महाकुंभ 2025 में पवित्र स्नान के लिए विभिन्न अखाड़ों का नगर प्रवेश शुरू हो गया है। इसमें सबसे पहले जूना अखाड़ा नगर-प्रवेश करता है, जिसकी गणना सबसे प्राचीन अखाड़ों में की जाती है। इन अखाड़ों के साधु-संत गाजे-बाजे के साथ नगर प्रवेश करते हैं, जो आकर्षण का केंद्र बनता है। स्थानीय नागरिक और प्रयाग में आए पर्यटक इन अखाड़ों के विषय में जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।

 

इन्हीं में से एक ‘किन्नर अखाड़ा’ है, जो कुंभ में मुख्य आकर्षण का केंद्र बनते हैं। किन्नर अखाड़ा अपने में एक विशेष इतिहास और महत्व रखता है। जिनका गठन एक खास उद्देश्य से हुआ था। किन्नर अखाड़े का गठन 2015 में हुआ था, जब महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी के नेतृत्व में इसे एक आधिकारिक अखाड़े के रूप में स्थापित किया गया। इसका उद्देश्य किन्नर समुदाय को धार्मिक और सामाजिक मंच प्रदान करना था, जो उन्हें सदियों से वंचित किया गया था।

किन्नर अखाड़े का गठन

लंबे समय से भारत में किन्नर समुदाय को समाज में अलग रखा जाता रहा है, वहीं कुछ जगहों पर इनके प्रति लोगों की हीं भावना भी देखी जाती है। साथ ही लंबे समय तक उन्हें मुख्यधारा से अलग रखा गया। आध्यातमिक क्षेत्र में भी उन्हें वह स्थान नहीं मिला जो अन्य समुदायों को बढ़-चढ़कर मिलता है।

 

ऐसे में किन्नर अखाड़े के गठन का मुख्य उद्देश्य उनके सम्मान को पुनर्स्थापित करना और उन्हें धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में एक नई पहचान देना था। यह अखाड़ा समाज को यह संदेश देता है कि किन्नर भी धर्म, अध्यात्म और समाज में उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने अन्य समुदाय।

किन्नर अखाड़े के प्रकार

वैसे तो किन्नर अखाड़ा मुख्य रूप से एक ही अखाड़ा है, लेकिन इसकी संरचना और कार्यशैली अन्य पारंपरिक अखाड़ों की तरह है। इसका मुख्य उद्देश्य किन्नर समाज को एक धर्म-संस्कृति आधारित पहचान प्रदान करना है। हालांकि, इसमें कई शाखाएं हो सकती हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों में संचालित होती हैं।

 

बता दें कि किन्नर अखाड़ा में गुरु-शिष्य परंपरा का विशेष महत्व है। इसमें गुरु को समाज की मार्गदर्शक और आध्यात्मिक नेता माना जाता है। अखाड़े की संरचना में संत, महंत, और अन्य अनुयायी शामिल होते हैं।

किन्नर अखाड़े के प्रमुख देवी-देवता

किन्नर अखाड़ा मुख्य रूप से भगवान शिव की उपासना करता है। उसपर भी भगवान शिव के अर्धनारीश्वर रूप की मुख्य रूप से उपासना की जाती है, जो इस अखाड़े का प्रतीक भी माना जाता है। भगवान शिव के अर्धनारीश्वर रूप में स्त्री और पुरुष दोनों का समावेश है, जो किन्नर समाज की पहचान से जुड़ा हुआ है।

 

इसके अलावा, किन्नर अखाड़े में माता पार्वती की भी उपासना की जाती है, जिन्हें शक्ति और मातृत्व का प्रतीक माना जाता है। माता पार्वती और भगवान शिव के साथ-साथ इस अखाड़े में भगवान विष्णु, भगवान राम और भगवान श्री कृष्ण की उपासना का भी विशेष महत्व है।

 

रामायण ग्रंथ में भी किन्नर समाज का उल्लेख उस समय हुआ है, जब भगवान राम ने 14 वर्षों का वनवास समाप्त कर अयोध्या वापसी की थी। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने किन्नरों को आशीर्वाद दिया था। इस कारण से भगवान राम भी उनकी उपासना के केंद्र में से एक हैं। वहीं महाभारत काल से भी किन्नरों का संबंध जुड़ता है, जब अर्जुन ने अज्ञातवास के दौरान  बृहन्नला का रूप धारण किया था।

अर्जुन को क्यों बनना पड़ा था किन्नर?

महाभारत कथा के अनुसार, जब दुर्योधन द्वारा रखे गए 12 वर्ष वनवास का शर्त पूरा हो गया। तब उन्हें 1 वर्ष के लिए अज्ञातवास में भी रहना था। इस दौरान, पांडवों को एक वर्ष तक अपनी पहचान छिपाकर रहना था। उनकी पहचान यदि उजागर हो जाती, तो उन्हें फिर से 12 वर्ष के वनवास भोगना पड़ता। इस अवधि में, अर्जुन ने अपना रूप बदलकर बृहन्नला, जो एक किन्नर का रूप है, धारण किया।

 

बृहन्नला के रूप में अर्जुन ने विराट नगर के राजा विराट के महल में नृत्य और संगीत सिखाने वाले गुरु का कार्य किया। इस दौरान उन्होंने राजकुमारी उत्तरा को नृत्य और संगीत का ज्ञान दिया। बृहन्नला की यह कथा का किन्नर समाज के साथ विशेष संबंध है। किन्नर समाज इसे अपने अस्तित्व और मान्यता का प्रतीक मानता है। अर्जुन के इस स्वरूप को किन्नर समुदाय में एक आदर्श और सम्मान के साथ देखा जाता है। किन्नर समाज मानता है कि बृहन्नला ने न केवल समाज में किन्नरों के स्थान को स्वीकार्यता दी, बल्कि उनकी कला, नृत्य और संगीत को भी महत्व दिया।

 

Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारी सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं। Khabargaon इसकी पुष्टि नहीं करता।