एक बच्चे का स्कूल में मन नहीं लगता है। पेंटिंग करनी और गाना गाना आता है लेकिन पढ़ाई में मन नहीं लगता। 6 साल की उम्र में भी महापुरुषों की बातें सुनना अच्छा लगता था। दुनिया को देखने का नजरिया बचपन से ही अलग था। 6 साल की उम्र में एकदिन काले घने बादलों के बीच उड़ते सारस पक्षियों को देखा तो न जाने क्या हो गया। छोटा सा बच्चा इन पक्षियों को देखने में ऐसा खो गया कि खुद को ही भूल गया। कहा जाता है कि इस बच्चे का संपर्क इस दुनिया से टूट गया था। वह वहीं अचेत होकर गिर पड़ा जैसे आत्मा ने शरीर ही छोड़ दिया। बदहवास घरवाले बच्चे को घर लाए तो वह ठीक भी हो गया।
यह इकलौता मामला नहीं था। पढ़ाई-लिखाई से दूर भागने वाला बच्चा स्कूल गया तो वहां नाटकों में हिस्सा लेने लगा। एकदिन भगवान शिव का रोल करना था और भगवान शिव की एक्टिंग करते-करते एक बार फिर खो सा गया और वहीं बेहोश हो गया। घरवाले परेशान होते कि बच्चे को न जाने क्या हो रहा है। बच्चा शायद अपनी आस्था के करीब जा रहा था। यही बच्चा बड़ा होता है तो मंदिर में पुजारी की नौकरी मिलती है। यहां इस शख्स ने प्रसाद को चखकर और फूल को सूंघकर भगवान को चढ़ाना शुरू कर दिया। अचानक एक दिन पता नहीं क्या हुआ कि अपनी ही पत्नी की पूजा करने लगा। जी नहीं, यह किसी पागल की कहानी नहीं है। यह कहानी है रामकृष्ण परमहंस के नाम से मशहूर हुए एक संत की जिन्हें बचपन में गदाधर चटोपाध्याय के नाम से जाना जाता था।
मां को पहले ही हो गया था एहसास
पश्चिम बंगाल के कामारपुकुर गांव के बंगाली ब्राह्मण खुदीराम और चंद्रमणि देवी की चौथी संतान के रूप में गदाधर चटोपाध्याय 18 फरवरी 1836 को हुआ था। दुनिया ने शायद गदाधर को रामकृष्ण परमहंस के रूप में देर से हुआ लेकिन उनकी मां चंद्रमणि देवी कहती थीं कि मंदिर में पूजा करने के दौरान ही एक बार उन्हें एहसास हुआ था कि उन्हें गर्भ में एक दिव्य प्रकाश प्रवेश कर गया है। गर्भावस्था में उन्हें भगवान गदाधर आते थे इसलिए बेटे का नाम भी उन्हीं के नाम पर रख दिया।
सिर्फ सात साल की उम्र में ही बालक गदाधर के पिता यानी खुदीराम का निधन हो गया। जब उनका निधन हुआ तब वह कोलकाता के दक्षिणेश्वर में स्थित मशहूर काली मंदिर में पुजारी हुआ करते थे। इस मंदिर का निर्माण रानी रासमणि ने करवाया था। हुगली नदी के किनारे बने इस मंदिर की जिम्मेदारी अब बड़े बेटे रामकुमार के कंधों पर थी। साल 1855 में रामकुमार मंदिर के मुख्य पुजारी नियुक्त हुए तो अपने साथ रामकृ्ष्ण को भी ले गए। यहां से रामकृष्ण मां काली के अनन्य भक्त बन गए। कभी हंसने लगते तो कभी गाने लगते। लोग उन्हें पागल समझने लगे थे। कई बार वह फूलों को सूंघकर ही देवी-देवताओं को चढ़ाते और कहते कि फूलों में खुशबू है या नहीं यह पता लगाना जरूरी है। इसका विरोध भी होता लेकिन रामकृष्ण कहां ही मानने वाले थे। कई बार मां काली की मूर्ति की आगे बैठे रहकर ऐसे खो जाते कि पुजारी का दायित्व निभाना ही भूल जाते।
नाबालिग लड़की से हुई थी शादी
हालांकि, रामकृष्ण को अकेला नहीं रहने दिया। कुछ ही सालों में उनकी शादी सारदा से करवा दी गई। इसका भी ज्यादा असर नहीं हुआ। रामकृष्ण उसी दक्षिणेश्वर मंदिर में रहते और अलग-अलग गुरुओं से अलग-अलग विद्याएं सीखते। उन्होंने 1861 में भैरवी ब्राह्मणी नाम की महिला से तंत्र विद्या सीखी। इसी के तीन साल बाद तोतापुरी नाम के गुरु आए जिनकी देखरेख में रामकृष्ण परमहंस ने निर्विकल्प समाधि हासिल की। बता दें कि हिंदू धर्म में इसे ही सबसे बड़ी सिद्धि माना जाता है। कहा जाता है कि वह इसी समाधि अवस्था में 6 महीने तक रहे। कहा जाता है कि इन्हीं गुरु तोतापुरी के जरिए रामकृष्ण परमहंस अद्वैत वेदांत से परिचित हुए।
रामकृष्ण परमहंस इतने महान क्यों हुए, वह उनकी गतिविधियों में छिपा हुआ है। जहां कट्टर संत हिंदू धर्म के अलावा दूसरे धर्मों से दूर रहते थे वहीं रामकृष्ण परमहंस ने इस्लाम, ईसाई और सिख गुरुओं के बारे में भी खूब जाना। अभी तक अपनी पत्नी से दूर रहने लगे रामकृष्ण अजीब अवस्था में थे। 1872 में उनकी पत्नी सारदा उनसे मिलने आईं। तब रामकृष्ण 36 साल के हो चुके थे और उनकी पत्नी सिर्फ 19 साल की थीं। एकदिन वह अपनी पत्नी की ही पूजा करने लगे। भले ही उनकी पत्नी उनके साथ रहने आई थीं लेकिन तब तक वह संन्यासी हो चुके थे। कहा जाता है कि रानी रसमणि दक्षिणेश्वर मंदिर के इस संत का ख्याल रखती थीं। उनके निधन के बाद उनके दामाद माथुर नाथ विश्वास ने रामकृष्ण का ख्याल रखना शुरू कर दिया।
उस समय राजा राम मोहन राय की अगुवाई में ब्रह्म समाज कई तरह के सामाजिक-धार्मिक आंदोलन चला रहा था। रामकृष्ण परमहंस ने इसे भी खूब प्रभावित किया और उनके संदेशों ने इन आंदोलनों में भी खूब जान फूंकी। यही नहीं उन दिनों दक्षिणेश्वर काली मंदिर धार्मिक तौर पर बेहद मशहूर भी हो गया था। उनके अनुयायियों को मुताबिक, संसार के अस्तित्व से जुड़े परम तत्व का ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले को परमहंस कहा जाता है इसी के चलते इनका नाम रामकृष्ण परमहंस रखा गया। उस समय के तमाम चर्चित शख्स रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आकर उनके शिष्य बन रहे थे। स्वामी विवेकानंद के नाम से मशहूर हुए युवा नरेंद्र नाथ दत्त भी उनके शिष्य बने और इन्हीं विवेकानंद ने ही आगे चलकर साल 1897 में रामकृष्ण मिशन की शुरुआत की।
रामकृष्ण परमहंस का संदेश था कि सभी जीव ही ईश्वर हैं और ईश्वर सबके अंदर विद्यमान है। वह सबको यही सिखाते कि सभी इंसान समान हैं। साथ ही, उनका यह भी कहना है कि अगर मोक्ष प्राप्त करना है तो लोभ और काम को छोड़ना होगा। इस तरह के विचारों से रामकृष्ण परमहंस ने न सिर्फ एक धार्मिक धारा तैयार की बल्कि सामाजिक में एक चेतना भी फूंक दी। इसी चेतना से स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष निकले।
अंत समय में रामकृष्ण परमहंस को गले की एक बीमारी हो गई। डॉक्टर के पास गए तो पता चला कि कैंसर हो गया। हालांकि, वह इस बीमारी से ज्यादा चिंतित नहीं हुए और मुस्कुराते हुए इसी के साथ जीने लगे। आखिरकार 18 अगस्त 1886 को उनका निधन हो गया। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी सारदा एक धर्मगुरु बन गईं।