कुरुक्षेत्र की कहानी पढ़ी है? महाभारत के जंग के बाद हर कुरुक्षेत्र में लाशें पड़ी थीं। हिंसक जानवर इंसानों और घोड़े-हाथियों की लाशों को नोच रहे थे। कुत्तों और सियारों की टोली मांस खा रही थी, आसमान में इतने गिद्ध-बाज थे कि जिनसे आसमान काला पड़ गया था। दिल्ली में ऐसा मंजर तो नहीं है लेकिन इससे मिलता-जुलता नजारा दिख सकता है। साफ-सुथरी जगहों से आने वाले लोगों के लिए यह डरावना है लेकिन लेकिन दिल्ली के लिए यह भयावह मंजर नहीं है, वे ऐसे संकेतों के अभ्यस्त हो गए हैं।
अगर आप दिल्ली से मेरठ जाने वाले दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे पर जा रहे हैं और आसमान में ऐसा नजारा दिख रहा हो तो हैरान नहीं होना है। आप टाइम मशीन के जरिए युगों पहले नहीं पहुंचे हैं। न ही ऐसा कोई बीभत्स जंग का मंजर नजर आने वाला है। आप राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हैं और इलाका 'गाजीपुर' है। गिद्ध, कौवे, बगुलों और कुत्तों का झुंड इस लिए मंडरा रहा है क्योंकि यहां 'कचरे का पहाड़' है, मछली और मुर्गा मंडली है।
'कूड़े का हिमालय'
एक जमाने में दिल्ली की पहचान अरावली थी, जिसका इतिहास 35 करोड़ साल पुराना है। अब अरावली नीचे धंसती गई है और कूड़े के पहाड़, 'हिमालय' हो रहे हैं। 80 के दशक में 3 नए पहाड़ दिल्ली को मिले। गाजीपुर, भलस्वा और ओखला में। गाजीपुर लैंडफिल साइट 1984 में बनी, भलस्वा 1994 में और ओखला 1996 में।
दिल्ली के नए पहाड़ क्वार्ट्ज़ाइट चट्टानों से नहीं तैयार हुए हैं, इन्हें कचरे से तैयार किया गया है। इसे तैयार करने में दिल्ली के 1.50 करोड़ जनता ने जमकर योगदान दिया है। कभी सरकारी खामियां, कभी राजनीति तो कभी परिस्थितियां, इन पहाड़ों को और ऊंचा करती चली गईं। इन'कचरे के पहाड़' तले लोग कैसे रहते हैं, किन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, उनकी पीड़ाएं क्या हैं, दंश क्या है और यहां के लोग चाहते क्या हैं, आइए इसे जानने की कोशिश करते हैं।
 
कैसे तैयार हुआ गाजीपुर का 'नरक लोक'
पूर्वी दिल्ली में एक जगह है गाजीपुर। साल 1984 में यहां एक लैंडफिल साइट बनाई गई। 70 एकड़ से ज्यादा इलाके में फैला कचरे का यह पहाड़ करीब 65 मीटर ऊंचा है। यहां एक तरफ कचरे का पहाड़ है, दूसरी तरफ मांस मंडी है। गाजीपुर मछली और मुर्गी मंडी। तीनों जगहें ऐसी हैं, जहां से भीषण बदबू आता है।
भारत संविधान प्रधान देश है। यहां जनता को संविधान ने कुछ अधिकार दिए हैं, जिन्हें छीना नहीं जा सकता है। आप संवैधानिक भाषा में इन अधिकारों को मौलिक अधिकार भी कह सकते हैं। इन्हीं मौलिक अधिकारों के अंतर्गत एक अधिकार, 'साफ पर्यावरण' का भी है। क्या ऐसा हो पाता है? जवाब देना बेहद मुश्किल है।
 
क्या है गाजीपुर का दर्द?
गाजीपुर लैंडफिल साइट के गेट नंबर 2 पर दो गार्ड मिले। पहले तो बातचीत से उन्होंने अनाकानी की, बार-बार कहते रहे कि मेरा नाम मत छापिएगा वरना नौकरी चली जाएगी। किसी तरह राजी हुए तो उन्होंने अपना दर्द बताया। रमेश सिंह बिहार से हैं। वह बताते हैं, 'भइया यहां क्यों आएं हैं? तीन-तीन नरक हैं। एक तरफ मछली-मुर्गा मंडी, दूसरी तरफ नाला और तीसरी तरफ दिल्ली का कचरा। एक तो हमारी नौकरी ही कूड़े में है। आप यहां आधा घंटा पहले आए और हांफने लगे। मुंह में मास्क लगाएं हैं, उल्टी आ रही है। हम तो यहां 12 घंटे रहते हैं, हमारा क्या हाल होगा।'
MCD के गेट नंबर 2 के पास बजबजाती नालियां हैं। नालियों से बदबू आती है। मुर्गा और मछली मंडी की इतनी तेज बदबू आती है कि कई लोग वहां उल्टी करते देखे जाते हैं। बाहरी लोगों के लिए यहां 10 मिनट भी रहना मुश्किल होता है। यहां जो लोग काम कर रहे हैं, वे लोग इसे सामान्य मानते हैं।
लैंडफिल साइट पर ही तैनात दूसरे गार्ड मोहन शर्मा बताते हैं, '12 घंटे की ड्यूटी रहती है। एक दिन भी छुट्टी नहीं। नाली के पास रहते हैं खाने-पीने का मन भी नहीं करता है। रहा-सहा कसर मुर्गी-मछली मंडी पूरा कर देती है। सुबह 7 बजे घर से निकलते हैं, शाम के 7 बजे छुट्टी मिलती है। जब कभी गांव जाने को मिलता है तो बड़ा अच्छा लगता है। वहां चार पैसा आदमी कम से कमाता है लेकिन सांस तो ले पाता है। मरने के बाद कौन कहां जाता है पता नहीं लेकिन हम यहां नरक तो भुगत ही रहे हैं।' 
 
कचरे के पहाड़ से करीब 100 मीटर दूरी पर ही कुछ खाने-पीने की दुकानें हैं। यहां बिरयानी से लेकर चिकन तंदूरी, चिकन मोमोज, चिकन चंगेजी, कोरमा और मछली से बने व्यंजन खूब बिकते हैं। सैकड़ों की भीड़ होती है। मुर्गा और मछली मंडी से निकल रहे लोग, अक्सर ही यहां ठहर जाते हैं और कुछ खाने लगते हैं।
मोहम्मद हनीफ यूपी के गोरखपुर से हैं। उनका परिवार 5 साल से दिल्ली में ही रह रहा है। वह गाजीपुर मछली मंडी में काम करते हैं। वह कहते हैं, 'अब तो आदत हो गई है हमें बदबू की। यहां आने वाले लोगों को बदबू जैसा लगता होता होगा। हमें ऐसा कुछ नहीं लगता है। सब ठीक तो है, कचरे का पहाड़ भी धीरे-धीरे कम ही हो रहा है। हमें आदत लग गई है।'
बलराम यहां झालमुड़ी की दुकान लगाते हैं। वह मयूर विहार फेज-3 से यहां आते हैं। कहते हैं, 'इस इलाके में बिक्री भी खूब होती है, इसलिए इतनी दूर आता हूं। गंदगी यहां बहुत है। कुछ लोग यहां बिना कुछ खाए-पीए पैक कराकर निकल लेते हैं। दूर जाकर हाइवे के पास खाते हैं। पूरे इलाके में बहुत गंदगी है।'
मछली मंडी के गेट से कुछ कदम दाएं चलने पर एक ढाबा है। यहां चिकन बिकता है। यहीं करीम दुकान लगाते हैं। उनके ढाबे पर लोगों की भीड़ रहती है। उनसे जब सवाल किया कि आपको यहां किससे शिकायत है? जवाब में करीब बताते हैं कि किसी से नहीं। हम कई साल से यहां दुकान चला रहे हैं, बदबू हमें भी आती है लेकिन कमाएं कि प्रदूषण का फिक्र करें।
करीम ऐसी बात करने वाले इकलौते नहीं हैं। ज्यादातर दुकानदार ऐसी ही बात कहते नजर आ रहे हैं। यहां मछली और मुर्गा मंडी होने की वजह से खूब भीड़ भी होती है। हर दिन हजारों लोग यहां आते हैं। हजारों की कमाई है, परिवार पल जाता है तो लोग यहां रहते हैं। एक दुकानदार ने बताया कि कम से कम महीने में खर्च और सैलरी बांटने के बाद भी 60 हजार से 70 हजार रुपये बच जाते हैं। लोगों को प्रदूषण से शिकायत भी है लेकिन मजबूरी की वजह से यहां रहने की बात कहते हैं।
 
सबकी एक जैसी शिकायत रहती है कि यहां मजबूरी न होता तो आते ही नहीं। सोनू कुमार पेशे से मैकेनिक हैं। वह गाजीपुर मछली मंडी में किसी की गाड़ी ठीक करने आए थे। उन्होंने खबरगांव से बातचीत में कहा, 'भाई साहब, नरक से बुरी जगह है यह। हमारी मजबूरी है कि हमें अक्सर ही यहां आना पड़ता है। मंडी में दिनभर सैकड़ों गाड़ियां आती हैं। यहां के दुकानदारों से मेरा परिचय है तो बुला लेते हैं। यहां इतनी बदबू है कि दिमाग घंटों तक काम नहीं करता है। कचरा, नाली, पंख और हड्डी के अलावा यहां क्या है।'
राजू कुमार बिहार से हैं। वह गाजीपुर में ही मछली मंडी गेट के बाहर रिक्शा चलाते हैं। उन्होंने टूटी-फूटी हिंदी में कहा, 'कचरा इलाका है गाजीपुर। नाला और कचरा, कूड़ा, गंदगी के अलावा यहां क्या है। रोजी-रोटी कमाने के लिए यहां आ रहे हैं। बदबू रहता है यहां इसलिए हमेशा नाक बांधे रहते हैं। उल्टी आती है लेकिन क्या करें साहब मजबूर हैं।'
मोहम्मद भी यहां रिक्शा चलाते हैं। वह 10 साल से ही वह इसी इलाके में रहते हैं। उनका ठिकाना गाजीपुर पहाड़ी के पीछे नाले के पास का स्लम है। मोहम्मद बताते हैं, 'मेरा घर तो नाले के पास ही है। नाले से उठकर कचरे में आना है। यहीं मैं रिक्शा चलाता हूं। यहां साहब लोगों को दिक्कत होती है, हमें नहीं होती है। हम तो 10 साल से यहीं हैं। बारिश के दिनों में बस दिक्कतें बढ़ जाती हैं।'
 
मंडी में ही दिनेश कश्यप भी मिले। वह इलेक्ट्रीशियन हैं। वह गाजीपुर मंडी के आस पास के इलाके से नहीं हैं। उनका घर मयूर विहार में है। उन्होंने भी लगभग यही परेशानियां बताईं। उन्होंने कहा, 'यहां अब दोबारा नहीं आऊंगा। सीएमसीडी में कुछ काम था, ठीक करने आया था लेकिन अब उल्टी लग रही है। इतनी गंदगी तो पूरी दिल्ली में कहीं नहीं है।'
सलीम सड़क पर चद्दर बिछाकर जूते बेचते हैं। उनके पिता भी इसी धंधे में थे। बीते साल वह गुजर गए। सलीम बचपन से यहां रहे हैं तो उनके लिए कुछ भी नया नहीं है। वह कहते हैं, 'हमें तो कोई दिक्कत नहीं है। हमारे बाप-दादे यहां आते रहे हैं। कचरे से हमें कोई दिक्कत नहीं है। यहां बिक्री अच्छी हो जाती है। मंडी में मीट-मछली खरीदने आए लोग हमारे यहां भी आ जाते हैं। दिनभर में ठीक-ठाक कमाई हो जाती है।' जब गंदगी को लेकर सवाल किया तो उन्होंने कहा कि कौन सी हमारी गली में चीजें ठीक हैं।
अमित सिंह पेशे से बिल्डर हैं। इस इलाके में उनके कई प्रोजेक्ट चल रहे हैं। वे बताते हैं कि  गाजीपुर लैंडफिल साइट के आसपास कई इलाके हैं। मार्च से जून तक का महीना यहां बेहद मुश्किल भरा रहता है। यहां आए दिन आग लग जाती है। वहां के धुएं से भी लोग परेशान रहते हैं। गाजीपुर लैंडफिल साइट का असर दिल्ली से लेकर नोएडा तक है। 
 
अमित बताते हैं कि तेज हवा चलने पर यहां कूड़े का बदबू घरौली, जीडी कॉलोनू, मयूर विहार, कोंडली और खिचड़ीपुर तक जाता है। यहां के लोगों का भी कहना है कि यहां प्रदूषण की तिहरी मार है। एक तरफ मुर्गा-मछली मंडी की बदबू है, दूसरी तरफ कूड़े का पहाड़ है। जब भी जिस ओर की हवा चलती है, भीषण बदबू आती है।
लैंडफिल साइट में आग लगने के बाद तो हालात और बदतर हो जाते हैं, इलाका धुएं से पट जाता है, घुटन बढ़ जाती है, आंखों में जलन होती है, खुजली होने लगती है। यहां के आसपास के लोग अब इस बात को मान चुके हैं कि यहां से बेहतर हालात कभी कभी नहीं होंगे।
इन इलाकों में रहने के जोखिम क्या हैं?
ओपोलो हॉस्पिटल के सीनियर पॉल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. निखिल मोदी ने खबरगांव से बातचीत में कहा कि दिल्ली-NCR में हवा की गुणवत्ता अलग-अलग वजहों से पहले ही खराब रहती है। ऊपर से लैंडफिल या वेस्ट टू एनर्जी प्लांट (WtE) प्लांट से निकलने वाले प्रदूषक लोगों की और मुश्किलें बढ़ा देते हैं।
प्लांट से मेथेन गैस निकलती रहती है। वेस्ट टू एनर्जी प्लांट से पर्टिकुलेट मैटर भी निकलते हैं। लैंडफिल साइट से मिथेन, कार्बन डाइऑक्साइड और हाइड्रोजन सल्फाइड निकलता है। कमजोर इम्युनिटी के लोगों के श्वसन तंत्र पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है। जो लोग इसके संपर्क में ज्यादा समय तक रहते हैं, उनके फेफड़े भी खराब हो सकते हैं। अस्थमा और श्वसन नली में जलन ऐसे इलाकों में आम समस्या है।
डॉ. निखिल मोदी बताते हैं कि इन जगहों पर लिचेट भी सेहत पर असर डालते हैं। लेड,मर्करी, कैडियम, अमोनिया नाइट्रेट्स और दूसरे कार्बनिक रसायनों का असर किडनी और लिवर जैसे नाजुक अंगों पर भी पड़ सकता है। हवा में मौजूद प्रदूषकों की वजह से ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं।
 
डॉ. निखिल मोदी बताते हैं कि पार्टिकुलेट मैटर प्रदूषण मापने का एक तरीका है। ये ऐसे कण होते हैं, जिन्हें इंसानी शरीर के लिए नुकसानदेह माना जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की गाइडलाइन कहती है कि 24 घंटे हवा में पीएम2.5 की मात्रा 15 माइक्रोग्राम प्रति क्युबिक मीटर होनी चाहिए। गाजीपुर में पीएम2.5 का स्तर 114 माइक्रोग्राम प्रति क्युबिक मीटर से कहीं ज्यादा है। कई बार यह 400 पार होता है।
MCD कचरे के निस्तारण के लिए क्या कर रही है?
गाजीपुर लैंडसाइट पर दिल्ली नगर निगम (MCD) के अधिशासी अभियंता प्रशांत शर्मा हैं। यहां जूनियर इंजीनियर कुणाल सेहरावत की भी पोस्टिंग है। दोनों ने कहा है कि हर दिन इस साइट पर 2200 से 2300 मीट्रिक टन कचरा गिराया जाता है। असली आंकड़े कहीं ज्यादा हैं। लोगों में इतना सिविक सेंस नहीं है कि गीला कचरा और सूखा कचरा अलग-अलग करें, जिससे सफाई कर्मचारियों को इन्हें लाने में आसानी हो।
प्रशांत शर्मा बताते हैं कि लोग घर के कचरे में बैटरी, सेल और लीथियम के उत्पाद फेंक देते हैं। ट्रॉमल मशीन की मदद से इन्हें अलग करने में परेशानियां आती हैं। मीथेन का स्तर बढ़ने की आशंका रहती है। ट्रॉमल मशीनें कचरे से प्लास्टिक, धातु, मलबा और मिट्टी को अलग-अलग कर देती हैं।
मिट्टी का इस्तेमाल सड़क पाटने में किया जाता है। ठोस अपशिष्टों (MSW) का इस्तेमाल वेस्ट टू एनर्जी (WtE) प्लांट में किया जाता है, जहां से बिजली बनाई जाती है। गाजीपुर प्लांट की क्षमता 1300 मीट्रिक टन प्रति दिन की है। करीब 12 मेगावाट बिजली यहां बनती है। प्लांट से भी कुछ प्रदूषक निकलते हैं, जिन्हें हम नियंत्रित नहीं कर पाते हैं। कचरे से मीथेन गैस का रिसाव होता रहता है। यही वजह यहां आग भी लगती है। गर्मी के दिनों में आए दिन आग लगती है। भीषण धुएं और प्रदूषण की वजह से दफ्तर आना मुहाल हो जाता है। हमें तो यहां हर दिन आना होता है।
 
प्लांट पर तैनात जूनियर इंजीनियर कुणाल सेहरावत बताते हैं कि कई बार गैस ज्यादा रिसने की वजह से प्लांट के आसपास काम कर रहे लोगों की त्वचा में खुजलाहट बढ़ जाती है, सांस लेने में तकलीफ होती है। लोग लैंडफिल साइट से नीचे भाग आते हैं। यह नियमित तौर पर होता रहता है। चुनौतियों के बाद भी नगर निगम से जो बन पा रहा है, हम कर रहे हैं।
क्या साफ पर्यावरण आपका मौलिक अधिकार है?
सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता विशाल अरुण मिश्र बताते हैं कि सही मायने में प्रदूषण मुक्त पर्यावरण भी मौलिक अधिकार है। इसे अनुच्छेद 21 'प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण' के अंतर्गत माना जाता है। एमसी मेहता बनाम कमल नाथ, 2000 केस में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी व्याख्या के संदर्भ में कहा था कि अनुच्छेद 48ए और 51ए(G) की व्याख्या अनुच्छेद 21 के प्रकाश में की जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सार यह था कि पर्यावरण के बुनियादी तत्वों जैसे हवा, पानी और मिट्टी जीवन के लिए अनिवार्य हैं। इनमें किसी भी तरह की गड़बड़ी, संविधान के अनुच्छेद 21 के शब्द जीवन के लिए खतरनाक होगी। कई दूसरे केस में सुनाए गए फैसलों का निष्कर्ष यही निकला कि साफ हवा भी आपका मौलिक अधिकार है। यह मौलिक अधिकार आपको कितना मिल पा रहा है, यह आप ही इन जगहों पर जाकर आजमा सकते हैं।
