वट सावित्री व्रत हिंदू धर्म में महिलाओं के लिए एक विशेष और पुण्यकारी व्रत माना गया है। यह व्रत पति व परिवार के लंबी आयु, सुख-शांति और संतान की भलाई के लिए रखा जाता है। इस व्रत में महिलाएं बरगद (वट) के पेड़ की पूजा करती हैं और सावित्री-सत्यवान की कथा सुनती हैं। हालांकि, यह व्रत साल में दो बार मनाया जाता है- एक बार अमावस्या तिथि को और दूसरी बार पूर्णिमा तिथि को। आइए जानते हैं कि ऐसा क्यों होता है और दोनों तिथियों में क्या अंतर और क्या समानताएं हैं।
वट सावित्री व्रत (अमावस्या तिथि पर)
उत्तर भारत, विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश में यह व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या को मनाया जाता है। अमावस्या तिथि को वट वृक्ष की पूजा कर सावित्री की कथा सुनाई जाती है। इस दिन महिलाएं दिनभर निर्जला उपवास करती हैं। इसके साथ वट वृक्ष की जड़ में जल, रोली, मोली, फल और मिठाई चढ़ाई जाती है। साथ ही महिलाएं वट वृक्ष की परिक्रमा करती हैं और धागा लपेटती हैं और सावित्री द्वारा अपने पति सत्यवान को यमराज से वापस लाने की कथा का श्रवण करती हैं।
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वट पूर्णिमा व्रत (पूर्णिमा तिथि पर)
यह व्रत अधिकतर महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। नाम थोड़ा बदलकर इसे वट पूर्णिमा व्रत भी कहा जाता है। व्रत की प्रक्रिया अमावस्या वाले व्रत के समान ही होती है। इसमें भी वट वृक्ष की पूजा, कथा सुनना और परिक्रमा की जाती है। साथ ही महिलाएं नए वस्त्र और घने पहनकर अपने पति के लिए व्रत रखती हैं और लंबी उम्र की कामना करती हैं।
दोनों तिथियों में अंतर क्यों है?
दोनों व्रत की तिथियों में मुख्य अंतर पंचांग के कारण होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत में दो तरह के पंचांग प्रचलित हैं- अमांत और पूर्णिमांत। बता दें कि उत्तर भारत में पूर्णिमांत पंचांग का पालन होता है, जिसमें मास की समाप्ति पूर्णिमा से मानी जाती है। जबकि महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में अमांत पंचांग प्रचलित है, जिसमें माह का अंत अमावस्या से होता है। इसलिए, सावित्री व्रत एक ही दिन की कथा पर आधारित होने के बावजूद दो अलग-अलग तिथियों पर मनाया जाता है। अलग-अलग राज्यों की स्थानीय मान्यताएं और परंपराएं तिथि चयन में भूमिका निभाती हैं। जो परंपरा एक क्षेत्र में प्रचलित होती है, वही वहां की मुख्य तिथि बन जाती है।
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क्या हैं दोनों में समानताएं?
- दोनों तिथियों पर महिलाएं बरगद के पेड़ की पूजा करती हैं।
- पति की दीर्घायु और सुख-शांति के लिए व्रत रखा जाता है।
- सावित्री-सत्यवान की कथा का वाचन और श्रवण होता है।
- महिलाएं श्रृंगार करती हैं, व्रत में शामिल होकर धर्म, आस्था और प्रेम का प्रतीक बनती हैं।
व्रत का आध्यात्मिक महत्व
सावित्री ने जिस तरह धैर्य, साहस और श्रद्धा से अपने पति को मृत्यु के मुख से बचाया, वह नारी शक्ति का अद्भुत उदाहरण है। इस व्रत के माध्यम से महिलाओं में धार्मिक भावना, संयम और आत्मबल की वृद्धि होती है।
Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारी सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं।