तुम्हारी फ़ाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है

साहस के साथ जो विशेषण सबसे ज़्यादा और सबसे सटीक बैठता है, वह है अदम्य अर्थात् जो दबाया न जा सके, जो हर अवरोध के बाद और ज़्यादा प्रखर होकर सामने आए। हिन्दुस्तानी साहित्य में अगर इस विशेषण का कोई जीवित, साँस लेता हुआ रूप दिखाई देता है, तो वह अदम गोंडवी की कविता है।

 

उनकी रचनाएँ सिर्फ़ विरोध नहीं करतीं, वे असहमति को आवाज़ देती हैं; सिर्फ़ सवाल नहीं उठातीं बल्कि सत्ता के आरामदेह मौन को बेचैन कर देती हैं। अदम गोंडवी की शायरी किसी एक विचारधारा के दायरे में बंद होकर नहीं लिखी गई वह सीधे उस ज़मीन से उठी है जहाँ भूख, अपमान, अन्याय और उम्मीद एक साथ मौजूद रहते हैं।

घरों में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है,
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी,
ये सुबहे फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।

 

अदम गोंडवी को महज़ एक प्रोग्रेसिव कवि या शायर कह देना भारतीय साहित्य के साथ ज़्यादती होगी। उनकी ग़ज़लें सिर्फ़ नारे नहीं हैं, न ही केवल व्यवस्था-विरोधी घोषणाएँ। उनमें लोक की भाषा है, सड़क की धूल है, खेतों की दरारें हैं और शहरों की चमक के पीछे छुपी क्रूरता भी। वे उर्दू की नज़ाकत और हिन्दी की खुरदुरी सच्चाई को इस तरह मिलाते हैं कि कविता पढ़ते हुए यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि आप किसी शेर से गुज़र रहे हैं या किसी मुक़दमे की चार्जशीट से। अदम की कविता भावुक नहीं करती वह ज़िम्मेदार बनाती है।

फटे कपड़ों से तन ढांके गुज़रता हो जहां कोई 
समझ लेना वह पगडंडी "अदम" के गांव जाती है

अदम गोंडवी की कहानी

 

आज़ादी के ठीक बाद का समय था। 22 अक्टूबर 1947, उत्तर प्रदेश के गोंडा ज़िले के परसापुर इलाके का एक छोटा-सा गाँव अट्टा।  यहीं जन्म होता है रामनाथ सिंह का, जिसे दुनिया बाद में अदम गोंडवी के नाम से जानती है।  काग़ज़ों में यह आज़ाद मुल्क का पहला साल था  लेकिन ज़मीन पर आज़ादी अभी फ़ाइलों से बाहर नहीं निकली थी। खेत वही थे, भूख वही थी, जाति वही थी और ताक़त के हाथों में लाठी वही। अदम का बचपन किसी रोमांटिक ग्रामीण चित्र की तरह नहीं,  बल्कि उस देहात की तरह था जहाँ सुबह सूरज से पहले मज़दूरी जागती है और रात उम्मीद से पहले थकान सो जाती है।

 

 

वह एक साधारण किसान परिवार में पैदा हुए। ठाकुर जाति से थे इसलिए सामाजिक रूप से तो वह प्रिविलेज्ड थे लेकिन ज़िंदगी में वही मिट्टी, वही अभाव। पिता देवी काली सिंह, माँ मांडवी सिंह  इन नामों के साथ कोई सत्ता नहीं जुड़ी थी,  सिर्फ़ खेत, हल, मौसम और कर्ज़ जुड़ा था। अदम ने बहुत कम उम्र में देख लिया था कि गाँव में जाति सिर्फ़ पहचान नहीं,  फ़ैसले का औज़ार होती है कौन बोलेगा, कौन चुप रहेगा,  कौन दोषी होगा और कौन बरी।

 

आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे
एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छै चमचे रहें माइक रहे माला रहे

 

अदम की पढ़ाई ज़्यादा दूर तक नहीं गई। उन्होंने अकादमिक पढ़ाई भले प्राइमेरी तक की, मगर वह समाज को उसके अंदर जकड़े हुए विभाजन को सीधे देखकर समझते रहें। अदम ने समाजवाद विश्वविद्यालय से नहीं बल्कि खुद व्यवस्था की प्रयोगशाला में रहकर सीखा।


अदम ने अपनी बात रखने के लिए ग़ज़ल के माध्यम को चुना। वह पोएट्री फ़ॉर्म जो महबूब से बातें करने के लिए मशहूर है। ग़ज़ल जो नाज़ुक होती है, जिसके शेर आम तौर पर इश्क़, मोहब्बत और उदासी की तस्वीर बनाते हैं। अदम ने उसी ग़ज़ल को हिंदुस्तान के समाज की अनीतियों का खुरदुरापन दिया। उसे भारी-भरकम लफ़्ज़ दिए। ऐसा नहीं है कि ग़ज़ल में ऐसा करने वाले वे पहले थे। उनसे पहले दुष्यंत कुमार भी इसी तरह अपनी आवाज़ बुलंद करते आए थे। मगर अदम को उर्दू अदब ने भी हिंदी शायर कहकर स्वीकारा।

अदम गंगा जमुनी तहज़ीब को आगे रखते हुए ग़ज़ल कहते हैं-

 

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये

जुल्फ, अँगड़ाई, तबस्सुम, चाँद, आईना, गुलाब,
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन का शबाब।

 

भूख अदम गज़लों का सबसे बड़ा सच है ऐसा सच जो किसी दर्शन से नहीं, खाली पेट से पैदा होता है। अदम भूख को प्रतीक नहीं बनाते, वह उसे उसकी पूरी क्रूरता के साथ सामने रखते हैं। उनके यहाँ भूख किसी आध्यात्मिक खोज का बहाना नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का आरोपपत्र है जो आज़ादी के बाद भी लोगों को पेट भर रोटी नहीं दे पाई। शायद यही वजह है कि उनकी ग़ज़लों में भूख बार-बार लौटती है, चीखती है, सवाल करती है ठीक उसी रूप में, जिस रूप में वह हिंदुस्तान की सत्तर फ़ीसदी आबादी का रोज़मर्रा का सच रही है।

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

 

अदम गोंडवी की उपलब्धियां भी बिल्कुल उन्हीं की तरह थीं शोर से दूर, देर से आने वाली और बिना किसी चमक-दमक के। पुरस्कार उनके जीवन में बहुत बाद में आए, जैसे सूखे खेत पर अनमनी बारिश। 1998 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें दुष्यंत कुमार सम्मान दिया। 2001 में उन्हें माटी रतन सम्मान मिला, उनकी अवधी और देहाती जड़ों के लिए लेकिन अदम के लिए असली सम्मान न तो मंच था, न शॉल, न स्मृति-चिह्न। वह कवि सम्मेलनों में अक्सर कहते थे, 'मेरी ग़ज़लों पर ताली बजाने से अच्छा आशीर्वाद बस ये होगा कि आप इन्हें याद रखें।'  यही वजह थी कि वह पूरे हिंदुस्तान में कवि सम्मेलन करते रहे, बहुत कम मेहनताना लेकर और हर बार लौटकर अपने गाँव अट्टा आ जाते थे। किसान बने रहे, कविता लिखते रहे।

 

अदम अपनी गज़लों में समाज के आदर्शवादी ढांचे को निशाना बनाते है। वह उस रेखा को और साफ करते है जिसे नागार्जुन, मंतों, दुष्यंत अपनी रचनाओं में लाते हैं, अपने ही खुरदुरे अंदाज में- 

 

वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास ले कर क्‍या करें
लोकरंजन हो जहाँ शंबूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास ले कर क्‍या करें
कितना प्रगतिमान रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास ले कर क्‍या करें
बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूँठ में भी सेक्‍स का एहसास ले कर क्‍या करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्‍यार का मधुमास ले कर क्‍या करें

 

गज़लों में आम तौर यह कहा जाता है कि बात मेटामॉर्फिकलरी यानी इशारे से आनी चाहिए। अदम के यहां इसका बिल्कुल उलट रूप ग़ज़ल लेती है। जब वह सत्ता पर बात करते हैं। वह अपनी भाषा को इतना सटीक और सीधा करते हैं कि खेतों में काम करने वाले मज़दूर और विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों के लिए उसे समझना बहुत आसान हो जाता है। 

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे
ये वंदेमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे
सदन को घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
अगली योजना में घूसख़ोरी आम कर देंगे

या फिर उनके ये शेर देखिए 

काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में। 
उतरा है रामराज विधायक निवास में॥ 

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत 
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।

 

रजनीश या ‘ओशो’ जो भारत के आध्यात्मिक गुरुओं में शुमार होते रहे हैं। उनके आश्रम में ‘योग से भोग तक’के पर्दे में होने वाले व्यभिचार को अदम ने अपने कई शेरों में निशाना बनाया है। कहा जाता है अदम ‘ओशो’ का आश्रम अपनी आँखों से देखकर आए थे।

 

डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब
या 
‘प्रेमचंद’ की रचनाओं को एक सिरे से खारिज़ करके
ये ओशो के अनुयायी हैं कामसूत्र पर भाष्य लिखेंगे 
और ये 

दोस्तों अब और क्या तौहीन होगी रीश की
ब्रेसरी के हुक पे ठहरी चेतना रजनीश की

मुलायम सिंह यादव ने की मदद

 

राजनीति से उनका रिश्ता दूरी का था लेकिन ज़रूरत के वक्त कुछ हाथ आगे भी आए। बीमारी के दिनों में मुलायम सिंह यादव ने इलाज और सुविधाओं में मदद की। यह मदद किसी वैचारिक मेल से नहीं, बल्कि उस सच्चाई की स्वीकारोक्ति थी कि अदम गोंडवी एक व्यक्ति नहीं, एक आवाज़ थे और ऐसी आवाज़ें अगर बचाई जा सकती हों तो बचाई जानी चाहिए। अदम ने कभी सत्ता का गुणगान नहीं किया लेकिन सत्ता ने भी कभी उन्हें पूरी तरह अनदेखा नहीं कर पाई।

 

दिसंबर 2011 में अंत धीरे-धीरे आया। लिवर फेल होने पर 12 दिसंबर को उन्हें लखनऊ के संजय गांधी पीजीआई में भर्ती कराया गया। इलाज का इंतज़ाम दोस्तों और चाहने वालों ने मिलकर किया। कवि कुमार विश्वास ने मदद की अपील की। छह दिन तक अस्पताल के कमरे में अधूरी ग़ज़लें, टूटी साँसें और परिवार की खामोश मौजूदगी रही। 18 दिसंबर की सुबह 64 साल की उम्र में अदम गोंडवी चुपचाप चले गए बिना किसी नाटकीय विदाई के।

 

एक आख़िरी क़िस्सा रह जाता है। मौत से कुछ दिन पहले, दर्द के बीच अदम ने अपनी छोटी बेटी को पास बुलाया और कहा,  'मेरे जाने पर आदमी के लिए मत रोना, अधूरी लड़ाइयों के लिए रोना और याद रखना।'

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है...  

 

आज भी गोंडा में उनकी बरसी पर जब यह पंक्ति दोहराई जाती है, आवाज़ भर्रा जाती है ठीक वैसे ही, जैसे अदम की ग़ज़लें और शायद यह उनकी सबसे बड़ी जीत थी कि उनके जाने के बाद, उसी गाँव में जहाँ वह पैदा हुए, सरकारी स्कूल बना। जो काम व्यवस्था उनके जीते-जी नहीं कर पाई, वह उनकी विरासत के दबाव में करना पड़ा। अदम गोंडवी ने जीते-जी भी पढ़ाया और मरने के बाद भी।

 

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है संसद की भाषा देखिये
मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये।