथ ही सरकार ने किसानों की आय बढ़ाने पर भी जोर दिया।

चुनाव पर कैसे पड़ेगा असर

इसका चुनावी असर इसी बात से पता चलता है कि जहां पीएम मोदी अपने भाषणों में इसका जिक्र करते हैं वहीं राहुल गांधी ने मौजूदा एमएसपी 4892 को बढ़ाकर 7000 रुपये कर देने को कहा।

 

विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र देखें तो मराठवाड़ा क्षेत्र में करीब 42 विधानसभा सीटें हैं और विदर्भ क्षेत्र में लगभग 62 सीटें हैं। विदर्भ क्षेत्र में करीब 12 जिले आते हैं जिनमें से 8 जिलों में सोयाबीन की काफी खेती ही जाती है। तो इन दोनों क्षेत्रों को मिलाकर 288 सीटों में लगभग 100 सीटें हो जाती हैं जिन पर इनका प्रभाव पड़ता है। ज़ाहिर है कि 288 के कुल आंकड़े में 100 सीटें किसी पार्टी की सरकार बनाने और बिगाड़ने के लिए काफी हैं।