प्रयागराज में कुंभ 2025 की तैयारियां जोरों पर हैं। महाकुंभ का यह आयोजन न केवल आध्यात्मिकता का प्रतीक है, बल्कि भारतीय परंपराओं और संस्कृति का भी अहम हिस्सा है। 13 जनवरी से महाकुंभ मेले का शुभारंभ होने जा रहा है। कुंभ मेले में साधु-संत और भक्तों के साथ-साथ दुनियाभर के पर्यटक जुटते हैं। साधु सबसे पहले राजसी स्नान करते हैं। कुंभ मेले में संतों की प्रतिष्ठा, परंपरा और धार्मिक महत्व को दर्शाने का यह एक औपचारिक संस्कार है।

 

यह कथा समुद्र मंथन की उस घटना से जुड़ी है जिसमें देवताओं और राक्षसों ने मिलकर अमृत प्राप्त किया था। अमृत कलश की बूंदें धरती पर गिरने की वजह से कई जगहें पवित्र हो गई थीं।महाकुंभ का यह इतिहास लगभग 850 साल पुराना माना जाता है। हर साल महाकुंभ मेला लगाया जाता है, जिसमें लाखों भक्त दूर-दूर से आते हैं और गंगा नदी में स्नान करते हैं। यह कुंभ मेला महार्षि दुर्वासा के श्राप से जुड़ा हुआ है और यह एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है, जो पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। आइए जानते हैं कि महाकुंभ मेले के पीछे क्या पौराणिक कथा है। 

 

समुद्र मंथन की कथा

समुद्र मंथन की कथा महाभारत और पुराणों में वर्णित है। इस कथा के अनुसार, देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र को मंथन किया था जिससे अमृत कलश निकला था। इस अमृत कलश को प्राप्त करने के लिए देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र को मंथन किया था। समुद्र मंथन के दौरान, कई चीजें निकलीं थीं। जिनमें से एक हलाहल विष था जो इतना जहरीला था कि उसे पीने से सारा संसार नष्ट हो सकता था।

 

कालकूट विष को भगवान शिव ने पी लिया था, मान्यता है कि इसकी वजह से उनका गला नीला पड़ गया था। इसके बाद अमृत कलश निकला था, जो देवताओं के हिस्से में आया था। जब वे इस अमृत कलश को लेकर जा रहे थे, असुरों ने उन पर हमला कर दिया था। इस हमले के चलते अमृत कलश धरती पर गिर गया था और उसका अमृत चार अलग-अलग जगहों पर गिर गया था। इन स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, जो प्रत्येक 12 वर्षों में आयोजित किया जाता है।

 

कलश की कथा

कुंभ मेले की उत्पत्ति समुद्र मंथन की कथा से जुड़ी हुई है। कलश की कथा यह है जब अमृत कलश गिर गया था, तो उसका अमृत चार अलग-अलग स्थानों पर गिर गया था। इन स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। कलश का अमृत इतना शक्तिशाली था कि वह जिस भी स्थान पर गिरता था, वहां पर एक तीर्थ स्थल का निर्माण हो जाता था। इन तीर्थ स्थलों पर लाखों श्रद्धालु आते हैं और गंगा नदी में स्नान करते हैं। यह भी कहा गया है कि जब कलश गिर गया था तो उसका अमृत एक पेड़ पर गिर गया था जिसे कल्पवृक्ष कहा जाता है। कल्पवृक्ष एक ऐसा पेड़ है जो सभी इच्छाओं को पूरा करता है।

 

महार्षि दुर्वासा का श्राप 

महार्षि दुर्वासा का श्राप कुंभ के इतिहास से गहरा जुड़ा हुआ है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, महार्षि दुर्वासा एक शक्तिशाली और गुस्से वाले ऋषि थे। लोग उनका बहुत आदर करते थे, उनके क्रोध की वजह से लोग डरते भी थे। एक बार जब वे अपने शिष्यों के साथ तीर्थ यात्रा पर निकले थे। तो उन्हें एक सुंदर और आकर्षक अप्सरा मिली जिसका नाम शची था। शची की सुंदरता से मोहित होकर महार्षि दुर्वासा ने उसे अपनी पत्नी बनाने का फैसला किया।

 

जब महार्षि दुर्वासा ने शची को अपनी पत्नी बनाने के लिए कहा, तो शची ने उन्हें एक परीक्षा में पास होने के लिए कहा। परीक्षा यह थी कि महार्षि दुर्वासा को एक अमृत कलश को लाना था। जो देवताओं के पास था। महार्षि दुर्वासा ने यह परीक्षा पास की और अमृत कलश लेकर आये लेकिन जब वह अमृत कलश शची को देने लगे, तो उन्हें पता चला कि यह एक छल था और शची वास्तव में इंद्र की पत्नी थी।

 

इस बात का पता चलते ही ऋषि क्रोधित हो गए। महार्षि दुर्वासा ने शची और इंद्र को एक श्राप दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि वे दोनों पृथ्वी पर जाकर मनुष्यों के बीच रहने के लिए मजबूर होंगे। और उन्होंने यह भी कहा कि जब वे पृथ्वी पर होंगे, तो वे अपने अमृत कलश को खो देंगे और उसे पुनः प्राप्त करने के लिए उन्हें एक हवन करना होगा। यह श्राप देने के बाद शची और इंद्र पृथ्वी पर आए और उन्होंने एक हवन किया। 

इंद्र को अपना अमृत कलश तो मिल गया। जब वह हवन कर रहे थे तो अपने कलश को सुरक्षित रखने के लिए उन्होंने उसे गंगा नदी में डाल दिया। जहां से वह कलश पृथ्वी पर गिर गया। जब यह कलश पृथ्वी पर गिरा तो अमृत कलश के चार अलग-अलग स्थानों पर गिरने के कारण, चार अलग-अलग तीर्थ स्थलों बने। जहां-जहां अमृत कलश की बूंदे गिरीं, उन जगहों पर कुंभ लगता है। यह कुंभ क्षेत्र, प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में लगता है।