सनातन धर्म में अखाड़ों का इतिहास बहुत प्राचीन है। यह अखाड़े साधु-संतों का एक संगठित परंपरा जिसमें पूजा-पाठ, तपस्या, साधना, ध्यान और धर्म का प्रचार शामिल है। महाकुंभ मेले के दौरान यह अखाड़े एक ही स्थान पर एकत्रित होते हैं और पवित्र स्नान करते हैं। वर्तमान समय में प्रमुख 13 अखाड़े हैं, जिसमें जूना अखाड़ा भारत के सबसे प्राचीन और प्रमुख अखाड़ों में से एक है।
जूना अखाड़ा हिंदू धर्म की शैव परंपरा से पालन है और इसे नागा संन्यासियों का सबसे बड़ा अखाड़ा कहा जाता है। इसकी स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा 8वीं सदी में भारतीय धर्म और संस्कृति को एकजुट करने और संन्यासी परंपरा का पुनर्गठन करने के उद्देश्य से की गई थी।
इस परंपरा का पालन करता है जूना अखाड़ा
जूना अखाड़ा की उत्पत्ति शैव परंपरा से हुई है। इस अखाड़े के इष्ट देवता भगवान शिव को हैं और उन्हीं के आदर्शों का पालन किया जाता है। बता दें कि जूना का अर्थ है 'प्राचीन,' जो इस अखाड़े की ऐतिहासिक महत्व को दर्शाता है। यह अखाड़ा विशेष रूप से नागा संन्यासियों के लिए प्रसिद्ध है, जो कठोर तपस्या और साधना में लीन रहते हैं। नागा संन्यासी अपने निर्वस्त्र रूप से, शरीर पर भस्म लपेटकर रहते हैं और अपने युद्ध कौशल के लिए जाने जाते हैं।
जूना अखाड़ा में किस तरह होता है प्रवेश
जूना अखाड़ा में नागा साधुओं का प्रवेश एक कठिन प्रक्रिया है, जिसमें साधकों को भौतिक जीवन त्यागकर आध्यात्मिक जीवन को अपनाने की दीक्षा दी जाती है। नागा साधु बनने के लिए व्यक्ति को सबसे पहले जूना अखाड़ा में दीक्षा के लिए आवेदन करना पड़ता है। यह प्रक्रिया गुरु के मार्गदर्शन में होती है, जहां साधक को अपनी भौतिक इच्छाओं और सांसारिक संबंधों से पूर्णतः विमुख होना पड़ता है।
दीक्षा लेने से पहले साधक को ब्रह्मचारी जीवन अपनाना होता है और अखाड़े के नियमों का पालन करना पड़ता है। यह चरण साधक के धैर्य, समर्पण और साधना की परीक्षा के एक रूप होता है। इससे साधक में साधना के प्रति दृढ़ निश्चय की परीक्षा ली जाती है। जब गुरु यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि साधक नागा साधु बनने के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार है, तब उसे नागा दीक्षा दी जाती है।
दीक्षा के समय विशेष यज्ञ और धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। साधक को अपना सिर मुंडवाकर और शरीर पर भस्म लगाकर अग्नि के समक्ष संकल्प लेना होता है। नागा साधु बनने से पहले साधक खुदका पिंडदान भी करते हैं, जिसे सांसारिक जीवन को त्यागने का एक प्रतीक माना जाता है। यह प्रक्रिया त्याग, तपस्या और ईश्वर के प्रति समर्पण का भी एक प्रतीक मानी जाती है। नागा साधु बनने के बाद साधक अखाड़े का हिस्सा बन जाता है और कठिन तपस्या व साधना के मार्ग पर अग्रसर होते हैं।
धर्म की रक्षा के लिए अखाड़े का हुआ था गठन
जूना अखाड़े का मुख्य उद्देश्य धर्म और संस्कृति की रक्षा करना है। प्राचीन समय में, इन अखाड़ों की भूमिका हिंदू तीर्थ स्थलों और धार्मिक आयोजनों की रक्षा करने के लिए सैनिकों की तरह काम करने की थी। समय के साथ, अखाड़ा न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक बल्कि सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय हो गया। यह अखाड़ा अपने अनुयायियों को ध्यान, योग और तपस्या के माध्यम से आत्मिक और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रदान करता है।
जूना अखाड़ा हर 12 वर्षों में आयोजित होने वाले महाकुंभ मेले और 6 वर्ष के अंतराल पर होने वाले अर्धकुंभ मेले में मुख्य आकर्षण का केंद्र होता है। नागा साधुओं की शोभायात्रा और नगर प्रवेश भी बहुत धूम-धाम से की जाती है। साथ ही महाकुंभ में सबसे पहला शाही स्नान जूना अखाड़ा ही करता है। यह निर्णय सभी अखाड़ों की सहमति से और इस अखाड़े की प्राचीनता व इतिहास को देखते हुए लिया था।
जूना अखाड़ा के वर्तमान महामंडलेश्वर
अखाड़ों का नेतृत्व महामंडलेश्वर करते हैं, जो इस अखाड़े का सबसे ऊंचा पद है। वर्तमान समय में जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी जी महाराज हैं। इनके लिए कहा जाता है कि ये अब तक एक लाख से अधिक साधकों दीक्षा दे चुके हैं।
महाकुंभ मेले के दौरान 52 परिवारों का यह अखाड़ा एक साथ आता है और इस दौरान सभापति का चुनाव किया जाता है। साथ ही आध्यात्मिक और अन्य कई विषयों पर चर्चा की जाती है। महाकुंभ के दौरान भी कई युवा सन्यासियों को दीक्षा दी जाती है और उन्हें नागा साधु बनाया जाता है।