भारत के इतिहास में 6 दिसंबर एक ऐसी तारीख है, जिसे कोई नहीं भूल सकता है। यह दिन दलित चेतना और अस्मिता का दिन है। हिंदूवादी संगठनों के लिए भी यह दिन बेहद अहम है। उनके मुताबिक इसी दिन ने नए सिरे से हिंदू नवजागरण किया, जिसकी वजह से देश की सियासत भी बदली और तकदीर भी। यह तारीख एक राष्ट्रीय पार्टी के विस्तार की भी वजह बनी।
इस तारीख की वजह से एक विचारधारा की सार्वजनिक स्वीकृति भी बढ़ी। भारतीय जनता पार्टी (BJP) के उभार और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (RSS) के विस्तार में इस तारीख का भी एक अहम योगदान है। डॉ. भीम राव अंबेडकर ने भी इसी दिन महापरिनिवार्ण लिया था। भीम राव अंबेडकर के परिनिर्वाण से लेकर बाबरी विध्वंस तक, कैसे इस दिन का असर भारत के सामाज पर पड़ा, आइए समझते हैं।
दलित चेतना के लिए क्यों खास है 6 दिसंबर?
अंबेडर को देखने वाली पीढ़ी यह बाखूबी जानती है कि कोई शख्स, कैसे किसी वर्ग के लिए भगवान बन सकता है। उन्होंने वह कर दिखाया, जो किसी चमत्कार से कम नहीं था। डॉ. अंबेडकर ने शोषणकारी समाज की मनोवृत्ति बदली, उनके सामाजिक रवैये को बदल दिया। उन्होंने बताया कि सदियों से ऊंच-नीच के फेर में जो अन्याय किया जा रहा है, वह गलत है, बराबरी सबका अधिकार है।
सदियों से वंचित-शोषित तबके को जिस शख्स ने सम्मान दिलाया, सामाजिक बराबरी दिलाई, उन्हें संवैधानिक हक दिलाया, उस महान नेता ने 6 दिसंबर 1956 को आंखें मूंद ली थीं। बौद्ध धर्म में महान आत्माओं के निधन को परिनिर्वाण कहा जाता है। इस दिन को भीम राव अंबेडकर की परिनिर्वाण तिथि के तौर पर लोग जानते हैं, इसे महापरिनिर्वाण दिवस के तौर पर देश मनाता भी है।
भीम राव अंबेडकर, दलित अस्मिता के प्रतीक कहे जाते हैं। उन्होंने देश के वंचित और शोषित तबके लिए जो किया, वह काम कोई नहीं कर सका। उन्होंने दलितो को उनका संवैधानिक हक दिलाया, आरक्षण की व्यवस्था की और छुआछूत जैसी प्रथाओं को खत्म किया। जिस दलित समुदाय को अछूत कहकर प्रताड़ित किया जाता था, उसी वर्ग को उन्होंने बराबरी का हक दिलाया।
हिंदू धर्म में कई सुधार उनकी वजह से हुए हैं। वे जीवनभर सामाजिक समता के पक्षधर रहे, उन्होंने कहा कि सार्वनजिक संसाधनों पर सबका हक होना चाहिए, किसी के साथ जाति के आधार पर भेदभाव करना, गलत है। उन्होंने महिलाओं के लिए बेहतर शिक्षा की वकालत की। जीवन के अंतिम समय ने डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। मुंबई के दादर चौपाटी में उनका अंतिम संस्कार हुआ था, उसे चैत्य भूमि के नाम से लोग जानते हैं, इस दिन वहां जाकर श्रद्धांजलि देते हैं।
दागदार भी है 6 दिसंबर का इतिहास
6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों ने विवादित मस्जिद के तीनों गुंबदों को गिरा दिया था। अखबारों में तब इस घटना को शर्मनाक बताया गया। लोगों ने लिखा कि देश के सेक्युलर और लोकतांत्रिक ढांचे के लिए यह शर्मनाक दिन है। इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाओं ने लिखा, 'कलंकित हुआ सारा देश'। यह घटना अपने तरह की पहली घटना थी, जब इतनी बड़ी संख्या में जनता ने पुलिस और प्रशासन को धता बताते हुए विवादित स्थल को ढहा दिया। आलोचकों, उदारवादियों ने इस घटना को शर्मनाक बताया। लोगों ने कहा कि बाबरी के बाद हिंदू मुस्लिम के बीच पसरी खाई इतनी गहरी हुई जो आज तक नहीं भर सकी है।
'हिंदुत्व' के लिए खास क्यों है ये दिन?
हिंदू राष्ट्रवादियों का एक धड़ा, इस तारीख को 500 वर्षों के जुल्म का नतीजा मानता है। हिंदूवादी संगठनों का कहना है कि अगर 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचे नहीं गिराए जाते तो भगवान राम की जन्मस्थली पर भव्य राम मंदिर नहीं बन पाता। 22 जनवरी 2024 को रामलला के मंदिर का उद्घाटन हुआ था। बाबरी विध्वंस को हिंदूवादी अपनी जीत बताते हैं, मुसलमान इस दिन को काले दिन के तौर पर याद करते हैं। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं।
हिंदू संगठनों का कहना है कि जिस बात के प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं, मौखिक-लिखित इतिहास में मिलते हैं, उस जमीन पर मस्जिद क्यों था। अगर राम अयोध्या में नहीं होंगे तो कौन होगा? हिंदूवादियों का यह भी कहना है कि आक्रमणकारियों न केवल भगवान राम की जन्मस्थली पर कब्जा जमाया था, बल्कि मथुरा से लेकर काशी तक उन्होंने ऐसे ही अतिक्रमण किए थे। 6 दिसंबर को हिंदुत्ववादी संगठन, हिंदुओं का नवजागरण भी कहते हैं।
क्या है बाबरी विवाद की टाइमलाइन?
अयोध्या में जिस जगह आज रामलला का भव्य मंदिर है, वहां कभी बाबरी मस्जिद थी। बाबरी को लेकर 500 साल से ज्यादा वक्त से संघर्ष चला आ रहा था। हिंदू पक्ष कहता था कि भगवान रामलला की जन्मस्थली पर मुगल सम्राट बाबर ने बाबरी मस्जिद बनवा दिया था। साल 1528 में मस्जिद बना। 1853 में पहली बार इस मस्जिद के पास हिंदू-मुस्लिम में दंगा भड़का। 1859 को ब्रिटिश शासकों ने इस जगह बाड़ लगा दी और अंदर मुसलमानों को और बाहर हिंदुओं को पूजा करने की इजाजत दी।
1949 में यहां रामलला की मूर्तियां मिलीं। पहली बार अदालत में केस पहुंचा। 1984 तक राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ, 1989 को मस्जिद के पास रामलला के मंदिर की नींव रखी गई। 1992 को कारसेवकों ने विवादित ढांचे को गिरा दिया। दशकों के संघर्ष के बाद 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला सुनाया कि विवादित स्थल पर राम मंदिर बनेगा, मस्जिद बनाने के लिए मुस्लिम पक्ष को 5 एकड़ जमीन वैकल्पिक तौर पर दिया गया।