किसी बच्चे के पैदा होने के बाद उसे बैठने में 4 से 6 महीने लगते हैं, उसे बोलने में 10 से 18 महीने लगते हैं और अपने पैर पर चलने में 10 से 15 महीने लग जाते हैं। हालांकि, यही बच्चा पहले ही दिन से सुन सकता है। 1000 में से 5 से 6 बच्चे ऐसे होते हैं जो जन्म से ही सुन नहीं पाते हैं। सुन पाने वालों में भी उम्र बढ़ने के साथ अलग-अलग कारणों से चलते सुनने की शक्ति कम होती जाती है। यही वजह है कि भारत में 63 लाख से ज्यादा लोग सुनने की दिक्कत से दो चार होते हैं। उम्र के साथ बहुत सारे लोग इसके साथ जीना सीख लेते हैं तो कुछ लोग दवाओं और थेरेपी के चक्कर में जमकर पैसे फूंकने के बाद भी परेशान रहते हैं। ऐसे ही लोगों की मदद कर रहे HearClear ने कुछ ही सालों में हजारों लोगों को सुनने में मदद की है।

 

मौजूदा वक्त में एक आम समस्या यह है कि कान की समस्याओं को लेकर लोग उतने गंभीर नहीं हैं जितने कि आंखों को होने वाली दिक्कतों के लिए गंभीर दिखते हैं। देखा जाता है कि आंख में थोड़ी सी समस्या होने पर भी लोग आंख के अस्पताल या चश्मे की दुकानों पर पहुंच जाते हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी हैं कि आंख के डॉक्टर और चश्मे की दुकानें तो हर इलाके में मिल जाती हैं लेकिन कान की जांच कर पाने वाले विशेषज्ञ कम मिलते हैं। आपने भी ध्यान दिया होगा कि आपके आसपास भी शायद ही ऐसा क्लीनिक हो जो कान से जुड़ी समस्याओं पर आपको सही सलाह दे सके और इलाज में आपकी मदद कर सके।

कैसे हुई शुरुआत?

 

Hear Clear की शुरुआत ऐसे ही एक आइडिया के साथ हुई थी। अक्तूबर 2020 में जब दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही थी, उसी वक्त इसकी नींव पड़ी। कम सुन पाने वाले लोगों को अगर कोई समाधान मिलता था तो वह थी पुरानी मशीनें जो देखने में अजीब लगती थीं और इनका इस्तेमाल करने वाले लोग बेहद सहज नहीं हो पाते थे। ऐसे में Hear Clear ने ऐसी मशीनें खोजीं जो भारत में कम उपलब्ध थीं लेकिन काफी अडवांस थीं। 

सबसे पहले दिल्ली के करोल बाग में एक क्लीनिक खोला गया और ऑडियोलॉजिस्ट की मदद से टेस्ट की शुरुआत की गई। ENT डॉक्टर की बजाय ऑडियोलॉजिस्ट बिठाने का फायदा यह हुआ कि समस्या की पहचान करने और उन्हें सटीक सलाह देने में आसानी हुई। बुजुर्गों को क्लीनिक आने में दिक्कत समझ आई तो घर जाकर टेस्ट कराने की सुविधा शुरू की गई और इससे लोग जुड़ने लगे। वजह थी कि क्लीनिक तक जाने की हिचक खत्म होने लगी और लोग इस सुविधा का फायदा उठाने लगे।

 

इस समस्या और समाधान को लोगों तक पहुंचाने के लिए HearClear ने कैंप लगाने की शुरुआत की। कैंप लगाने की वजह थी कि लोग पहले तो इन समस्याओं से दो-चार हो सकें और समझ सकें कि इन समस्याओं के लिए समाधान भी मौजूद है। इसके लिए सबसे पहले सोसाइटी, दफ्तरों और पार्क तक में कैंप लगाए गए। इसके जरिए लोगों को पता लगने लगा। अभी भी HearClear लगभग 100 से 150 कैंप हर महीने लगा रहा है और लोग अपने चेकअप करवा रहे हैं। 

 

 

5 साल में 5 गुना बढ़ गए क्लीनिक

 

पहले 8 क्लीनिक थे और अब इस कंपनी ने लगभग 40 क्लीनिक खोल लिए हैं। 10 हजार रुपये से लेकर 8 लाख तक की मशीनें हैं इसलिए HearClear ने भरोसा बनाने पर काम किया। इसके लिए EMI सर्विस शुरू की गई, इंश्योरेंस जोड़ा गया ताकि महंगी मशीनें भी लोग आराम से खरीद कर सकें। अपग्रेड करने की सर्विस भी दी गई। 

 

धीरे-धीरे कंपनी को एहसास हुआ कि सिर्फ प्रॉडक्ट बेचने तक ही मामला ठीक नहीं है। ऐसे में डायगनॉस्टिक पर जोर दिया गया। अब यह कंपनी पैदा हुए बच्चों का भी टेस्ट करती है जो जन्म के 72 घंटे के अंदर किया जाता है। इसके लिए कंपनी ने कई अस्पतालों से टाईअप किया है और सैकड़ों बच्चों की समस्या का समाधान शुरुआत में ही हुआ है। कॉकलिअर इंप्लांट की जरूरत है कि नहीं, यह भी ऐसे डायगनॉस्टिक से ही संभव हो पाया है। महंगे कॉकलिअर इंप्लांट लोगों तक पहुंच पाएं और इतना खर्च वे उठा सकें इसके लिए कंपनी ने कई NGO से भी संपर्क किया। अब हर महीने 3-4 कॉकलिअर इंप्लांट कराए जा रहे हैं और इसके लिए फंडिंग जुटाने का काम भी HearClear ही कर रहा है। इसमें अगर कुल खर्च 8 लाख का होता है तो मरीज से एक-डेढ़ लाख रुपये ही लिए जाते हैं।

सिर्फ प्रोडक्ट बेचना नहीं, समाधान खोजने का है विजन

 

इन प्रयासों का असर है कि अब यह कंपनी सुनने से जुड़ी समस्याओं का समाधान देने वाली बन गई है। कान से जुड़े सारे तरह के टेस्ट किए जाते हैं, ऑडियोलॉजिस्ट बता देते हैं कि समस्या का समाधान किस तरह से किया जाता है। दवा से ठीक होगा या नहीं, थेरेपी करनी पड़ेगी या नहीं या फिर मशीन की जरूरत करने पड़ेगी। यह सब ऑडियोलॉजिस्ट अपने टेस्ट से तय कर लेते हैं और बता देते हैं कि आगे क्या करना है।

 

बहुत सारे बुजुर्गों के जीवन में HearClear बदलाव लेकर आया है। कई बुजुर्ग ऐसे रहे जो ज्यादा उम्र में भी सुन पाते हैं, टीवी देख पाते हैं और अपने घर के बच्चों से आराम से बात भी कर पाते हैं। ऐसे लोगों ने हियरिंग एड खरीदे और अब वे अपने जीवन में उसी तरह जी रहे हैं, जैसे वे पहले कान खराब होने के पहले जी रहे थे। अलग-अलग तरह की मशीनें अलग-अलग दाम में आती हैं और वे आपके काम के हिसाब से सुझाई जाती हैं। 

 

कंपनी खुद के प्रोडक्ट नहीं बनाती इसके बावजूद सर्विस के दम पर लोगों के बीच पहचान बनाने में कामयाब हुई है। कंपनी का आगे का लक्ष्य भी यही है कि वह हियरिंग इंडस्ट्री का सबसे मजबूत खिलाड़ी बनना चाहती है। उसका ख्वाब है कि वह उस तरह दिखे जैसे हर दूसरी गली में  चश्मे की दुकानें दिखती हैं।