तारीख 29 अक्टूबर 2019। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों के 5 दिन बाद। भाजपा और शिवसेना के प्रिपोल अलाइंस को बड़ा बहुमत मिला। दिवाली के 3 दिन बाद देवेन्द्र फडणवीस के आवास पर पत्रकारों के लिए एक बड़े जलसे का आयोजन किया गया था। यह कार्यक्रम पूरी तरह से फॉर्मल था। इसलिए सबके माइक और कैमरे बाहर ही रखवा दिए गए थे। मगर पत्रकारों में तरह-तरह के पकवानों की जगह खबर की भूख ज़्यादा थी। क्योंकि नतीजे आए 5 दिन बीत चुके थे, लेकिन मुख्यमंत्री कौन बनेगा यह साफ नहीं हो पा रहा था। 'इक्वल डिस्ट्रिब्यूशन ऑफ पोस्ट्स एंड रिस्पांसिबिलिटीज़' यानि 'पदों और ज़िम्मेदारियों का बराबर बंटवारा।' 

एक ऐसी लाइन थी जिसपर सारा पेंच फंस रहा था। शिवसेना ने यह राग छेड़ दिया था कि मुख्यमंत्री की कुर्सी ढाई-ढाई सालों के लिए बराबर-बराबर बंटेगी। फिर भी इस आयोजन को देखकर ऐसा लग रहा था कि भाजपा और शिवसेना के बीच बात बनती दिख रही है, और फडणवीस जल्द ही मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे।

जलसे में आखिरकार वो घड़ी आई। पत्रकारों ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर सवाल पूछ ही लिया। जवाब देते हुए फडणवीस ने कहा कि हमने कभी भी शिवसेना को ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री की कुर्सी शेयर करने का आश्वासन नहीं दिया था। लोकसभा चुनाव के बाद उनकी तरफ से यह प्रस्ताव ज़रूर आया था लेकिन मेरे सामने कभी इस बारे में चर्चा नहीं हुई थी। हो सकता है पार्टी हाइकमान और उद्धव ठाकरे के बीच हुई हो। आगे उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री भाजपा से ही होगा, और वे खुद होंगे जैसा कि चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री ने इसकी घोषणा की थी। 


'पद-जिम्मेदारियों पर फंसा पेच'
पत्रकारों की भूख अब मर चुकी थी। बाहर उनका पूरा सेटअप तैयार था। वे बाहर निकले और फिर टीवी पर खबर ब्रेक हुई। शिवसेना को समझ आ गया था कि अब दाल नहीं गलने वाली। अगले ही दिन संजय राउत ने सामना के दफ्तर में एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुलाई। उन्होंने देवेन्द्र फडणवीस का एक वीडियो दिखाया। वीडियो में फडणवीस कहते हैं, 'हमारे बीच कुछ मुद्दों को लेकर ज़रूर थोड़े मतभेद हैं, लेकिन हम दोनों पार्टियाँ हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की बात करती हैं। छोटे सहयोगियों की सीटों को छोड़कर विधानसभा में हम बराबर-बराबर सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। साथ ही हमारे बीच पद और ज़िम्मेदारियां भी बराबर-बराबर बंटेंगी।' वीडियो रोकते हुए संजय राउत ने कहा कि जब फडणवीस खुद कह रहे हैं कि पद और ज़िम्मेदारियां बराबर-बराबर बंटेंगी, तो यह बात मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी लागू होती है। फडणवीस अब अपनी बातों से पीछे हट रहे हैं। 

 
इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस से अब यह स्पष्ट हो चुका था, कि भाजपा और शिवसेना के गठबंधन की सरकार तो नहीं बनने जा रही। साथ ही शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस के समर्थन से उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने की बात आगे बढ़ चुकी थी। देवेन्द्र फडणवीस ने आखिरकार इस्तीफ़ा दिया और भाजपा-शिवसेना के ढाई दशक के रिश्ते का एक कड़वा अंत हुआ। मगर सवाल ये है कि क्या सिर्फ मुख्यमंत्री का पद बराबर-बराबर न बांटने की वजह से भाजपा और शिवसेना का गठबंधन टूटा? या इसके पीछे वजह कुछ और थी। इस वीडियो में बात होगी इन्हीं सवालों पर कि आखिर क्यों एक ही विचारधारा वाली ये दो पार्टियां एक दूसरे से अलग हो गईं? और मुख्यमंत्री की कुर्सी के अलावा पिछले दशकों की वो कौन कौन सी घटनाएं रहीं जिनकी वजह से इन दोनों दलों में इतनी बड़ी दीवार खड़ी हो गई जिसे अब पाट पाना मुश्किल है.


विचारधारा का गठबंधन कैसे टूटा?
शिवसेना और भाजपा का गठबंधन पूरी तरह से एक विचारधारा का गठबंधन था। बाल ठाकरे ने 1966 में शिवसेना की नींव रखी थी। इनके एजेंडे में मराठियों और हिन्दुत्व का मुद्दा सबसे प्रमुख था। 80-90 के दशक में जब राम मंदिर आंदोलन चरम पर था, तो भाजपा महाराष्ट्र में भी अपने लिए स्पेस तलाश रही थी। शिवसेना को भी एक ऐसे साथी की ज़रूरत थी, जिनके साथ मिलकर वो महाराष्ट्र की सत्ता हासिल कर सके। 1984 में पहली बार शिवसेना के दो नेता भाजपा के सिंबल पर लोकसभा चुनाव लड़े। इसमें एक बड़े चेहरे थे मनोहर जोशी, जो कि आगे चलकर शिवसेना ख़ेमे से पहले मुख्यमंत्री भी बने। 

 

मगर साल 1989 में पहली बार दोनों पार्टियों के बीच प्रॉपर गठबंधन बना। इसे महायुति नाम दिया गया। भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर एक उभरती हुई पार्टी थी, तो वहीं शिवसेना क्षेत्रीय स्तर पर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहती थी। इस गठबंधन को बनाने में प्रमोद महाजन की सबसे बड़ी भूमिका थी। बाल ठाकरे के साथ उनके व्यक्तिगत रिश्तों की वजह से ही यह गठबंधन बन पाया। 

बाल ठाकरे के लिए प्रमोद महाजन सबसे भरोसेमंद व्यक्ति थे। जब भी उन्हें भाजपा के किसी निर्णय से असंतोष होता था, तो वो प्रमोद महाजन से ही बात करते थे। प्रमोद महाजन की सलाह पर अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी जैसे शीर्ष नेता खुद बाल ठाकरे के घर मातोश्री पहुंचते थे। बाल ठाकरे यह चाहते थे कि उनकी पार्टी हिन्दुत्व के मुद्दे पर महाराष्ट्र से आगे भी अपना विस्तार करे। वो प्रमोद महाजन ही थे जिन्होंने उनको मनाए रखा। महाजन को पता था कि हिन्दुत्व के मुद्दे पर अगर शिवसेना ने अपना विस्तार शुरू कर दिया तो केन्द्र में भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। इसलिए उन्होंने बाल ठाकरे को हमेशा यह भरोसा दिलाए रखा कि महाराष्ट्र में बाल ठाकरे ही हमेशा बड़े भाई की भूमिका में होंगे। 

जीतेन्द्र दीक्षित अपनी किताब 'बॉम्बे आफ्टर अयोध्या' में लिखते हैं, कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 1998-2004 में जब भी बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र से बाहर जाकर जनसभा करने की इच्छा जताई, प्रमोद महाजन ने इंटेलिजेंस इनपुट का हवाला देते हुए बताया कि उनकी जान को खतरा है और उन्हें रूकने के लिए मनाया।

महाजन की इस दलील पर बाल ठाकरे अपना कार्यक्रम कैंसल कर देते थे। हालांकि, एक मुद्दे पर शिवसेना का स्टैंड बिल्कुल नॉन नेगोशिएबल होता था। वो था भारत में भारत और पाकिस्तान का मैच। 1998 में जब केन्द्र में अटल जी की सरकार थी तो फिरोजशाह कोटला में भारत और पाकिस्तान के बीच मैच खेला जाना था। तब शिवसेना ने कोटला की पिच खुदवा दी थी। इससे पहले भी 1991 में शिवसेना ने भारत पाकिस्तान मैच से पहले वानखेड़े की पिच खुदवा दी थी। तब केन्द्र और राज्य दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थी।
 

कैसे हुआ था गठबंधन?
वापस चलते हैं 1989, जब दोनों पार्टियों के बीच पहला गठबंधन बना। 1990 में जब पहली बार दोनों पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा। महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में से 183 सीटें शिवसेना ने अपने पास रखीं और 105 सीटें भाजपा को दीं । बाद में अन्य छोटे दलों के जुड़ने के बाद दोनों ने अपने-अपने कोटे से उन्हें सीटें दी। हालांकि पहले चुनाव में यह गठबंधन सिर्फ 94 सीटें ही जीत पाया। फिर से कांग्रेस की सरकार बनी और शरद पवार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। इस चुनाव में शिवसेना ने 52 और भाजपा ने 42 सीटें जीती। मगर भाजपा का स्ट्राइक रेट शिवसेना से बेहतर रहा था।

90 की शुरुआत में महाराष्ट्र साम्प्रदायिक हिंसा की आग में जल रहा था। 1992 के मुंबई बम ब्लास्ट और 1993 के दंगों ने महाराष्ट्र की पूरी राजनीति ही बदल दी। दंगे में लगभग 900 लोगों की मौत हुई, जिसमें दोनों समुदाय के लोग शामिल थे। हिन्दुत्व के एजेंडे को लेकर आगे बढ़ रहे महायुति के लिए यह हिंसा खाद-पानी साबित हुई। 1995 में जब अगला विधानसभा चुनाव हुआ तो महायुति 138 सीटें जीतकर बहुमत से सिर्फ 6 सीटें दूर रह गई। उस चुनाव में शिवसेना ने 73 और भाजपा ने 65 सीटों पर जीत दर्ज की। खैर बचे हुए 6 वीधायकों का जुगाड़ भी कर लिया गया।

भाजपा शिवसेना ने कांग्रेस के कुछ बागी विधायकों को तोड़कर पहली बार प्रदेश में सरकार बनाई। शिवसेना की तरफ से मनोहर जोशी इस गठबंधन के पहले मुख्यमंत्री बने जो अगले 4 साल तक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे फिर 1999 विधानसभा चुनाव से एक साल पहले बाल ठाकरे ने अपने सबसे वफादार नारायण राणे को मुख्यमंत्री बनाया। शायद यह बाल ठाकरे की एक बहुत बड़ी गलती थी। जिसके बारे में हम आगे भी बात करेंगे।
 
खैर 1999 विधानसभा चुनाव में भाजपा शिवसेना गठबंधन को हार का मुंह देखना पड़ा और कांग्रेस ने फिर से महाराष्ट्र की सत्ता में वापसी की. और अगले 15 सालों तक दोनों पार्टियाँ सत्ता सुख से दूर रहीं। 2014 लोकसभा चुनाव में पहली बार एनडीए की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी। महाराष्ट्र में भी इनका प्रदर्शन शानदार रहा। भाजपा ने 23 और शिवसेना ने 18 सीटों पर जीत दर्ज की। जीती गई सीटों के मामले में पहली बार भाजपा शिवसेना से ऊपर थी। केन्द्र में सरकार बनने के बाद शिवसेना को यह उम्मीद थी कि उन्हें कैबिनेट में बड़े मंत्रालय मिलेंगे। मगर उन्हें निराशा हाथ लगी।

बाल ठाकरे की मौत के बाद यह पहला लोकसभा चुनाव था। इसलिए उद्धव ठाकरे के सामने अब कई बड़ी चुनौतियां थी। इस लोकसभा चुनाव के चार महीने बाद महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की घोषणा हुई। उद्धव ठाकरे 160 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए अड़ गए। वहीं देवेन्द्र फडणवीस 130 सीटों की मांग पर अड़े रहे। उद्धव ने अन्य छोटे दलों को भी अपने कोटे से 18 सीटें देने की बात कहकर अपना अंतिम निर्णय सुना दिया। यह पहली बार था जब शिवसेना थोड़ी डरी हुई थी और भाजपा अब बड़े भाई की भूमिका में आना चाहती थी। आखिरकार सीट शेयरिंग पर बात नहीं बनी और पहली बार दोनों पार्टियों का दो दशक पुराना गठबंधन टूट गया। 

2014 का विधानसभा चुनाव भाजपा और शिवसेना ने अकेले ही लड़ा।लेकिन भाजपा ने अकेले लड़ते हुए भी शिवसेना से लगभग दोगुनी सीटें जीतीं। भाजपा ने 122 और शिवसेना ने सिर्फ 63 सीटों पर जीत दर्ज की। बहुमत से 22 सीटें दूर रही भाजपा को शरद पवार का समर्थन मिला। पवार ने बिना शर्त बाहर से समर्थन देते हुए भाजपा को सरकार बनाने में मदद की। पवार ने भाजपा को समर्थन देते हुए कहा था कि हमारे वैचारिक मतभेद अब भी हैं, लेकिन महाराष्ट्र के हित को देखते हुए हम उन्हें बाहर से समर्थन देकर सरकार बनाने में मदद कर रहे हैं।


भाजपा और NCP की ये दोस्ती शिवसेना के लिए एक बड़े खतरे की तरह थी और शिवसेना को इतने सालों बाद मिली सत्ता से दूर रहना भी रास नहीं आ रहा था। ऐसे में सरकार बनने के दो महीने बाद ही एकनाथ शिंदे ने लीडर ऑफ अपोज़िशन के पद से इस्तीफ़ा दिया और उद्धव भाजपा को अपना समर्थन देकर सरकार में शामिल हो गए। दोनों पार्टियां साथ तो आ गई थीं लेकिन अब दोनों में एक कोल्डवॉर शुरू हो चुकी थी. लेकिन ऐसा नहीं था कि ये   रिश्ते 2014 से खराब होने शुरू हुए थे इस दुश्मनी के बीज तो एक दशक पहले ही पड़ने शुरू हो गए थे। इसके लिए चलना होगा साल 2004 में।

उद्धव के कमान संभालते ही रिश्ते बिगड़ने लगे थे

भाजपा के साथ शिवसेना के रिश्ते उसी दिन से बिगड़ने शुरू हो गए, जिस दिन से उद्धव ठाकरे ने पार्टी की कमान संभाली थी। तभी प्रमोद महाजन भी लोकसभा चुनाव 2004 के लिए महाराष्ट्र के स्टेट इंचार्ज बनाए गए थे। प्रमोद महाजन ने 2006 में अपनी मौत से कुछ दिनों पहले सामना के पत्रकार को एक इंटरव्यू दिया था, जिसमें उन्होंने इस तकरार की बात की थी।

जीतेन्द्र दीक्षित 35 Days: How Politics in maharashtra changed forever in 2019  किताब में सामना के एक्ज़िक्यूटिव एडिटर रह चुके प्रेम शुक्ला बताते हैं कि एक बार वो प्रमोद महाजन का इंटरव्यू करने गए। प्रमोद महाजन ने पूछा कि आप यह इंटरव्यू कहाँ पब्लिश करेंगे? प्रेम शुक्ला ने कहा ज़ाहिर सी बात है, सामना में ही करूंगा। महाजन ने कहा कि उद्धव आपको ये इंटरव्यू कभी पब्लिश नहीं करने देंगे। आगे उन्होंने बताया कि 2004 लोकसभा चुनाव के बाद से ही उद्धव के साथ उनकी बातचीत बंद है। उद्धव उनका फोन तक नहीं उठाते। प्रमोद महाजन के बाद भाजपा की स्टेट लीडरशिप में आगे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हुआ जो बाल ठाकरे या उद्धव ठाकरे का इतना भरोसेमंद रहा हो। 

उद्धव गठबंधन में कमजोर रही है बीजेपी 

उद्धव ने गठबंधन में रहते हुए भी भाजपा शीर्ष नेतृत्व को हमेशा अपने रडार पर रखा। 2014 विधानसभा चुनाव के बाद वापस गठबंधन में शामिल होने के कुछ ही दिनों बाद उद्धव ठाकरे ने भाजपा की आलोचना शुरू कर दी थी।उद्धव ने महाराष्ट्र में UPA की हार के पीछे मोदी लहर से इनकार किया था। 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद उन्होंने कहा था कि मैं दिल्ली की जनता को बधाई देना चाहता हूं, कि उन्होंने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए विधानसभा चुनाव में वोट किया। दिल्ली की जनता ने दिखाया कि यह सुनामी किसी भी लहर से ज़्यादा बड़ी है। इसके तुरंत बाद ही भाजपा की तरफ से प्रतिक्रिया आई थी। भाजपा की मुंबई इकाई के अध्यक्ष आशीष शेलार ने कहा था कि “मैं उद्धव ठाकरे के इस बयान से काफ़ी आश्चर्यचकित हूं। अगर वो हमारे शीर्ष नेताओं को टारगेट करना चाहते हैं, तो सबसे पहले उन्हें स्टेट और सेंटर दोनों जगह सरकार से अलग होने की हिम्मत दिखानी चाहिए।

भाजपा शिवसेना की दोस्ती और दुश्मनी की कहानी आगे बढ़े इससे पहले शिवसेना के दो फाड़ होने की कहानी जाननी भी ज़रूरी है। और तब भी पार्टी के नेता उद्धव ठाकरे ही थे।

शिवसेना में बाला साहेब ठाकरे के बाद एक और बड़े नेता थे, राज ठाकरे। राज ठाकरे बाला साहेब ठाकरे के भतीजे थे। बिल्कुल बाला साहेब की तरह ही गरम मिज़ाज। राज ठाकरे की आक्रामकता को देखकर लगता था कि वही आगे चलकर बाला साहेब के सियासी वारिस होंगे। राज ठाकरे ने उद्धव से काफ़ी पहले ही सक्रिय राजनीति शुरू कर दी थी। वरिष्ठ पत्रकार जीतेन्द्र दीक्षित अपनी किताब 'सबसे बड़ी बगावत' में लिखते हैं कि राज ठाकरे जब पार्टी के लिए अहम जिम्मेदारियां संभालने लगे थे तबतक उद्धव सिर्फ जनसभाओं में आकर फोटो खिंचवाने में मशगूल रहते थे। 

राज ठाकरे को पार्टी के यूथ विंग्स की ज़िम्मेदारी दी गई थी।लेकिन एक मामले ने राज ठाकरे की सियासत को ऐसा ग्रहण लगाया जिसकी वजह से शिवसेना में राज ठाकरे बनाम उद्धव ठाकरे शुरू हो गया. ये मामला राज ठाकरे के जीवन का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ. ये मामला था 'रमेश किणी' की रहस्यमयी मौत का. इस मामले में राज ठाकरे का नाम जुड़ा जिसके चलते सीबीआई उनसे घंटों पूछताछ करती थी। हालांकि, राज ठाकरे को इसमें क्लीन चिट ज़रूर मिली लेकिन बाला साहेब और राज ठाकरे में इस मामले के बाद एक दरार पड़ चुकी थी जिसके चलते शिवसेना में 'उद्धव वर्सेज राज ठाकरे' शुरू हो गया। 

2003 में पार्टी के एक अधिवेशन में उद्धव ठाकरे को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष घोषित किया गया। इसका प्रस्ताव भी खुद राज ठाकरे को रखना पड़ा, क्योंकि तबतक पार्टी सुप्रीमो बाला साहेब ठाकरे ही थे। इस राजनीतिक घटना के बाद बाला साहेब पर पुत्र मोह में लिए गए फैसले का भी आरोप लगा। राज ठाकरे के रहते हुए पार्टी ने 2004 में विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ा। लेकिन राज ठाकरे के करीबियों को उद्धव ने टिकट देने में काफी कंजूसी की। इस बात से नाराज़ राज ठाकरे ने 2005 में अपने घर कृष्ण कुंज पर एक बैठक बुलाई और शिवसेना छोड़ने का ऐलान कर दिया। पार्टी छोड़ते हुए राज ठाकरे ने उद्धव पर हमला बोला लेकिन यह भी कहा कि बाला साहेब ठाकरे उनके लिए अब भी देवता समान हैं। 

साल 2006 की एक रैली में राज ठाकरे ने मनसे यानि कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की स्थापना की। इसमें उन्होंने जोर दिया कि मराठियों के मुद्दे को लेकर मनसे ही सबसे बेहतर विकल्प है, क्योंकि शिवसेना अब मराठियों की बात नहीं करती। पार्टी गठन के कुछ ही दिनों बाद महाराष्ट्र में कई जगहों पर मनसे कार्यकर्ताओं ने बिहार और यूपी के लोगों पर हमले किये। इसमें कुछ मौतें भी हुई और बड़ी संख्या में उत्तर भारत के लोगों को महाराष्ट्र से पलायन करना पड़ा। 

जीतेन्द्र दीक्षित अपनी किताब 'सबसे बड़ी बगावत' में लिखते हैं कि इन घटनाओं के बाद विलासराव देशमुख की अगुवाई वाली कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने मनसे के प्रति नरम रवैया अपनाया। विरोधी दलो को ये अच्छे से पता था कि कि अगर मनसे मजबूत हुई, तो शिवसेना के ही वोट काटेगी। 2009 के विधानसभा का नतीजा भी ऐसा ही हुआ। इस चुनाव में मनसे ने 13 सीटें जाती। लेकिन उनकी उम्मीदवारी के कारण बड़ी संख्या में शिवसेना के वोट कटे और उसे कई सीटों का भी नुकसान हुआ। इसके बाद से उद्धव और राज ठाकरे के रास्ते बिल्कुल अलग-अलग हो गए।

अब आते हैं 2019 विधानसभा के नतीजों पर… 

2014 के बाद से ही भाजपा शिवसेना के रिश्तों में कड़वाहट आ चुकी थी लेकिन फिर भी दोनों पार्टियों ने 2019 का विधानसभा चुनाव एक साथ लड़ने का फैसला किया. महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में से 102 सीटें जीतकर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी, तीन निर्दलिय उम्मीदवारों के समर्थन से ये संख्या 105 हो गई। उधर शिवसेना 56 सीटें जीतकर दूसरे, NCP 54 सीटों के साथ तीसरे और कांग्रेस 44 सीटें जीतकर चौथे स्थान पर रही। चूँकि भाजपा और शिवसेना के बीच प्रि-पोल अलाइंस था, तो यह माना जा रहा था कि प्रदेश में एक बार फिर से महायुति की सरकार बनेगी। इनके पुराने गठबंधन नियम के अनुसार जो पार्टी सबसे ज़्यादा सीटें जीतेगी, उसका मुख्यमंत्री बनेगा। मगर इस बार शिवसेना बिल्कुल भी मुख्यमंत्री की कुर्सी देने के मूड में नहीं थी। जिसका सबसे पहला हिंट NCP के प्रवक्ता नवाब मलिक ने दिया।

मुंबई के वरिष्ठ पत्रकार जीतेन्द्र दीक्षित अपनी किताब 35 Days: How Politics of Maharashtra Changed Forever में लिखते हैं, कि नवाब मलिक जीतने के बाद अपने समर्थकों के साथ अपने घर पर मौजूद थे। UPA की हार लगभग तय हो चुकी थी।  वो पत्रकारों को संबोधित कर रहे थे कि इस बीच उन्हें एक कॉल आता है। साइड में जाकर वो लगभग 5 मिनट किसी से बात करते हैं। लेकिन लौटकर वो एक ऐसी बात कह देते हैं, जिससे वहां मौजूद सभी लोग बिल्कुल सन्न रह जाते हैं। नवाब कहते हैं कि अगर शिवसेना चाहे तो वो कांग्रेस और NCP के साथ मिलकर सरकार बना सकती है। राजनीति संभावनाओं का खेल है। यहाँ सारे विकल्प खुले हैं।

यह बयान बहुत ही आश्चर्यजनक था क्योंकि UPA की दोनों पार्टियों की आइडियॉलजी शिवसेना के बिल्कुल विपरीत थी। शिवसेना भी भाजपा की तरह ही हिन्दुत्व के एजेंडा को लेकर चलने वाली पार्टी थी। वहीं कांग्रेस और NCP दोनों दल इस एजेंडा से इतर काम करते हैं। बीते दो दशकों में शिवसेना की सारी राजनीति ही शरद पवार के खिलाफ थी, जो अब किंगमेकर की भूमिका में थे। 

ऐसे शुरू हुआ पूरा खेल 
नवाब के इस बयान के बाद सारा खेल शुरू हो जाता है। लोगों को अबतक लग रहा था कि इस नतीजे के बाद देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री और पहली बार विधायक बने आदित्य ठाकरे उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। नवाब के बयान के बाद पत्रकारों ने उद्धव ठाकरे की भी प्रतिक्रिया जाननी चाही। मगर उद्धव ने कहा कि वो किसी जल्दबाजी में नहीं हैं। वो लालची नहीं हैं और सत्ता पाने के लिए नियम से परे जाकर कुछ भी नहीं करेंगे। मगर भविष्य के गर्भ में जो चीज़ें थीं, वो महाराष्ट्र की राजनीति को हमेशा के लिए बदल देने वाली थी। उद्धव को किंग बनाने की ज़िम्मेदारी अब भारतीय राजनीति के सबसे अनप्रेडिक्टेबल चाणक्य शरद पवार के हाथों में थी।


जैसा कि राजनीति विकल्पों का खेल है, सब अपने-अपने जुगाड़ में लग चुके थे। कांग्रेस का भी समर्थन लेकर उद्धव को मुख्यमंत्री बनाने की कमान शरद पवार के हाथों में थी। 2014 के बाद जांच एजेंसियों ने जिस तरह से पवार पर शिकंजा कसा था और उनकी पार्टी सिर्फ परिवार तक सीमित होती जा रही थी, शरद पवार के पास भाजपा से बदला लेने का ये सबसे बढ़िया मौका था। शरद पवार ने 2014 विधानसभा नतीजों के बाद अल्पमत वाली भाजपा को बिना शर्त अपना समर्थन देकर सरकार चलाने में मदद की थी। लेकिन बीते दो-चार सालों में जो उन्होंने झेला था, वो जख्म अभी भी गहरे थे। 

शिवसेना की तरफ से संजय राउत इस बातचीत को आगे बढ़ा रहे थे। शरद पवार से लगातार उनकी मुलाकात हो रही थी। लेकिन मीडिया के सवाल पर वो इसे एक शिष्टाचार युक्त मुलाकात ही बता रहे थे। दूसरी तरफ उद्धव और शिवसेना के बाकी नेता देवेन्द्र फडणवीस पर आक्रामक थे। फडणवीस समझ चुके थे कि मामला अब उनके हाथ से बाहर जा चुका है। आने वाले इस क्राइसिस को कंट्रोल करने के लिए उन्होंने दिल्ली की उड़ान भरी। 

दिल्ली में उन्होंने पार्टी हाइकमान से मुलाकात की। इस मीटिंग के बाद जब वो बाहर निकले, तो उससे साफ पता चल रहा था कि उन्हें इसका हल अब खुद ही ढूंढना पड़ेगा।असल में 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा में अपने प्रदर्शन के बाद भाजपा को लग रहा था कि वो अकेले भी महाराष्ट्र की सत्ता पर क़ाबिज़ हो सकती है. और पिछले 5 सालों में शिवसेना के साथ चले आ रहे विवाद के चलते भी 2019 के चुनाव आते आते भाजपा का शिवसेना से मोह भंग हो चुका था. क्योंकि 2017 के निकाय चुनाव में भी इन दोनों पार्टियों ने अलग लड़कर एक दूसरे को कड़ी टक्कर दी थी. इसलिए महाराष्ट्र की राजनीति पर नज़र रखने वालों के मुताबिक़ भाजपा ये चुनाव अकेले ही लड़ना चाहती थी. जीतेन्द्र दीक्षित भी अपनी किताब में यही बताते हैं कि भाजपा हाइकमान शिवसेना के साथ फिर से गठबंधन नहीं चाहती थी। मगर फडणवीस ने अपने ऊपर सारी ज़िम्मेदारी लेते हुए उन्हें शिवसेना के साथ गठबंधन के लिए मनाया। इसलिए जब स्थिति बिगड़ी तो उन्हें अब सबकुछ खुद ही संभालना था। 

इसी बीच समय बीता जा रहा था और फडणवीस को कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी। RSS भी इस मामले में नहीं पड़ना चाह रही थी। अब बिल्कुल अकेले पड़ गए फडणवीस ने राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया। इस्तीफ़े के बाद फडणवीस ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुलाई। उन्होंने कहा कि मैं किसी को भी झूठा नहीं कह रहा। लेकिन यह सच है कि मेरी मौजूदगी में ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री पद शेयर करने पर कोई चर्चा नहीं हुई थी। अगर हमारे बीच कोई गलतफहमी थी, तो हम बात करके उसे दूर कर सकते थे। लेकिन उन्होंने हमसे बातचीत ही बंद कर दी। मैंने उद्धव को कई बार कॉल किया, लेकिन उन्होंने उसका जवाब नहीं दिया। हमारी तरफ से बातचीत बंद नहीं हुई है, बल्कि उनके पास हमारे लिए समय नहीं है। मगर कांग्रेस और एनसीपी से बात करने के लिए उनके पास पूरा समय है। पहले ही दिन से शिवसेना उनके साथ जाना चाहती है, जिनके खिलाफ उन्होंने पूरा चुनाव लड़ा। 

 

जीतेंद्र दीक्षित की किताब के मुताबिक उद्धव ठाकरे अपने घर पर बैठकर यह प्रेस कॉन्फ़्रेंस देख रहे थे। फडणवीस की बात सुनकर वो खीज गए और उन्होंने काउंटर प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुलाया। जब वो शिवसेना भवन के हॉल में घुसे तो उनका चेहरा गुस्से से लाल था। उद्धव ने कहा कि उन्हें झूठा बोला गया है। जबकि उन्होंने कभी भी अपनी ज़िंदगी में झूठ नहीं बोला है।

उद्धव के ही शब्दों में, 'मेरे पिताजी के कमरे में ही अमित शाह ने मेरे इस प्रस्ताव पर सहमति जताई थी। किस मुंह से वे राम मंदिर की बात करते हैं और किस मुंह से वे राम की आरती करते हैं? यह झूठ हिन्दुत्व में स्वीकार्य नहीं है। मैं आपकी बातों पर भरोसा नहीं करता। अगर आप गठबंधन को बनाए रखना चाहते हैं, तो फिर भगवान के नाम की शपथ लें।'


उद्धव के इस बयान के बाद शीर्ष नेतृत्व को यह समझ आ गया था कि अब शिवसेना के साथ सरकार बना पाना संभव नहीं है। इसलिए जब राज्यपाल कोश्यारी ने सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दिया तो सिर्फ़ 24 घंटे के भीतर ही भाजपा ने जवाब दे दिया कि वे सरकार नहीं बना पाएंगे क्योंकि उनके पास उतना संख्याबल नहीं है। 


इसके बाद जो कुछ भी हुआ वो एक अलग कहानी है, लेकिन गठबंधन टूटने की यह सिर्फ अकेली वजह नहीं थी। तो अब जानते हैं, उन वजहों को…


राजनीतिक विश्लेषकों और पत्रकारों का मानना था कि अगर भाजपा हाईकमान चाहती तो स्थिति बदल भी सकती थी। फडणवीस को अकेले ही सब करना पड़ रहा था। शायद इसलिए भी कि उन्होंने ही शीर्ष नेतृत्व को शिवसेना के साथ गठबंधन के लिए राजी किया था। हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों जगह एक ही समय चुनाव हुए थे। दोनों ही जगह हंग असेम्बली थी। लेकिन अमित शाह हरियाणा जैसे छोटे राज्य में तो पूरा जोर लगा रहे थे, लेकिन महाराष्ट्र के मामले में सारा भार फडणवीस के कंधों पर ही था। महाराष्ट्र चुनाव की रणनीति बनाते समय शीर्ष नेतृत्व ने फडणवीस को खुली छूट दी थी। टिकट वितरण में भी उन्हें अपना निर्णय लेने की पूरी छूट थी। इसलिए इससे निपटने की ज़िम्मेदारी भी पूरी तरह उनके ही कंधों पर थी।

हालांकि कुछ जानकारों का मानना है कि इस गठबंधन के टूटने की सबसे बड़ी वजह ईगो क्लैश रही लेकिन ऐसा नहीं है।
 
इसकी एक सबसे बड़ी वजह थी शिवसेना का लगातार कमजोर होते जाना। भाजपा के साथ बराबर सीटों पर लड़कर भी शिवसेना महाराष्ट्र में पिछड़ रही थी। 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अकेले लड़कर भी शिवसेना से दोगुनी सीटें जीती थी। इसका सीधा मतलब था कि प्रदेश के अंदर हिन्दुत्व के नाम पर भाजपा की स्वीकार्यता ज़्यादा बड़ी थी। 2014 की विधानसभा के परिणाम से उत्साहित भाजपा ने BMC चुनाव में शिवसेना से ज़्यादा सीटों की डिमांड की। शिवसेना को यह मंजूर नहीं था। 

2017 के निकाय चुनाव में गठबंधन होने के बावजूद दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। BMC का चुनाव एकदम टक्कर का रहा था जिसमें शिवसेना ने भाजपा से सिर्फ दो ही सीटें ज्यादा जीती थी। इसी तरह प्रदेश के कई निकाय चुनावों में भी अलग लड़ते हुए भाजपा ने शिवसेना से बेहतर प्रदर्शन किया था। शिवसेना को यह आभास हो चला था कि अगर वो भाजपा के साथ ही आगे बढ़ते हैं, तो उनकी अपनी राजनीतिक जमीन कमजोर होती चली जाएगी। साथ ही यह भी समझ आ गया था कि भाजपा अगर इसी तरह मजबूत होती गई, तो शिवसेना काफी कमजोर हो जाएगी। जैसा कि भाजपा के सहयोगी पार्टियों के साथ होता रहा है। इसलिए अब शिवसेना की कोशिश एंटी-भाजपा पॉलिटिक्स में स्पेस बनाकर ना सिर्फ भाजपा को सत्ता से दूर रखना था, बल्कि खुद भी सत्ता में बने रहना था।
 
भाजपा और शिवसेना भले ही गठबंधन में रहे हों लेकिन ये पार्टियां 2014 से 2019 के बीच गठबंधन धर्म से कोसों दूर रहीं…

2014 से 2019 के बीच भले ही दोनों दल एक साथ रहे हों लेकिन शिवसेना भाजपा पर किसी न किसी तरह से हमलावर जरूर रही। शिवसेना के मुखपत्र सामना में हर रोज भाजपा की आलोचना होती रही। गठबंधन में रहते हुए भी वे एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े। विधानसभा और लोकसभा तक में वे आमने-सामने हो गए। इस गठबंधन को नुकसान पहुंचाने में एक और बड़े फैक्टर थे नारायण राणे। राणे एक समय पर बाल ठाकरे के सबसे वफादार थे। वे 90 के दशक में शिवसेना के सबसे मजबूत स्तंभ थे। 1995 में बाल ठाकरे ने उन्हें राजस्व मंत्री और 1999 में मुख्यमंत्री भी बनाया। उद्धव ठाकरे के कमान संभालने के बाद 2004 में शिवसेना-भाजपा गठबंधन को बुरी तरह हार मिली। जिसके बाद राणे शिवसेना से अलग हो गए और हार का सारा ठीकरा उद्धव ठाकरे के टिकट बँटवारे पर फोड़ दिया। 

शिवसेना छोड़ राणे कांग्रेस में चले गए। इस उम्मीद में कि कभी ना कभी वो मुख्यमंत्री बनाए जाएंगे। लेकिन राण के हाथ निराशा ही लगी। इसके बाद राणे ने अपनी नई पार्टी बनाई जिसका नाम रखा “महाराष्ट्र स्वाभिमान पक्ष” और उन्होंने एनडीए में शामिल होने की इच्छा जताई और वो भाजपा के समर्थन से राज्यसभा चले गए। 

 

2019 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले नारायण राणे के बेटे नीतीश राणे भी कांग्रेस छोड़ भाजपा में आ गए। अब उद्धव के राजनीतिक दुश्मन भाजपा के दोस्त बन चुके थे। भाजपा ने इस चुनाव में नीतीश राणे को कणकवली सीट से मैदान में उतारा। शिवसेना को भाजपा का ये फैसला रास नहीं आया। शिवसेना ने राणे की राह मुश्किल करने के लिए उनके खिलाफ अपनी पार्टी से भी एक उम्मीदवार उतार दिया। हालांकि नीतीश राणे यह चुनाव जीत पाने में सफल रहे।मगर गठबंधन में नारायण राणे के होने से शिवसेना की नाराजगी ने भी इस गठबंधन को खासा नुकसान पहुंचाया। 

 

2019 लोकसभा चुनाव से पहले हुए 2018 उपचुनाव में भी दोनों पार्टियां आमने-सामने आ गई थी। पालघर से भाजपा सांसद चिंतामणि वंगा की मौत के बाद हुए उपचुनाव में भाजपा ने राजेन्द्र गावित को टिकट दिया। शिवसेना ने भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ चिंतामणि वंगा के बेटे श्रीनिवास वंगा को ही मैदान में उतार दिया। वंगा चुनाव तो जीते लेकिन इससे भाजपा और शिवसेना के बीच तल्खियां काफ़ी बढ़ गईं। 

 

शिवसेना की भाजपा से नाराज़गी का एक कारण ये भी था कि भाजपा के साथ सत्ता में होने के बावजूद भी शिवसेना के मंत्री-विधायक सत्ता सुख से दूर थे….

 

सत्ता का नियंत्रण हमेशा नौकरशाहों के ही हाथ में होता है। यह भी सच है कि नौकरशाह हमेशा टॉप लीडर के वफादार होते हैं। फडणवीस भी यह बात अच्छी तरह समझते थे। इसलिए फडणवीस ने हर मंत्रालय में अपने पसंदीदा अधिकारियों की नियुक्ति कराई, जो सीधा उन्हें रिपोर्ट करते थे। फडणवीस ने एक पुलिस अधिकारी बृजेश सिंह को DGIPR यानि कि डायरेक्टर जनरल ऑफ इन्फ़ॉर्मेशन एंड पब्लिक रिलेशंस के पद पर नियुक्त किया था। जबकि इससे पहले इस पद किसी IAS अधिकारी को ही नियुक्त किया जाता था। किसी भी मंत्रालय से जारी प्रेसनोट या विज्ञापन को बृजेश सिंह के कार्यालय से पास होना अनिवार्य था। इससे शिवसेना के मंत्री काफी असहज रहते थे। अधिकारियों के जरिये फडणवीस का इन मंत्रालयों पर सीधा नियंत्रण था। एक कैबिनेट मीटिंग में शिवसेना के मंत्रियों ने हर विभाग के लिए बिल्कुल स्वतंत्र पीआरओ आबंटित करने की डिमांड की। कैबिनेट में इसे मंज़ूरी भी मिल गई मगर नियुक्ति नहीं की गई। मंत्रियों की तरफ से जिन नामों के सुझाव दिए गए थे, उसे खारिज कर दिया गया। इन घटनाओं से भी शिवसेना के अंदर भारी नाराज़गी थी। 

 

भाजपा शिवसेना के अलगाव का एक और बड़ा कारण था- BMC।

 

BMC इस देश की सबसे बड़ी सिविक बॉडी है। इतनी बड़ी कि इसका बजट देश के कई छोटे राज्यों से भी ज़्यादा बड़ा है। 30 हज़ार करोड़ के बजट वाली BMC, शिवसेना के लिए फंड का सबसे बड़ा सोर्स था। 2017 में भाजपा ने सीधी सी शर्त रख दी कि वो तभी साथ चुनाव लड़ेंगे, जब शिवसेना भाजपा को खुद से ज्यादा सीटें देगी। इससे पहले शिवसेना ने दो दशक तक BMC पर राज किया था। शिवसेना को मेयर और भाजपा को डिप्टी मेयर का पद मिलता था। 2014 के परिणाम ने शिवसेना को यह आभास करा दिया था कि भाजपा अगर ज़्यादा सीटों पर लड़ती है, तो उसके जीतने के चांसेज़ भी ज़्यादा होंगे। ऐसे में चुनाव के बाद भाजपा मेयर पद के लिए दावा ठोक सकती है। हालांकि, भाजपा ने इस चुनाव में शिवसेना से सिर्फ दो ही सीटें कम जीतीं, लेकिन शिवसेना को अपना समर्थन दे दिया। इसलिए भी कि शिवसेना के समर्थन से उन्हें राज्य में सरकार चलानी थी। इन सारी घटनाओं को शिवसेना अपने आने वाले वक्त के लिए खतरे के रूप में देख रही थी।

शिवसेना को एक और चीज़ से बहुत ज़्यादा नाराज़गी थी, और वो थी केन्द्र में सम्मानजनक प्रतिनिधित्व ना मिलना।

केन्द्र में भाजपा की सबसे बड़ी सहयोगी शिवसेना ही हुआ करती थी। महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीटों पर दोनों बराबर लड़ते थे और बड़ी संख्या में शिवसेना के भी उम्मीदवार दिल्ली जाते थे। मगर उन्हें मंत्रालय में सम्मानजनक प्रतिनिधित्व की शिकायत हमेशा रहती थी। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से ही शिवसेना को हेवी इंडस्ट्रीज़ मंत्रालय मिलता रहा है। 

जब नरेन्द्र मोदी की सरकार बनी तब भी शिवसेना को वही मंत्रालय मिला। अपनी किताब में जीतेन्द्र दीक्षित लिखते हैं, 'हेवी इंडस्ट्रीज़ मेक्स रिलेशंस हेवी।' एनडीए में दूसरी बड़ी पार्टी होने के नाते शिवसेना को बड़े मंत्री पद की उम्मीद रहती थी। कैबिनेट में संख्या बढ़ाने के साथ-साथ वो ये भी चाहते थे कि उनके कुछ नेता राज्यपाल भी बनाए जाएं। मगर हर बार उन्हें छोटे मंत्रालय से ही संतोष करना पड़ रहा था। 


घटनाओं की इस पूरी सीरीज़ में आरे फॉरेस्ट विवाद को भी एक कारण के रूप में देखा जा सकता है…

2019 विधानसभा चुनाव की घोषणा से ठीक दो सप्ताह पहले… घटना है मेट्रो प्रोजेक्ट के लिए मुंबई का फेफड़ा कहा जाने वाले आरे फॉरेस्ट में पेड़ों की कटाई। एक तरफ यह मेट्रो प्रोजेक्ट देवेन्द्र फडणवीस का ड्रीम प्रोजेक्ट था, तो दूसरी तरफ आदित्य ठाकरे पर्यावरणविदों की चिंता का समर्थन करते हुए पहली बार किसी मास मूवमेंट का हिस्सा बन रहे थे। जब पेड़ों की कटाई शुरू हुई तो बड़ी संख्या में छात्र, सिविल सोसाइटी और शिवसेना के लोग मौके पर प्रदर्शन के लिए जुट गए। पुलिस भी पूरी तरह मुस्तैद थी। घटनास्थल पर कई प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार भी किया गया। हालांकि, वो पेड़ों को कटने से नहीं बचा पाए। सुप्रीम कोर्ट ने जबतक इसपर अपना स्टे ऑर्डर दिया, तबतक 2200 पेड़ काटे जा चुके थे। चूंकि आदित्य ठाकरे पहली बार किसी मास मूवमेंट का हिस्सा बन रहे थे, तो यह घटना उनके लिए व्यक्तिगत हार की तरह थी। जाहिर सी बात है उद्धव ठाकरे और पार्टी के लिए भी यह वैसा ही रहा होगा। 

राजनीतिक जानकार यह कहते हैं कि महाराष्ट्र के अंदर भाजपा के पास कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था, जिसे उद्धव ठाकरे का विश्वास प्राप्त हो। इसलिए क्राइसिस की इस सिचुएशन में समझौते के रास्ते लगभग बंद मिले। पूर्व में यह जिम्मेदारी प्रमोद महाजन की हुआ करती थी। बाल ठाकरे से उनके रिश्ते राजनीति से भी ऊपर थे। इसलिए भाजपा और शिवसेना के बीच जब भी कोई तनातनी हुई, प्रमोद महाजन इस गठबंधन के सेवियर साबित हुए। गठबंधन में ऐसे किसी मध्यस्थ के ना होने की वजह से ऐसी घटनाएं बार-बार हुईं, जिससे दोनों पार्टियों के बीच की दीवार बढ़ती ही चली गई। फिर एक ऐसा वक्त आया जब दोनों का एक साथ रहना बिल्कुल भी मुमकिन नहीं रहा। 


अब लौटते हैं इस कहानी के सबसे बड़े ड्रामे पर-  2019 का मुख्यमंत्री कौन बनेगा..

भाजपा शिवसेना के अलग होने के बाद ये बिल्कुल साफ हो गया था कि कांग्रेस और NCP के समर्थन से अब उद्धव ही मुख्यमंत्री बनेंगे। मगर इस बातचीत को फाइनल करने के लिए तीनों पार्टियों को थोड़ा और वक्त चाहिए था। ऐसे में शरद पवार के नेतृत्व में तीनों पार्टियों के प्रतिनिधि राज्यपाल कोश्यारी से मिले। शरद पवार ने राज्यपाल को इस बात के लिए आश्वस्त किया कि शिवसेना, NCP और कांग्रेस थोड़े वक्त बाद सरकार बनाने का दावा पेश करेंगे। कोश्यारी ने इसके बाद 22 नवंबर 2019 को प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। 

मगर इसके बाद जो घटित होने वाला था, वो भारतीय राजनीति के इतिहास का शायद सबसे बड़ा ड्रामा होने वाला था। 22 नवंबर की रात तक NCP, कांग्रेस और शिवसेना के बीच सभी चीज़ों पर सहमति बन गई। 23 नवंबर की सुबह हर अखबार की लीडिंग खबर उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने पर थी। 

'Udhhav Thackeray set to become Chief Minister: Indian Express '

'Uddhav consensus CM for 5 years : The Times of India'

मगर टीवी कुछ और ही कह रहा था। अखबार में छपा था कि उद्धव मुख्यमंत्री बनेंगे और टीवी दिखा रहा था कि सुबह 7 बजे ही देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। अजीत पवार ने देर रात फडणवीस से मुलाक़ात कर उन्हें 54 NCP विधायकों का समर्थन पत्र सौंपा, जिसपर उन सभी विधायकों के सिग्नेचर भी थे। देर रात से सुबह तक राष्ट्रपति शासन भी हट गया और शपथग्रहण भी हो गया। देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री और अजीत पवार उपमुख्यमंत्री बने। इस पूरी घटना ने राज्यपाल के दायित्व पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया। भाजपा इससे पहले कह चुकी थी कि वे सरकार नहीं बनाएंगे। वहीं शरद पवार ने राज्यपाल से मिलकर जल्द ही सरकार बनाने की बात कही। लेकिन एक रात में ही बिना किसी को जानकारी दिए राज्यपाल ने देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। 

तीनों पार्टियाँ इसपर मुखर रहीं और मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा। जहां सुनवाइयों के दौरान पता चला कि अजीत पवार को 54 विधायकों का समर्थन हासिल नहीं है, क्योंकि 50 विधायक तब शरद पवार के ही साथ थे। अजीत पवार पर यह भी आरोप लगे कि उन सभी विधायकों के सिग्नेचर किसी पार्टी मीटिंग के दौरान लिए गए थे, जिसका इस्तेमाल उन्होंने फडणवीस को समर्थन देने के लिए किया।  

सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही में यह तय हो गया था कि भाजपा के लिए अब फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित कर पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने ऑर्डर दिया कि प्रोटेम स्पीकर 27 नवंबर शाम 5 बजे तक फ्लोर टेस्ट करा लें, जिससे कि पता चले कि फडणवीस के पास बहुमत है या नहीं। देवेंद्र फडणवीस के लिए अब सबसे बड़ी दुविधा ये थी कि उन्हें फ्लोर टेस्ट में शामिल होना है या नहीं, क्योंकि अगर भाजपा बहुमत साबित नहीं कर पाती तो यह भाजपा के लिए शर्मिंदगी की बात होती। अजीत पवार ने यह कहते हुए कि उनकी उम्मीदों के मुताबिक चीज़ें नहीं हो रही है, इस्तीफ़ा दे दिया। अजीत पवार के इस्तीफ़े से यह भी स्पष्ट हो गया कि अब फडणवीस के पास कोई रास्ता नहीं बचा है जिसके बाद फडणवीस ने भी मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया। 

इस खबर के साथ ही शिवसेना, NCP और कांग्रेस के विधायकों में ख़ुशी की लहर थी। राज्यपाल कोश्यारी ने 28 नवंबर शाम को 6 बजकर 40 मिनट पर उद्धव ठाकरे का शपथग्रहण समारोह रखा। साथ ही निर्देश दिया कि उन्हें 7 दिनों के अंदर विधानसभा में बहुमत साबित करना होगा। चूंकि उद्धव ठाकरे राज्य के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे, तो उन्हें 6 महीने के अंदर विधानसभा या विधान परिषद के सदस्य के रूप में चयनित होना अनिवार्य था। 

28 नवंबर को 70 हज़ार लोगों की क्षमता वाला मुंबई का शिवाजी पार्क खचाखच भरा हुआ था। बड़ी संख्या में लोग बाहर भी थे। उद्धव ठाकरे ने शिवाजी की मूर्ति के पैर छुए और उसके बाद संविधान की शपथ ली। उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनता देखना भी महाराष्ट्र के लोगों के लिए एक बड़ा आश्चर्य था। क्योंकि उद्धव ठाकरे के पिता बाला साहेब ठाकरे ने कहा था कि वे ना तो कभी चुनाव लड़ेंगे और ना ही कभी मुख्यमंत्री बनेंगे। उद्धव भी अबतक अपने पिता के रास्ते पर ही चल रहे थे। महाराष्ट्र की राजनीति में अभी बहुत कुछ घटना बाकी था। कैसे शिवसेना टूटी, फिर कैसे उद्धव की कुर्सी गई, क्यों चुनाव आयोग ने उद्धव ठाकरे की शिवसेना को असली शिवसेना मानने से भी इनकार कर दिया…इसे जनेंगे किस्सा के अगले पार्ट में..।