शिक्षा के क्षेत्र में एक नई बहस छिड़ गई है। स्मार्टफोन और लैपटॉप जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जो आधुनिक शिक्षा का हिस्सा बन चुके हैं, अब कक्षाओं में एक गंभीर समस्या बनते जा रहे हैं। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2024 के अंत तक 79 देशों ने स्कूलों में स्मार्टफोन के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है ताकि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य और शैक्षणिक प्रदर्शन को सुरक्षित रखा जा सके। 

वैश्विक स्तर पर स्कूलों में स्मार्टफोन पर प्रतिबंध की प्रवृत्ति बढ़ रही है, लेकिन उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इस मुद्दे पर खामोशी छाई हुई है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह खामोशी आने वाली पीढ़ी के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। भारत में इस दिशा में कोई स्पष्ट नीति या कानून नहीं है, जिसके कारण शिक्षा और छात्रों का भविष्य खतरे में पड़ रहा है।  

लेक्चर के बीच रील देख रहे हैं छात्र

आज के डिजिटल युग में स्मार्टफोन और लैपटॉप जरूरी हैं लेकिन इनके खतरे भी हैं। इन उपकरणों का अंधाधुंध उपयोग कक्षाओं में शिक्षकों और छात्रों के बीच संवाद को बाधित कर रहा है। शिक्षाविदों का कहना है कि छात्र कक्षा में व्याख्यान और चर्चा पर ध्यान देने के बजाय सोशल मीडिया और डिजिटल एंटरटेनमेंट में खोए रहते हैं। यह न केवल उनकी एकाग्रता को प्रभावित कर रहा है, बल्कि उनके मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर भी गंभीर असर डाल रहा है।  

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'क्लासरूम की महामारी है स्मार्टफोन'

बेनेट यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर, डॉ. दीपक कुमार कहते हैं, 'स्मार्टफोन और लैपटॉप का उपयोग कक्षाओं में एक महामारी की तरह फैल रहा है। यह शिक्षा की नींव को कमजोर कर रहा है। स्कूल शिक्षा एक व्यक्ति के जीवन की नींव है तो उच्च शिक्षा उसका स्तंभ और छत। अगर हम इन उपकरणों के उपयोग को नियंत्रित नहीं करते, तो हम अगली पीढ़ी के भविष्य को खतरे में डाल रहे हैं।'

मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता प्रभाव

वैश्विक शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग, खासकर किशोरों और युवाओं के बीच, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा रहा है। स्मार्टफोन के जरिए सोशल मीडिया पर बिताया गया समय युवाओं को एकाकी कर रहा है। आज के युवा पढ़ाई और सीखने की बजाय सोशल मीडिया पर इन्फ्लुएंसर बनने की होड़ में लगे हैं।  विशेषज्ञों के अनुसार, सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग चिंता, अवसाद और अन्य मानसिक विकारों का कारण बन रहा है। समाज में स्वास्थ्य को अक्सर शारीरिक स्वास्थ्य तक सीमित समझा जाता है, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है। छात्रों का मानसिक स्वास्थ्य उनकी शैक्षणिक सफलता और समग्र व्यक्तित्व के लिए महत्वपूर्ण है। स्मार्टफोन और सोशल मीडिया इस स्वास्थ्य को नष्ट कर रहे हैं।

पढ़ाई में लगन खो रहे हैं छात्र

छात्रों का ध्यान बार-बार भटक रहा है। पिछले दो दशकों में स्मार्टफोन और लैपटॉप के बढ़ते उपयोग ने वैश्विक स्तर पर अटेंशन स्पैन में भारी कमी ला दी है। वर्ल्ड कल्चर स्कोर के शोध के अनुसार, 2004 में जहां औसत ध्यान अवधि 2.5 मिनट थी, वहीं 2021 तक यह घटकर मात्र 41 सेकंड रह गई। 'जनरेशन Z' में यह और भी कम, केवल 8 सेकंड, है। फ्रांस में हुए एक शोध में पाया गया कि कक्षाओं में डिजिटल उपकरणों का अत्यधिक उपयोग शैक्षणिक प्रदर्शन को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। 

 

नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन के एक अध्ययन के अनुसार, किसी व्याख्यान में छात्रों का ध्यान 10 मिनट के बाद कम होने लगता है। स्मार्टफोन पर हर मिनट आने वाली सैकड़ों नोटिफिकेशन छात्रों को कक्षा की चर्चा से दूर ले जाती हैं, जिससे उनकी एकाग्रता और सीखने की क्षमता प्रभावित होती है।  

भारत की डिजिटल प्रजेंस पर बुनियादी खामियां 

भारत में इस समस्या पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। स्कूल अपने स्तर पर स्मार्टफोन के उपयोग पर कुछ नीतियां लागू कर रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कोई स्पष्ट कानून या नीति नहीं है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में स्थिति और भी चिंताजनक है, जहां इस मुद्दे पर चर्चा तक नहीं हो रही। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसे निकायों ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है।  

डॉ. कुमार कहते हैं, 'भारत को इस समस्या को गंभीरता से लेना होगा। अगर हम अभी नहीं जागे, तो हम अपने भविष्य को दांव पर लगा देंगे। स्मार्टफोन और लैपटॉप के उपयोग को कक्षाओं में नियंत्रित करने के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है।'

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अब आगे क्या राह है?

मानव सभ्यता का इतिहास बताता है कि बच्चों की सुरक्षा हमेशा से प्राथमिकता रही है। तकनीक ने हमें कई सकारात्मक अवसर दिए हैं, लेकिन इसके नकारात्मक प्रभावों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। स्मार्टफोन और लैपटॉप आज जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं लेकिन इनका उपयोग कहां, कब और कितना करना है, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। शिक्षा में डिजिटल उपकरणों का उपयोग जरूरी है, लेकिन कक्षाओं में इनका अनियंत्रित उपयोग एकाग्रता और सीखने की प्रक्रिया को नष्ट कर रहा है। सोशल मीडिया नोटिफिकेशन छात्रों को कक्षा से दूर ले जाती हैं और उन्हें डिजिटल दुनिया का गुलाम बना रही हैं। यह स्थिति केवल एक चेतावनी नहीं, बल्कि एक बीमारी बन चुकी है, जो छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य और शैक्षणिक प्रदर्शन को प्रभावित कर रही है। 

क्या है समाधान?

वैश्विक स्तर पर कई देशों ने स्कूलों में स्मार्टफोन पर प्रतिबंध लगाकर इस दिशा में कदम उठाया है। भारत को भी इस दिशा में तत्काल कार्रवाई करनी होगी। विशेषज्ञों का सुझाव है कि स्कूलों और उच्च शिक्षण संस्थानों में कक्षाओं के दौरान स्मार्टफोन और लैपटॉप के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए। 

 

  • राष्ट्रीय नीति का निर्माण: यूजीसी और शिक्षा मंत्रालय को एक व्यापक नीति बनानी चाहिए, जो स्कूलों और कॉलेजों में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उपयोग को नियंत्रित करे।
  • जागरूकता अभियान: छात्रों और अभिभावकों को सोशल मीडिया के नकारात्मक प्रभावों के बारे में जागरूक करना होगा।
  • वैकल्पिक शिक्षा पद्धति: कक्षाओं में इंटरैक्टिव और रचनात्मक शिक्षण पद्धतियों को बढ़ावा देना होगा ताकि छात्रों का ध्यान फोन, लैपटॉप और टैब से हटकर पढ़ाई पर केंद्रित हो। 
  • मेंटल काउंसलिंग: स्कूलों और कॉलेजों में मेंटल हेल्थ हेल्प सेंटर बनाया जाए, जहां छात्र अपनी समस्याओं को रख सकें। 


नोट: यह लेख, बेनेट यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर, डॉ. दीपक कुमार लिखा है। 
डिस्केमर: यह लेखक की निजी राय है।