बीते मंगलवार को भारत के कई शहरों में सायरन की तीखी आवाज गूंजी। गृह मंत्रालय के निर्देश पर आयोजित इस राष्ट्रव्यापी युद्धाभ्यास का उद्देश्य भारत-पाकिस्तान तनाव की स्थिति में देश की आपदा तैयारियों को परखना था। मंत्रालय ने वादा किया था कि 'हर जान कीमती है' लेकिन अभ्यास ने जमीनी हकीकत कुछ और ही बयान की। दिल्ली के एक मोहल्ले में 10 मिनट के अवलोकन ने कई खामियां उजागर कीं। व्हीलचेयर वाला एक शख्स बिना लिफ्ट वाली एक बिल्डिंग की तीसरी मंजिल पर फंसा रहा। कान से न सुन पाने वाली एक बुजुर्ग महिला को सायरन की चेतावनी सुनाई नहीं दी, एक ऑटिस्टिक किशोर सायरन और भीड़ के दबाव में तनावग्रस्त हो गया और एक डायबिटिक मरीज को ठंडी जगह नहीं मिली। यह अभ्यास एक ऐसे भविष्य का पूर्वाभ्यास था, जिसमें कुछ लोग बच निकलते हैं और बाकियों को लोग भूल जाते हैं।
दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम (2016) की धारा 24 स्पष्ट रूप से आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों को दिव्यांगों को तैयारियों, अभ्यासों और बचाव कार्यों में शामिल करने का निर्देश देती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) ने छह साल पहले दिव्यांग-अनुकूल दिशानिर्देश जारी किए थे, जिनमें मल्टी-सेंसरी अलर्ट, रैंपयुक्त शेल्टर और प्रशिक्षित स्वयंसेवकों का प्रावधान था लेकिन मंगलवार का अभ्यास इन दिशानिर्देशों का पालन करने में विफल रहा।
अभ्यास में उजागर हुईं पांच बड़ी खामियां
सिंगल-चैनल वार्निंग: सायरन, मेगाफोन और मौखिक आदेशों तक सीमित चेतावनियां थीं। कोई वाइब्रेशन अलर्ट, SMS, फ्लैशिंग लाइट या चित्र-आधारित साइनेज नहीं थे, जिसके चलते कम सुनने वाले, बधिर और अनपढ़ व्यक्तियों को जीवन रक्षक जानकारी नहीं मिली।
सीढ़ी-आधारित निकासी: सुरक्षित क्षेत्र जैसे बेसमेंट या मेट्रो अंडरपास केवल सीढ़ियों या बंद लिफ्टों से पहुंचे जा सकते थे। व्हीलचेयर उपयोगकर्ता, बुजुर्ग, या बैसाखी पर चलने वाले लोगों के लिए पांच मिनट में निकासी असंभव थी।
संवेदी और मानसिक तनाव: सायरन, भीड़ और चिल्लाहट ने ऑटिस्टिक व्यक्तियों या चिंता विकारों से पीड़ित लोगों में घबराहट पैदा की। कोई शांत कमरा या प्रशिक्षित स्वयंसेवक मौजूद नहीं थे।
चिकित्सा सुविधाओं की कमी: अस्थायी आश्रयों में पानी तो था लेकिन ऑक्सीजन सिलेंडर, इंसुलिन के लिए रेफ्रिजरेशन, या वेंटिलेटर बैटरी जैसी जरूरी चीजें नहीं थीं।
दिव्यांग संगठनों की अनदेखी: स्थानीय दिव्यांग संगठनों से कोई सलाह नहीं ली गई। कलर-कोडेड तीर, बडी सिस्टम या रैंप जैसे सस्ते उपाय लागू हो सकते थे।
वास्तविक संकट में खतरा
भविष्य में अगर ऐसा कोई तनाव फिर बढ़ता है तो उत्तरी क्षेत्र में न केवल मिसाइल हमले, बल्कि बिजली कटौती, ईंधन संकट और अस्पतालों में आपातकालीन मामलों की बाढ़ जैसी समस्याएं आएंगी। दिव्यांग व्यक्ति पहले से ही गर्मी या बाढ़ जैसे रूटीन संकटों में कठिनाई झेलते हैं, युद्ध में यह उपेक्षा जानलेवा हो सकती है। पहले पांच मिनट में निकासी न हो पाने, चिकित्सा सेवाओं के ठप होने या सहायकों के बिछड़ने से स्थिति और गंभीर हो सकती है।
समाधान के लिए क्या करें?
- हर अभ्यास की शुरुआत दिव्यांग परिदृश्यों से हो, जैसे पांचवीं मंजिल पर व्हीलचेयर उपयोगकर्ता या बाजार में कम सुन पाने वाले व्यक्ति।
- सायरन के साथ वाइब्रेशन नोटिफिकेशन, LED लाइट और चित्र-आधारित पोस्टर जैसे मल्टी-मॉडल अलर्ट जोड़े जाएं।
- सभी आश्रयों में रैंप, चौड़े दरवाजे, शांत कमरे और चिकित्सा उपकरण जैसे ऑक्सीजन और ग्लूकोमीटर सुनिश्चित किए जाएं।
- हर वॉर्ड में स्वयंसेवकों को दिव्यांगों के साथ जोड़ा जाए।
- व्हीलचेयर, सफेद छड़ी और पावर बैंक जैसे उपकरणों का आपातकालीन भंडार तैयार हो।
- पुलिस और नागरिक सुरक्षा टीमों को दिव्यांगों की सहायता के लिए प्रशिक्षण दिया जाए।
- हर जिले के आपदा बजट में दिव्यांग सुविधाएं अनिवार्य हों।
- प्रत्येक अभ्यास के बाद खामियों और सुधारों का सार्वजनिक रिपोर्ट प्रकाशित हो।
हर नागरिक की सुरक्षा जरूरी
आपदा तैयारी की असली कसौटी सायरन की आवाज नहीं, बल्कि यह है कि कितने लोग सुरक्षित निकल पाते हैं। जब देश का सातवां हिस्सा अनदेखा रहता है तो तैयारी का दावा खोखला है। रैंप, अलर्ट सिस्टम, और प्रशिक्षण की लागत आपदा के बाद के बचाव और मुआवजे से कहीं कम है। अगले अभ्यास में हर नागरिक चाहे वह व्हीलचेयर पर हो या संवेदी तनाव में—सुरक्षित निकल सके, ऐसी योजना जरूरी है। भारत की संवैधानिक गारंटी और कानून हर जीवन को समान मानते हैं; हमारी आपदा योजनाओं को भी यही करना होगा।
नोट- यह लेख पुनीत सिंघल ने लिखा है। पुनीत एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो दिव्यांगों से जुड़े मामलों पर सक्रिय रहते हैं।