सान्या मल्होत्रा की फिल्म 'मिसेज' पर बहस छिड़ रही है। एक धड़े का कहना है कि यह फिल्म हर घरेलू महिला की कहानी है, जिसे परिवार के लिए अपनी महत्वकांक्षाओं की बलि चढ़ानी पड़ती है। वह जॉब नहीं कर सकती, उसकी भूमिका सिर्फ किचन तक सीमित है। दूसरे धड़े का कहना है कि बेवजह घरेलू महिलाओं की स्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है।
सान्या मल्होत्रा पूरी फिल्म में किचन में काम करते नजर आ रही हैं। उनके किरदार का नाम ऋचा है। ऋचा डांसर बनना चाहती है लेकिन उसे किचन में ही रहना पड़ता है। उसे बिरयानी बनाने तक पर नसीहत मिलती है। ज्यादातर सीन किचन में फिल्माए गए हैं। वह घरवालों के लिए अलग-अलग तरह के व्यंजन बनाती हैं, परोसती हैं लेकिन उन्हें, उनके काम का ही श्रेय नहीं मिलता। लोग नौकरानी जैसा सलूक उनके साथ करती हैं।
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'किचन में जूझती महिला की कहानी है मिसेज'
एक सीन में वह अपने पति के पिता से कहती हैं कि उन्हें जॉब करनी है। जवाब में वह कहते हैं कि लेकिन बात तो जॉब न करने की हुई थी न। फिल्म एक घरेलू महिला के रोजमर्रा संघर्षों को दिखाती है कैसे शादी के बाद उसकी जिंदगी सिर्फ किचन के इर्दगिर्द ही सिमट गई। इस फिल्म के बहाने पितृवाद और महिलावाद के बीच जंग छिड़ गई है।
क्या पुरुषविरोधी है ये फिल्म?
महिला अधिकारों की बात करना, पुरुषों का विरोध नहीं है। फिल्म मिसेज में सान्या ऋचा के किरदार में हैं। उनके पति का नाम दिवाकर है जो पेशे से स्त्री रोग विशेषज्ञ है। ऋचा की शादी होती है, उसे किचन तक सिमटा दिया जाता है। उसका परिवार पितृसत्ता में भरोसा रखता है और ऋचा को घर की चारदीवारी के भीतर ही रहना पड़ता है।

'होम मेकर से नौकर जैसा सलूक क्यों'
ऋचा की भूमिका डोमेस्टिक हेल्प जैसी है। यह फिल्म द ग्रेट इंडियन किचन से मिलती जुलती है। ऋचा धीरे-धीरे इस भूमिका से ऊब जाती है, वह हाव-भाव से बताती है कि उसे यह सब अछ्छा नहीं लग रहा है। ऋचा मेहतन से खाना बनाती है, जब वह फीडबैक लेना चाहती है तो उसकी बात टाल दी जाती है, जो उसे खराब लगता है। एक सीन में ऋचा को मेहमानों के सामने फटकारा जाता है, जिसके बाद वह पति को छोड़ने के लिए तैयार हो जाती है।
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फिल्म से नाराज क्यों है पुरुष समाज?
सान्या मल्होत्रा की फिल्म 'मिसेज' की आलोचना 'सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन' ने भी की है। उनका कहना है कि घर में काम करने वाली महिलाओं की आपपबीती बढ़ा-चढ़ाकर दिखाई गई है। यह फेमिनिज्म का प्रचार है। रसोई के काम इतने तनावपूर्ण नहीं होते। सब मिल-जुलकर काम करते हैं। सोशल मीडिया पर कई लोगों ने अपनी राय दी है। लोगों का कहना है कि मिसेज फिल्म में महिलाओं की स्थिति को बेवजह दयनीय दिखाया गया है। ऐसा अब लोग नहीं करते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह सिर्फ 'रिश्तों' को बदनाम करने के लिए बनाया गया है। कुछ लोगों का कहना है कि ऐसी ही फिल्में घर तोड़ती हैं।
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फिल्म के समर्थन में क्या कह रहे लोग?
दिल्ली के राउज एवेन्यू और तीस हजारी कोर्ट में पारिवारिक मामलों के विशेषज्ञ एडवोकेट शुभम गुप्ता बताते हैं, 'ऐसी फिल्में महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करती हैं। उनके सोच के दायरे को बढ़ाती हैं। लंबे अरसे से सब कुछ बर्दाश्त करते-करते वे उत्पीड़न की अभ्यस्त हो जाती हैं, ऐसी फिल्में आंख खोलती हैं और लोगों को एहसास कराती हैं कि उनके साथ क्या गलत हो रहा है। उन्हें मुखर होने की जरूरत है, ऐसी फिल्में समाज के लिए जरूरी हैं। घर संभालने के नाम पर उनके साथ शोषण नहीं होना चाहिए।'
दीवान लॉ कॉलेज में सोशल लॉ पढ़ाने वाले असिस्टेंट प्रोफेसर निखिल गुप्ता बताते हैं, 'महिलाओं को दशकों तक ऐसी परिवरिश मिली है कि परिवार चलाने की जिम्मेदारी उन्हीं की है। अगर शादी टूट गई तो क्या होगा। कैसे जिंदगी गुजरेगा। अरेंज मैरिज में ऐसी स्थितियां बन जाती हैं। काम करने के लिए भी पति के परिवार की इजाजत लेनी होती है। यह सब इस जमाने में बेहद गैरजरूरी लगता है। परिवार तो दोनों को मिलकर चलाना चाहिए।'

महिलाएं क्या सोचती हैं मिसेज पर?
मिसेज पर खबरगांव ने कई महिलाओं से बात की। ज्यादातर महिलाओं ने माना कि वह किचन से बाहर अपनी जिंदगी देखना चाहती हैं। वे सिर्फ खाना नहीं बनाना चाहतीं, बच्चे नहीं पालना चाहतीं। इससे इतर भी उनकी महत्वाकांक्षाएं हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए उन्हें किसी की मंजूरी की जरूरत पड़ती है। खुद से कोई फैसला लें तो पति या पति का परिवार नाराज हो जाता है। उन्हीं पर रिश्तों को निभाने का पूरा बोझ है। कई महिलाओं ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि हां उनकी स्थिति घरों में नौकर जैसी ही है। पार्टनर का मतलब नौकर तो नहीं होता।
लीक से हटकर होती हैं सान्या की फिल्में
सान्या की एक फिल्म थी 'पगलैट।' साल 2021 में इस फिल्म की कहानी सान्या के इर्दगिर्द घूमती है। फिल्म में सान्या 'संध्या' की भूमिका में हैं। संध्या के पति की मौत हो जाती है, 13 दिनों का मौत के बाद कर्मकांड चलता है, 13वें दिन एक नोट छोड़कर संध्या चलती जाती है। घरवाले उसकी शादी किसी दूसरे से कराने की फिराक में थे। यह फिल्म भी महिलावादी कही जा सकती है।