दिल्ली में हर दिन 11,000 मीट्रिक टन से ज्यादा कचरा पैदा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि दिल्ली के लैंडफिल साइटों पर कचरे को संशोधित करने की क्षमता, महज 8 हजार मीट्रिक टन ही है। हर दिन 3 हजार मीट्रिक टन कचरा असंशोधित ही रह जाता है। खामियाज दिल्ली-NCR की जनता भुगतती है। दिल्ली नगर निगम के ही कर्मचारी बताते हैं कि शहर में इस आंकड़े से कहीं ज्यादा कचरा हर दिन पैदा होता है। वह भी कई गुना।
दिल्ली में कूड़े के तीन पहाड़ हैं। ओखला, गाजीपुर और भलस्वा लैंडफिल साइट। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के आंकड़े बताते हैं कि ट्रॉमेल मशीनों पर कचरे का इतना बोझ है कि इन्हें आसानी से पाटा नहीं जा सकता है। MCD के इंजीनियर प्रशांत बताते हैं कि बायोमाइनिंग के जरिए कचरा कम किया जा रहा है। भलस्वा में करीब 54.58 लाख मीट्रिक टन कचरा है। गाजीपुर में 84.4 लाख मीट्रिक टन कचरा है, वहीं ओखला में 34.20 लाख मीट्रिक टन कचरा है।
इन कचरों से बिजली भी तैयार की जाती है। दिल्ली में 4 वेस्ट टू एनर्जी (WTE) प्लांट हैं। एक प्लांट की क्षमता 2400 टन प्रति दिन (TPD) है। यहां से हर दिन करीब 24 मेगावाट बिजली पैदा होती है। गाजीपुर वेस्ट टू एनर्जी प्लांट के विशेषज्ञों से खबरगांव ने कचरे के निस्तारण को लेकर बातचीत की है। इस प्लांट पर करीब 1300 मीट्रिक टन कचरे के इस्तेमाल से बिजली तैयार की जाती है।
कचरे से कैसे बनती है बिजली?
दिल्ली नगर निगम के गाजीपुर कार्यालय में तैनात अधिशासी अभियंता प्रशांत शर्मा ने कचरे से बिजली बनाने की पूरी प्रक्रिया बताई है। आसान भाषा में अगर इसे समझना हो तो वेस्ट से एनर्जी (WTE) प्रक्रिया में कुल 5 मुख्य चरण होते हैं। उद्योगों से आने वाले कचरा, नालियों से आने वाला कचरा, पानी में मौजूद अशुद्धियां, जहरीला अपशिष्ट, मेडिकल और फार्मा कचरा, अनाज और फलों का कचरा और खराब पानी। इन्हें अलग-अलग इकट्ठा कर लिया जाता है।

पहली प्रक्रिया के बाद दो चरण अपनाए जाते हैं। गैसीकरण (Gasification) और पदार्थों का शुद्धीकरण इसकी दो प्रक्रियाएं हैं। इंजीनियर प्रशांत बताते हैं कि कचरे का शुद्धीकरण किया जाता है, उसमें से खतरनाक तत्वों को अलग निकला जाता है। गैसीफिकेशन की प्रक्रिया को आसान भाषा में समझते हैं। नगरपालिका से मिले ठोस कचरे (MSW) को जलाकर भाप तैयार किया जाता है। जब ठोस प्लाज्मा की अवस्था में आता है तो पूरे भाप को अल्ट्रा साइकिल टार्बाइन में भेजा जाता है। इस ऊर्जा को टॉर्क्यू में भेज दिया जाता है, जिससे टारबाइन घूमने लगता है। यह जनसेट और ट्रांसफॉर्मर को सक्रिय करता है, जिससे ऊर्जा पैदा होती है।
गैसीफिकेशन की वजह से बने प्लाज्मा को कर्नवर्टर में भेजा जाता है, जिससे अल्ट्रा गैस बनती है। जो कचरा बच जाता है, उसे फिर से उसे दहन कक्ष में भेजा जाता है। यहां का तापमान 1000 डिग्री सेंटीग्रेट तक पहुंच सकता है। यहां से हानिकारिक गैसों और द्रव्यों को नियंत्रित किया जाता है, इन्हें फिल्टर करके इकट्ठा कर लिया जाता है।

जो पदार्थों के दहन से ऊर्जा पैदा होती है, उसे मशीन के जरिए भाप में बदला जाता है। यही भाप टार्बाइन को गति देती है। टार्बाइन से ही बिजली पैदा होती है। कचरे से बिजली के साथ-साथ राख भी पैदा होती है। बॉटम ऐश और फ्लाई ऐश। दहन के बाद जो राख बचती है, वह कुल कचरे का 20 से 30 फीसदी हिस्सा होता है। इनके निस्तारण की प्रक्रिया भी बेहद जटिल होती है। गाजीपुर प्लांट काम कर रहा है। यहां की क्षमता 1300 मीट्रिक टन प्रति दिन के हिसाब से कचरे का निस्तारण किया जा सकता है। करीब 12 मेगावाट बिजली यहां हर दिन पैदा होती है।

WTE प्लांट के जोखिम क्या हैं?
गाजीपुर प्लांट, गाजीपुर डेयरी फार्म और डीडीए फ्लैट के बीच में है। यहां मछली और मुर्गा मंडी भी है। यहां भीषण बदबू आती है, जिससे हर दिन लोग जूझते हैं। आसपास के रहने वाले लोग बताते हैं कि यहां रहना मुहाल है। इंजीनियर प्रशांत बताते हैं कि ऐसे प्लांट से हानिकारक केमिकल रोज निकलते हैं। इन्हें कंट्रोल किया जा सकता है लेकिन रोका नहीं जा सकता है।
दिक्कत यह है कि सरकार भी इस बात को मानती है कि ऐसे प्लांट के पास आर्सेनिक, लेड, कैडियम और दूसरे खतरनाक रासायनिक पदार्थ निकलते हैं जो लोगों के लिए जोखिम का सौदा हैं। यहां के जहरीले कणों की चपेट में लोग आ रहे हैं, बीमारियों से जूझ रहे हैं। रिसर्च गेट और अमेरिकन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (NIH) की स्टडी बताती है कि ऐसे प्लांट सेहत के लिए कितने खतरनाक हैं। इनकी वजह से कैडियम, मैंगनीज, आर्सेनिक, लेड और कोबाल्ट और अन्य जहरीले प्रदूषक बाहर निकलते हैं, जिनका स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ता है।

WTE प्लांट से डाइ-ऑक्सिन्स और फ्यूरॉन्स भी निकलते हैं, जिनकी वजह से कैंसर, इम्युनिटी और फर्टिलिटी पर असर पड़ता है। नाइट्रोजन ऑक्साइड्स की मात्रा यहां बढ़ी रहती है। हवा में पार्टिकुलेट मैटर (PM) की मात्रा बढ़ती है, जिससे सांस संबंधी रोग होते हैं। गर्भवती महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों पर सबसे ज्यादा असर होता है।