दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) का स्तर 500 तक पहुंच गया है। इसे अति गंभीर श्रेणी में माना जाता है। दिल्ली की हवा, स्वास्थ्य पर अब प्रतिकूल असर डाल सकती है। बढ़ते प्रदूषण के मद्देनजर, दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तत्काल हस्तक्षेप करने की मांग की है। उनका कहना है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय, कृत्रिम बारिश कराने की मंजूरी दे।
गोपाल राय का कहना है कि दिल्ली, स्वास्थ्य इमरजेंसी से जूझ रही है। स्मॉग के असर को कम करने के लिए कृत्रिम बारिश की अब जरूरत है। उनका कहना है कि वे कई बार पर्यावरण मंत्रालय को चिट्ठी लिख चुके हैं लेकिन पर्यावरण मंत्रालय की ओर से बैठक नहीं बुलाई जा रही है। वे कृत्रिम बारिश को दिल्ली की हवा साफ करने के लिए जरूरी बता रहे हैं। अब सवाल ये उठता है कि कृत्रिम बारिश है क्या, कैसे बारिश कराई जाती है, इसका पर्यावरण पर असर क्या होता है। आइए विस्तार से जानते हैं।
बारिश कहां होती है?
सामान्य बारिश वायुमंडल की सबसे निचली परत में होती है। इस परत को क्षोभमंडल कहते हैं। यह वायुमंडल की सबसे खास परत मानी जाती है। इसकी ऊंचाई करीब 13 किलोमीटर तक होती है। भौगोलिक घटनाएं इसी क्षेत्र में होती हैं। क्षोभमंडल से ही नीचे की परतों में क्लाउड सीडिंग की जाती है।
कैसे होती है कृत्रिम बारिश?
कृत्रिम बारिश के लिए आसमान में बादलों का होना जरूरी है। इन्हीं बादलों में कुछ यौगिकों का छिड़काव किया जाता है, जिसके बाद हुई रासायनिक क्रियाओं के चलते बारिश होती है। किसी एयर क्राफ्ट के जरिए बादलों में सिल्वर आयोडाइड, पोटैशियम आयोडाइड, ठोस कार्बन डाइऑक्साइड, तरल प्रोपेन जैसे यौगिकों को छोड़ दिया जाता है। ये यौगिक, बादलों के साथ मिलकर रासायनिक क्रिया करने लगते हैं और फिर बारिश होने लगती है।
कैसे क्लाउड सीडिंग से बारिश हो जाती है?
बादलों में फेंके गए इन यौगिकों की वजह से पानी की बूंदें जमने लगती हैं। बर्फ के टुकड़े दूसरे टुकड़ों से चिपकने लगते हैं। ये छोटे-छोटे टुकड़ों में बदलते हैं, तापमान में अंतर आने की वजह से पिघलने लगते हैं और बारिश होने लगती है। कृत्रिम बारिश कराने से पहले वैज्ञानिक, बादलों की प्रकृति का अध्ययन करते हैं। बादलों की धरती से दूरी, उनमें मौजूद जलकणों की मात्रा को ध्यान में रखकर ही बारिश कराई जा सकती है। अमेरिका जैसे उन्नत देश ड्रोन के इस्तेमाल से बारिश करा लेते हैं। संयुक्त अरब अमीरात भी अपवाद नहीं है।

कृत्रिम बारिश का टर्म कहां से आया है?
कृत्रिम बारिश के जनक विंसेट जे शेफर कहे जाते हैं। उन्होंने क्लाउड सीडिंग का आविष्कार किया था। क्लाउड सीडिंग की शुरुआत 1940 के दशक में हुई थी। अमेरिका ने क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल 1950 से 1960 के दशक में करने लगा था। बारिश की कमी से जूझ रहे देशों में यह तकनीक वरदान हो सकती है। पर्यावरणविद् कृत्रिम बारिश को ठीक नहीं मानते हैं। यूरोप और अमेरिकी देशों में क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल कई बार हुआ है। भारत के लिए यह नया प्रयोग है।
वैश्विक संस्थाओं को ऐतराज क्यों?
वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन ने बढ़ते कृत्रिम बारिश के चलन को लेकर साल 2023 में एक चेतावनी दी थी। वैश्विक संस्था ने कहा था कि इसके बारे में कम ज्ञान, बड़ी मुसीबतों को दावत दे सकता है। स्थानीय स्तर पर मौसम संबंधी बदलाव इसकी वजह से हो सकते हैं। खेती पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। जिन रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल इस बारिश में होता है, उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, पहले ही जहरीला बता चुका है। इनका स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
इस तकनीक के बढ़ते उपयोग के कारण विश्व मौसम विज्ञान संगठन के भीतर मौसम संशोधन पर एक टीम का गठन हुआ, जिसने 2023 की रिपोर्ट में इस तकनीक के प्रभावों के बारे में जानकारी की कमी के बारे में चेतावनी दी। अन्य चिंताओं में स्थानीय स्तर पर मौजूदा मौसम पैटर्न में बदलाव शामिल है, जिससे कृषि क्षेत्रों में ओलावृष्टि जैसी अवांछित स्थितियाँ पैदा हो सकती हैं। WMO के विशेषज्ञ यह भी चेतावनी देते हैं कि सिल्वर आयोडाइड जैसे रसायन जहरीले होते हैं और स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभावों के लिए उनके उपयोग की निगरानी की जानी चाहिए।
क्या कृत्रिम बारिश से थम जाएगा प्रदूषण?
सामान्य बारिश से वायुमंडल साफ होता है। हमारे आस-पास मौजूद सूक्ष्म प्रदूषण, धूलकण नीचे बैठ जाते हैं और एयर क्वालिटी इंडेक्स में प्रत्याशित सुधार नजर आने लगता है। क्षोभमंडल से लेकर धरती की सतह तक, जितने हवा में मौजूद प्रदूषक होते हैं, थोड़ी देर के लिए ही सही, वे साफ हो जाते हैं। दिल्ली सरकार के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय, इसी आधार पर कृत्रिम बारिश कराने की मांग कर रहे हैं।
भारत का कृत्रिम बारिश पर देसी मॉडल क्या है?
IIT कानपुर दिल्ली की वायु प्रदूषण को कम करने के लिए अस्थाई समाधान के तौर पर कृत्रिम बारिश पर रिसर्च कर रहा है। साल 2018 से ही यहां क्लाउड सीडिंग पर शोध चल रहा है। जून 2023 में संस्था ने इसे लेकर एक प्रयोग भी किया था। यह प्रोजेक्ट DGCA की मंजूरी के साथ ही आगा बढ़ सकता है। क्लाउड सीडिंग के लिए जरूरी उपकरणों से लैस विमान ही कृत्रिम बारिश कराने में सक्षम हो सकेंगे। इस प्रक्रिया के तहत ही बारिशों के संघनन को तेज किया जाएगा, जिससे बारिश हो सके।
कितना खर्च आएगा?
IIT कानपुर के मुताबिक इस प्रोजेक्ट पर प्रति वर्ग किलोमीटर करीब 1 लाख रुपये लगेंगे। कृत्रिम बारिश कराने पर करोड़ों रुपये खर्च होंगे। कृत्रिम बारिश पर केंद्र सरकार की सोच क्या है, इसके बारे में अभी तक किसी आधिकारिक व्यक्ति ने इस पर कुछ नहीं कहा है।