देश की सर्वोच्च अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया है जिसने संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करके दो शब्दों को जोड़ने को चुनौती दी थी। इस याचिका में अपील की गई थी कि 42वें संविधान संशोधन के बाद संविधान की प्रस्तावना में कुछ शब्दों को जोड़ने के फैसले को चुनौती दी थी। इस मामले पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। आज सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की बेंच ने अपना फैसला सुना दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि याचिकाकर्ता ने जो मुद्दे उठाए हैं, वे सुनवाई योग्य नहीं हैं। चीफ जस्टिस खन्ना ने यह भी कहा कि इस संशोधन को अब इतने साल हो चुके हैं तो अब इसे उठाने का कोई मतलब नहीं है।
यह मामला संविधान की प्रस्तावना में कुछ शब्दों को जोड़ने से संबंधित है। दरअसल, जब भारत का संविधान लिखा गया था तब उसकी प्रस्तावना में सेकुलर और सोशलिस्ट जैसे शब्द नहीं थे। इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान संशोधन के जरिए इन शब्दों को प्रस्तावना में शामिल करवाया था। सुब्रमण्यन स्वामी और विष्णु शंकर जैन जैसे वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके इसी को चुनौती दी थी। इन याचिकाकर्ताओं ने अनुरोध किया था कि इस मामले को और बड़ी बेंच को भेज दिया जाए। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने उनकी मांग नहीं सुनी और याचिका खारिज कर दी।
क्या है इस विवाद की कहानी?
दरअसल, 1975 में लगाई गई इमरजेंसी दो साल चली थी और इस दौरान इंदिरा गांधी की सरकार ने कई संविधान संशोधन किए गए थे। कई संशोधनों पर खूब विवाद भी हुआ था। 1976 में किए गए संशोधन के जरिए संविधान की आत्मा कही जाने वाली प्रस्तावना में 'सेकुलर' और 'सोशलिस्ट' शब्द जोड़ दिए गए। इसी को चुनौती दी गई है। बता दें कि भारत को सेकुलर देश कहे जाने पर भी धुर दक्षिणपंथी ऐतराज जताते रहे हैं और उनका कहना यही होता है कि संविधान में भी यह शब्द 1976 के बाद ही आया, मूल संविधान में यह शब्द नहीं था।
इस मामले पर जब सुनवाई हुई थी तब भी सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने माना था कि जैसा कि 1994 के S R बोम्मई केस में फैसला आया था कि धर्मनिरपेक्षता हमारे देश के संविधान का आधार है, वह सही है। हालांकि, वकील विष्णु शंकर जैन ने कहा था कि इमरजेंसी के दौरान किए गए संशोधन जनता की राय से नहीं हुए हैं और ये जनता पर थोपे गए हैं। वहीं, सुब्रमण्यन स्वामी ने सुझाव दिया था कि इन शब्दों को प्रस्तावना का हिस्सा मानने के बजाय एक अलग पैराग्राफ में रख दिया जाए। इस पर कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद को अधिकार है कि वह संविधान और प्रस्तावना में संशोधन कर सके, इसके लिए संविधान सभा की आवश्यकता नहीं है।