कहानी कॉलेज टाइम रोमांस की है। 90 का दशक था। गुवाहाटी का कॉटन कॉलेज। वकालत पढ़ रहे 22 साल के लड़के से उसकी दोस्त ने पूछा, मैं अपनी मां से तुम्हारे बारे में क्या बताऊं? छात्र नेता ने कहा, 'अपनी मां से कहना मैं एक दिन असम का मुख्यमंत्री बनूंगा।' मुख्यमंत्री बनना उस लड़के की महत्वाकांक्षा थी और इसे खुलकर जाहिर करने की उसे भारी कीमत भी चुकानी पड़ी। किस्सा में इस बार हम बात करेंगे इसी लड़के की। जो छात्र राजनीति के दौर से ही चुनाव मैनेज करने का एक्सपर्ट था। जिसे तीन-तीन मुख्यमंत्रियों का सीधा संरक्षण मिला और हर कोई उसके रणनीतिक कौशल का मुरीद था। जो 15 साल तक राज्य की सत्ता में नंबर दो रहा और जब नंबर एक बनने की बारी आई तो मुख्यमंत्री ने अपना बेटा आगे कर दिया। जिसने गुवाहाटी से लेकर दिल्ली तक विधायकों की परेड करा दी और बताया कि यह सरकार उसने बनाई है लेकिन पार्टी में नंबर दो की हैसियत रखने वाले नेता ने वीटो लगा दिया और कहा, तो क्या? 

 

इंतजार पार्टी बदलने पर भी खत्म नहीं हुआ। अगले पांच साल फिर से नंबर दो की ही कुर्सी आई लेकिन जब वह आया तो अपनी ही नहीं अगल-बगल की 6-7 राज्यों की राजनीति बदल कर रख दी। उस पर सांप्रदायिक राजनीति के आरोप हैं। भ्रष्टाचार के भी आरोप हैं। आरोप एक नेता की हत्या और प्रतिबंधित संगठन उल्फा के लिए वसूली के भी लगे लेकिन कभी साबित न हो पाए। 

 

असम। पूर्वोत्तर में भारत का सबसे बड़ा राज्य। आजादी के बाद से ही घुसपैठ और अवैध प्रवास से जूझ रहा है। बंटवारे के समय पूर्वी पाकिस्तान से लाखों बंगाली शरणार्थी असम में घुसे। ये शरणार्थी चाय बागान, जंगल, बंजर जमीन पर बसते गए। और स्थायी होते गए। और इससे स्थानीय असमिया लोगों को अपनी भाषा, रोजगार, जमीन पर कब्जे का खतरा महसूस हुआ। 1960 में असमिया को राजकीय भाषा बनाने का कानून बना तो बंगाली इलाकों में बवाल शुरू हो गया, दंगे हुए। यहीं से असम के नौजवानों के मन में सवाल उठा,  'क्या असम के लोग अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक हो जाएंगे?'

 

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असम आंदोलन और जोरदार हंगामा

 

फिर आया 1971, बांग्लादेश बना। फिर से लाखों की संख्या में शरणार्थी असम आ गए। युद्ध खत्म हुआ पर ज्यादातर लोग वापस नहीं गए। अचानक से कई जिलों में बांग्ला भाषियों की संख्या बढ़ गई। 1979 में मंगलदोई लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए। वोटर लिस्ट आई तो बवाल शुरू हो गया। करीब 45,000 से ज़्यादा अवैध प्रवासियों के नाम वोटर लिस्ट में दर्ज थे। यहीं से बाहरियों को असम से निकालने के लिए आंदोलन की शुरुआत हुई। नारा था, 'जेकर जति, तेकर मत' (जिसकी जमीन, उसी का वोट) और 'बिदेशी खेदा' (विदेशियों को भगाओ)।

 

 

ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन AASU और अखिल असम गण संग्राम परिषद (AAGSP) के नेतृत्व में शुरू हुआ यह आंदोलन शुरुआत में अहिंसक था। बाद में यह हिंसक हो गया। आंदोलन का नेतृत्व प्रफुल्ल कुमार महंत और भृगु फुकन जैसे छात्र नेता कर रहे थे। इन्हें पूरे असम के अलग-अलग कॉलेजों के छात्र संघों का समर्थन था। ये वे लड़के थे जो अभी कॉलेज में पढ़ रहे थे लेकिन रातों-रात पूरे असम के हीरो बन गए। 1979 से 1985, छह साल तक असम में अस्थिरता रही। बंद, धरना-प्रदर्शन से लेकर रेल रोको आंदोलन और तेल कुंओं पर हमले तक हुए। पुलिस की गोलियों से 850 से ज्यादा छात्र नेताओं की जान गई। फरवरी 1983 में हुए नेल्ली और खोइराबारी नरसंहारों में 2,000 से ज़्यादा लोग मारे गए। जिसके बाद 1985 में असम अकॉर्ड हुआ।

 

15 अगस्त 1985 को राजीव गांधी ने भृगु फुकन, प्रफुल्ल महंत और बिराज सरमा जैसे छात्र नेताओं के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए। आंदोलन रुका। AASU के नेताओं ने असम गण परिषद नाम से पार्टी बनाई और चुनावी राजनीति में उतर गए। 1985 में हुए चुनावों में AGP ने 67 सीटें जीतकर कमाल कर दिया। छात्रों ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। कॉटन कॉलेज के छात्र नेता रहे प्रफुल्ल महंत असम के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने और भृगु फुकन गृहमंत्री। यह वह दौर था जब असम की राजनीति पूरी तरह से छात्र नेताओं के हाथ में थी और 70 के दशक से ही कॉटन कॉलेज स्टूडेंट यूनियन की AASU यूनिट को सबसे ताकतवर और प्रतिष्ठित यूनिट माना जाता था। 

 

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कॉटन कॉलेज की राजनीति और हिमंता की शुरुआत

 

कॉटन कॉलेज, पूर्वोत्तर का सबसे पुराना हायर एजुकेशनल इंस्टीट्यूट है। गुवाहाटी शहर के बीचों-बीच बसे इस पुराने-से कैंपस को बाहर से देखो तो लगता है जैसे ब्रिटिश काल में बने किसी किले का अवशेष हो लेकिन अंदर घुसो तो पेड़ों की छांव, लाल ईंटों की इमारतें और हवा है, जो किताबों और राजनीति की खुशबू से भरी है। यह केवल डिग्री देने वाला संस्थान नहीं है बल्कि असम की राजनीति की नर्सरी है। इसे क्रांति का अड्डा और सपनों का लॉन्च-पैड भी कह सकते हैं। कॉटन कॉलेज का असम की राजनीति में कितना दखल है, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अब तक असम के जो 15 मुख्यमंत्री हुए हैं उसमें से 7 इसी एक कॉलेज के छात्र रहे हैं।

 

1901 में बना कॉटन कॉलेज, असम को राज्य बनाने से लेकर बांग्ला प्रवासियों के खिलाफ शुरू हुए छात्र आंदोलन का केंद्र रहा है। कॉटन कॉलेज ने जो चेहरे दिए, उनको देखकर लगता है कि असम की राजनीति का आधा इतिहास तो इसी कॉलेज के रजिस्टर में बंद है। बाहरियों को भगाने के लिए 'बिदेशी खेदा' (विदेशियों को खदेड़ो) अभियान की शुरुआत हुई तो इसी कॉटन कॉलेज के हॉस्टल, आंदोलन के हेडक्वार्टर बने। 

 

बात 1987 की है। यह DS हॉस्टल का रुम नंबर 20 था। DS का मतलब है डबल स्टोरी हॉस्टल। कॉलेज में कुल 9 हॉस्टल थे। 7 लड़कों के लिए और दो CG यानी कॉटन गर्ल्स के लिए।  DS हॉस्टल के एक कमरे में चार छात्रों के लिए चार बेड लगते थे लेकिन छात्रसंघ चुनाव नजदीक आया तो रूम नंबर 20 में रहने वाले दो सीनियर लड़कों ने अपने बेड्स जोड़ दिए ताकि एक खास मेहमान के कमरे में रुकने की व्यवस्था की जा सके।

 

19 साल का यह खास मेहमान चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा था। हॉस्टल के गलियारों से लेकर चाय की दुकानों तक की चर्चाओं का हिस्सा हुआ करता था। एक तेज तर्रार लड़का जो दबंग था और भाषण देने में फायरब्रांड था। चुनाव से पहले अक्सर डीएस हॉस्टल के रूम नंबर 20 में रुकता था ताकि हॉस्टल के इनमेट्स को अपने साथ जोड़कर रख सके। यह लड़का क्लास खत्म होने के बाद घर लौटने की बजाय हॉस्टल में रहने वाले छात्रों के साथ घूमना शुरू कर देता था क्योंकि उसे पता था कि अगर कॉलेज की राजनीति में अपना बेस मजबूत करना है तो सबसे पहले हॉस्टल में रहने वाले स्टूडेंट्स के बीच अपनी पैठ मजबूत रखनी होगी। जल्द ही डीएस हॉस्टल का कमरा नंबर 20 छात्रसंघ चुनाव के हाई वोल्टेज वॉर रूम में तब्दील हो गया क्योंकि 'खास मेहमान' छात्रसंघ के सबसे प्रभावशाली पद महासचिव के लिए अपनी दावेदारी पेश कर रहा था। राज्य में सबसे ताकतवर संगठन माने जाने वाले AASU से। कॉटन कॉलेज का महासचिव बनना पूरे राज्य में छात्र नेतृत्व और बाद में मुख्यधारा की राजनीति के लिए सबसे बड़ा लॉन्चपैड माना जाता था और इस चुनाव को जीतने के लिए यह महत्वाकांक्षी  'खास मेहमान' कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता था।  

 

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वो जब भी भाषण देता तो हॉल के हर कोने में अपने लोगों को बिठाता। ताकि तालियों और नारों की गूंज हर कोने से आए। ये पहले से तय रहता था कि कौन जिंदाबाद के नारे लगाएगा।  और किस समय लगाएगा, ये भी पहले से तय किया जाता था। ये भी तय किया गया कि जब प्रतिद्वंदी उम्मीदवार प्रचार करने आएगा तो उससे कोई सवाल नहीं पूछेगा। क्योंकि अगर उसने कुछ ऐसा जवाब  दे दिया जो दो-चार स्टूडेंट्स को अच्छा लग गया तो हॉस्टल से आने वाले वोटों की संख्या कम हो सकती है। एक भी वोट कम ना हो, हॉस्टल के सारे वोट एक ही जगह पड़े इसके लिए खास मेहमान ने पूरे इंतजाम किए थे। उस समय हॉस्टल्स की एकजुटता ही सबसे बड़ी ताकत हुआ करती थी। 
ऐसे छात्रों की भी लिस्ट बनाई गई जिन्हें मुगलई पराठा और रसगुल्ला पसंद था। उन्हें गुवाहाटी के पान बाजार में कल्याणी रेस्टोरेंट में बारी-बारी से बुलाया जाता।

 

नतीजे आए तो रूम नंबर 20 का यह खास मेहमान और खास बन गया। हॉस्टल में 'हिमंता दा' के नाम से लोकप्रिय यह युवा अब कॉटन कॉलेज छात्रसंघ का महासचिव था। पूरा नाम हिमंता बिस्वा सरमा।

 

इकॉनमिक टाइम्स के सीनियर एडिटर शांतनु नंदन शर्मा लिखते हैं, 'असम के मुख्यमंत्री और पूर्वोत्तर में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाने वाले इस रणनीतिकार की राजनीति के आपको ढेर सारे विश्लेषण मिल जाएंगे लेकिन 19 साल की उम्र में छात्रसंघ चुनाव जीतने के लिए की गई यह माइक्रो लेवल की प्लानिंग बताती है कि शुरू से ही हिमंता बिस्वा सरमा अपनी महत्वाकांक्षाओं को लेकर कितना गंभीर थे।' शांतनु नंदन शर्मा खुद इसके गवाह रहे हैं क्योंकि वह भी 1987 के चुनाव के दौरान रूम नंबर 20 में रहते थे। पिछले दो दशक से असम और पूर्वोत्तर की राजनीति में एक धुरी की तरह स्थापित हिमंता कई चुनाव जीत चुके हैं। दूसरों को जिता भी चुके हैं लेकिन 1987 के उस छात्रसंघ चुनाव को वह अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा इलेक्शन कैम्पेन बताते हैं।

छात्र से नेता तक का सफर

 

1992 तक वह तीन बार कॉटन कॉलेज के महासचिव चुने गए। कॉटन कॉलेज का महासचिव बनने के बाद हिमंता बिस्वा सरमा प्रफुल्ल महंत और भृगु फुकन जैसे नेताओं के और करीब आए। महंत और फुकन के साथ हिमंता का जुड़ाव नया नहीं था। महज 10 साल की उम्र से ही हिमंता इन दोनों नेताओं के साथ देखे जाने लगे थे और इसी उम्र में उनकी राजनीतिक यात्रा भी शुरू हो गई थी। असम छात्र आंदोलन में उन्हें वंडर बॉय कहा जाता। इन दोनों नेताओँ को हिमंता बिस्वा सरमा का शुरुआती राजनीतिक गुरु कहा जाता है। AASU के आंदोलन के दौरान हिमंता ने दोनों नेताओं के सहयोगी के तौर पर काम किया। जोशीले भाषण दिए। हालांकि, वह कभी असम गण परिषद में शामिल नहीं हुए। अपनी राजनीतिक को आगे बढ़ाने के लिए हिमंता ने कांग्रेस का दामन थामा और अपना गुरु बनाया तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया को। सैकिया भी, हिमंता और प्रफुल्ल महंत की तरह कॉटन कॉलेज के ही छात्र रहे थे।

 

1991 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हितेश्वर सैकिया को एक ऐसे युवा नेता की तलाश थी जो असम आंदोलन के दौरान कांग्रेस से दूर हुए युवाओं को पार्टी से वापस जोड़ सके और उनकी खोज खत्म हुई हिमंता पर। सैकिया ने एक ऐसे युवा पर दांव लगाया था जो महत्वाकांक्षी था और खुलकर मुसीबत लेने को तैयार था।  1994 में हिमंता को छात्र और युवा कल्याण सलाहकार समिति का सदस्य बनाया गया। 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें भृगु फुकन के मुकाबले जालकुबारी से उतार दिया। हिमंता, पहला चुनाव हार गए लेकिन यह पहली और आखिरी हार थी। चुनाव में हार के बाद हिमंता, प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव से मिलने गए। नरसिम्हा राव ने उन्हें एक सलाह दी। हारे हुए उम्मीदवार को अपना क्षेत्र नहीं छोड़ना चाहिए।

 

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हिमंता ने इसे पूरी गंभीरता से लिया। हारने के बावजूद जालकुबारी विधानसभा में सक्रिय रहे।  2001 में कांग्रेस ने उन्हें फिर से गुवाहाटी की जालकुबारी सीट से टिकट दिया। इस बार हिमंता ने अपने गुरु और दिग्गज नेता भृगु फुकन को हराकर उलटफेर कर दिया। इस तरह वह पहली बार विधानसभा पहुंचे और जलकुबारी सीट उनका स्थायी ठिकाना बन गई। 2001 से 2021 तक लगातार पांच बार हिमंता जालकुबारी सीट से विधायक चुने जा चुके हैं और मार्जिन लगातार बढ़ता ही जा रहा है। पहला चुनाव 10 हजार वोटों से जीतने वाले हिमंता, 2021 में एक लाख 1 हजार वोटों से जीते। इसी सीट से उन्होंने विधायक से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक की यात्रा की लेकिन यह यात्रा आसान नहीं थी।  

गोगोई के सबसे खास

 

1996 में हितेश्वर सैकिया का निधन हो गया लेकिन कांग्रेस को हिमंता पर लगाए उनके दांव से असल फायदा तब हुआ जब 2001 में कांग्रेस की सरकार बनी। तरुण गोगोई मुख्यमंत्री बने और पहली बार के विधायक हिमंता बिस्वा सरमा को लाल बत्ती मिली। तरुण गोगोई अगले 15 सालों तक राज्य की सत्ता पर काबिज रहे और हिमंता साल-दर-साल तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते रहे।  गोगोई सरकार में उन्होंने वित्त, स्वास्थ्य, शिक्षा, जैसे अहम विभागों को संभाला और मुख्यमंत्री के सबसे खास मंत्री बन गए।

 

ULFA से निपटने, सर्व शिक्षा अभियान मिशन को लागू करने, हेल्थ सेक्टर के विकास और दूसरे डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स के लिए वह गोगोई के सबसे भरोसेमंद आदमी थे। वह गोगोई सरकार के लिए संकटमोचक और प्रबंधक की भूमिका में भी थे। हिमंता अपने विधानसभा क्षेत्र में तो सक्रिय रहते ही थे साथ ही सरकार में सक्रिय रहते थे। यहां तक कि पार्टी के संगठन में भी उनका पूरा दखल रहता था। 2006 के विधानसभा चुनाव में उनकी रणनीतियों की तारीफ हुई। 2011 में भी उन्होंने कांग्रेस के चुनाव अभियान का प्रबंधन किया और पार्टी को 126 में से 78 सीटें जीतने में मदद की।

 

उन्हें मुख्यमंत्री के पीछे की असल ताकत के तौर पर देखा जाता था। तरुण गोगोई ही नहीं, पूर्व मुख्यमंत्रियों हितेश्वर सैकिया और प्रफुल्ल महंत भी हिमंता के इस रणनीतिक कौशल को पहचानते थे। तीनों ही मुख्यमंत्रियों के साथ काम करते हुए हिमंता ने खुद को उस पद के लिए तैयार किया जो वह शुरू से चाहते थे। असम के मुख्यमंत्री का पद और यहीं से टकराव भी शुरू हुआ। वह खुद को तरुण गोगोई की सरकार में नंबर दो की तरह पेश करने लगे। 2011 में सत्ता में वापसी के बाद टकराव खुलकर सामने आ गया। सरमा को मुख्यमंत्री पद मिलने की उम्मीद थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिर भी हिमंता ने इस भरोसे के साथ उम्मीद नहीं छोड़ी कि गोगोई के बाद वही उत्तराधिकारी हैं लेकिन जब तरुण गोगोई ने अपने बेटे गौरव गोगोई को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर पेश करना शुरू किया तब यह टकराव, बगावत में बदल गया।

हिमंता की बगावत

 

2011 में हुए विधानसभा चुनावों की जिम्मेदारी हिमंता के कंधों पर थी। नतीजे पक्ष में आए तो उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी मिलने की उम्मीद थी लेकिन तरुण गोगोई एक बार फिर असम के मुख्यमंत्री बने। बाद में हिमंता ने कहा कि यह सफलता, गोगोई के सिर चढ़ गई थी। उन्होंने अपने बेटे को आगे बढ़ाना शुरु कर दिया। तरुण गोगोई के बेटे गौरव विदेश से पढ़ाई कर लौटे थे। 2011 में वह चुनाव प्रचार में शामिल हुए। 2012 में औपचारिक तौर पर कांग्रेस में शामिल हुए। धीरे-धीरे सीनियर गोगोई ने अपने बेटे को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया। यह हिमंता की महत्वाकांक्षाओं को सीधी चुनौती थी। 

 

हिमंता ने दिल्ली में अर्जी लगाई। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिले। सोनिया गांधी ने उनकी बात सुनी। सोनिया गांधी और अहमद पटेल, नेतृत्व परिवर्तन के पक्ष में थे। यानी असम की सत्ता, हिमंता को देने के पक्ष में थे लेकिन पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी को यह मंजूर नहीं था।। 2013-14 के बीच, हिमंता ने सोनिया और राहुल के साथ कई बार बैठकें की। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली आए। मोदी लहर का असर असम में भी हुआ। जहां कांग्रेस को 14 में से महज तीन सीटों पर जीत मिली। इसके बाद हुए नगर निगम चुनावों में भी कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। हिमंता ने हाईकमान को संदेश दिया कि गोगोई अपनी पकड़ खो रहे हैं।

 

अपनी किताब '2019: How Modi won India' में एक घटना का वर्णन करते हुए वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई लिखते हैं, '2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार ने हिमंता बिस्वा सरमा के लिए तीन बार मुख्यमंत्री रहे तरुण गोगोई को चुनौती देने का अवसर दे दिया।'

 

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राजदीप सरदेसाई ने हिमंत बिस्वा सरमा के उस बयान को कोट किया जो उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व के सामने दिया था, 'अगर आप असम में अगला चुनाव जीतना चाहते हैं तो आपको कांग्रेस में पीढ़ीगत परिवर्तन लाना होगा।' उन्हें पूरा विश्वास था कि पार्टी उनके पक्ष में सत्ता परिवर्तन के लिए सहमत हो जाएगी लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो जुलाई 2014 में हिमंता 38 विधायकों के साथ राजभवन गए और मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। हिमंता ने खुलकर गोगोई के नेतृत्व का विरोध किया और कहा, 'मुझे तरुण गोगोई के नेतृत्व पर कोई भरोसा नहीं है। हम अपनी पार्टी के लिए लड़ रहे हैं और गोगोई के नेतृत्व में 2016 में कांग्रेस की सीटें घटकर सिंगल डिजिट पर आ जाएंगी।'

राहुल की जिद ने बिगाड़ा खेल?

 

हिमंता ने स्पष्ट किया कि वह सरकार नहीं गिराना चाहते। वह पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की अवहेलना नहीं करना चाहते। यह हिमंता की चेतावनी थी। उन्होंने पार्टी पर दबाव बनाने का प्रयास किया। हिमंता वह सबकुछ कर रहे थे जो उनके और मुख्यमंत्री की कुर्सी की दूरी कम कर सकता था। तरुण गोगोई को हटाने के लिए सहमत 53 विधायकों का हस्ताक्षर लेकर दिल्ली पहुंच गए। शीर्ष नेतृत्व ने मामला सुलझाने के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे को पर्यवेक्षक बनाकर असम भेजा। वहां से भी रिपोर्ट हिमंता के ही पक्ष में आई लेकिन राहुल गांधी, तरुण गोगोई के पक्ष में डटे रहे।

 

राहुल गांधी ने हिमंता के प्रमोशन पर ब्रेक लगा दी थी लेकिन संकट गहराता जा रहा था। अगस्त 2015 में तत्कालीन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नई दिल्ली स्थित आवास पर एक आपात बैठक बुलाई गई।  इसमें हिमंता, तरुण गोगोई और असम के प्रभारी पार्टी महासचिव सीपी जोशी शामिल हुए। हिमंता ने बाद में बताया कि मीटिंग के दौरान राहुल, गंभीर नहीं थे। वह मुद्दे को सुलझाने की बजाय अपने पालतू कुत्ते के साथ खेलने में ज्यादा इंटरेस्टेड थे। जब सरमा ने बताया कि 2011 में असम में कांग्रेस की जीत के लिए कैंडिडेट सेलेक्शन से लेकर ज्यादातर चुनावी रैलियों तक, उन्होंने ही कड़ी मेहनत की थी, तो राहुल ने कंधे उचका दिए और कहा- तो क्या?

2017 में जब राहुल गांधी ने अपने कुत्ते 'पिद्दी' का एक छोटा सा वीडियो शेयर किया तो हिमंता ने उसे रीपोस्ट किया और लिखा, 'सर राहुल गांधी, उसे मुझसे बेहतर कौन जानता है। मुझे आज भी याद है कि जब हम असम के ज़रूरी मुद्दों पर बात करना चाहते थे, तब आप उसे बिस्कुट खिलाने में व्यस्त थे।'

 

हिमंता ने उस वाकये को अपना अपमान माना और कांग्रेस पार्टी छोड़ दी लेकिन वह एक घायल सिपाही की तरह राहुल गांधी और कांग्रेस से बदला लेना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया। हिमंता बीजेपी महासचिव राम माधव से मिले, माधव ने उनकी मुलाकात अमित शाह से करवाई और इस तरह हिमंता की बीजेपी में एंट्री हुई। 2015 में कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद हिमंता ने सोनिया गांधी को एक चिट्ठी लिखी और कहा, 'कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है। जब मैंने केंद्रीय पर्यवेक्षकों के सामने राहुल गांधी से विनम्रतापूर्वक कहा था कि 79 में से 52 विधायक स्पष्ट रूप से तरुण गोगोई को हटाने की मांग कर रहे हैं तो उन्होंने इतने अहंकार से जवाब दिया कि मुख्यमंत्री बदलना उनका विशेषाधिकार है।'

 

हालांकि, हिमंता की बीजेपी में एंट्री भी इतनी आसान न थी। जो व्यक्ति इतने सालों से बीजेपी के निशाने पर था, जिस पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को पार्टी चुनावी मुद्दा बना रही थी, वह उन्हीं के पाले में खड़ा होता दिख रहा था, वह भी तब जब सत्ता में आने के आसार बन रहे थे। असम बीजेपी के नेताओं को यह बात पता थी कि हिमंता का आना उनके अवसर को चुनौती है ऐसे में विरोध शुरू हुआ।

 

जुलाई 2015 की बात है। असम बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सिद्धार्थ भट्टाचार्य के साथ हिमंता दिल्ली गए। बीजेपी में शामिल होने के लिए लेकिन एक दिन पहले ही यह खबर लीक हो गई। पूर्वोत्तर में बीजेपी के दो बड़े नेताओं सर्बानंद सोनोवाल और किरेन रिजिजू ने दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की। आरोप लगाया कि कांग्रेस के नेता और गोगोई सरकार में मंत्री रहे हिमंता बिस्वा सरमा का नाम लुई बर्जर घोटाले में एक प्रमुख संदिग्ध के तौर पर सामने आया है। अमेरिकी फर्म ने अमेरिका की एक अदालत में स्वीकार किया था कि उसने परियोजनाएं हासिल करने के लिए दुनिया भर के अधिकारियों और राजनेताओं को रिश्वत दी थी। इसने 2010 में गोवा और असम में जल विकास परियोजनाओं के लिए भारतीय अधिकारियों को रिश्वत दी थी, जब हिमंता बिस्वा सरमा राज्य में संबंधित मंत्रालय का नेतृत्व कर रहे थे।

 

यह असम बीजेपी नेताओं की हिमंता को रोकने की आखिरी कोशिश थी लेकिन शीर्ष नेतृत्व किसी भी तरह से प्रतिद्वंद्वी को तोड़ना चाहता था। अमित शाह राजी थे। हिमंता ने आरोपों को खारिज किया। उस वक्त तो हिमंता की बीजेपी में एंट्री टल गई लेकिन एक महीने बाद 21 अगस्त 2015 को हिमंता औपचारिक तौर पर बीजेपी में शामिल हो गए। 2016 में विधानसभा के चुनाव हुए। अभूतपूर्व जनादेश के साथ बीजेपी ने पहली बार असम में सरकार बनाई। हिमंता का एक लक्ष्य पूरा हुआ। तरुण गोगोई को सत्ता से बेदखल करने का लेकिन अभी उनके हिस्से का इंतजार खत्म नहीं हुआ था। इसके लिए हिमंता को पांच साल और इंतज़ार करना था।  

22 साल पहले का वादा पूरा हुआ

 

9 मई 2021 को हिमंता घर आए और अपनी पत्नी रिनकी भुइयां सरमा से बस इतना कहा, 'चीफ मिनिस्टर डेजिगनेट।' रिनिकी ने हिमंता की ओर देखा और पूछा, कौन? हिमंता बिस्वा सरमा ने जवाब दिया, 'मैं', 10 मई 2021 को बरसों की प्रतीक्षा पूर्ण हुई। करीब 3 दशक पहले की बात है। 22 साल के हिमंता, कॉटन कॉलेज की छात्र राजनीति में सक्रिय थे। यहीं उनकी मुलाकात 17 साल की रिनिकी भुइयां से हुई। रिनिकी ने पूछा कि वह अपनी मां से उनके बारे में क्या बताएं। हिमंता ने कहा, 'अपनी मां से कहना मैं एक दिन असम का मुख्यमंत्री बनूंगा।' यह वाकया रिनिकी ने उस दिन सुनाया, जिस दिन हिमंता ने असम के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। 

कॉटन कॉलेज का ध्येय वाक्य है, अप्रमत्तेन वेद्धव्यं। यानी 'सावधानीपूर्वक, एकाग्र चित्त होकर अपने लक्ष्य को भेदना चाहिए।' 

 

हिमंता ने इस सूक्ति को अपने जीवन में उतार लिया था। हिमंता अपने लक्ष्य को लेकर पूरी तरह स्पष्ट थे। उन्हें असम का मुख्यमंत्री बनना था। इसमें कोई किंतु परंतु नहीं था। पहली बार विधायक बनने के बाद हिमंता ने रिनिकी से शादी की लेकिन असम का मुख्यमंत्री बनने के लिए हिमंता के हिस्से लंबा इंतजार लिखा था। 

 

2015 में हिमंता कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए, बीजेपी सत्ता में आई और सर्बानंद सोनोवाल मुख्यमंत्री बने। हिमंता बिस्वा सरमा, कैबिनेट में उनके सहयोगी बने। वह नए थे इसलिए उन्हें तुरंत मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया गया, बल्कि कांग्रेस के दिनों की उनकी पुरानी ज़िम्मेदारी, यानी नंबर दो पर ही रखा गया। इसके लिए कांग्रेस नेताओं ने हिमंता पर निशाना भी साधा। कि जिस चीज के लिए उन्होंने इस्तीफा दिया, वह उन्हें मिला नहीं। हालांकि, हिमंता ने हिम्मत नहीं हारी। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, 'मैं तरुण गोगोई की सरकार में भी नंबर दो था। जब कोई संकट आता था वह मुझे काम सौंपते थे लेकिन जब कोई आधिकारिक समारोह होता था तो मुझे कभी मंच पर नहीं बुलाया जाता था। बीजेपी में ऐसा नहीं है। यहां मुझे सम्मान मिलता है।'

पार्टी बदलकर बदल डाली किस्मत

 

बीजेपी ने 2016 में सोनोवाल को असम का मुख्यमंत्री भले ही बनाया हो लेकिन सरकार की बागडोर सरमा के हाथों में थी। उन्होंने असम सरकार में वित्त, शिक्षा, योजना एवं विकास, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण जैसे प्रमुख विभागों का कार्यभार संभाला। कोविड-19 के दौरान, सरमा ही सरकारी प्रचार का चेहरा बने। इसके अलावा उन्होंने अमित शाह के साथ समन्वय बनाकर काम करना शुरू किया और न केवल अमित शाह, बल्कि आरएसएस का भी भरोसा जीता। हिमंता बिस्वा सरमा ने पूर्वोत्तर में बीजेपी और संघ को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। उनके नेतृत्व में बीजेपी ने पूर्वोत्तर में अपनी जड़ें फैलाईं और सरमा को पूर्वोत्तर लोकतांत्रिक गठबंधन (NEDA) का संयोजक बनाया गया। पहली बार ऐसा हुआ कि पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में NDA की सरकार बनी और इसका क्रेडिट हिमंता के ही हिस्से आया। 

 

असम के मुख्यमंत्री भले ही सर्बानंद सोनोवाल थे लेकिन हिमंता बिस्वा सरमा असम सरकार का चेहरा बनकर उभरे। सरमा को अमित शाह का पूरा समर्थन था। उन्होंने आरएसएस में महत्वपूर्ण लोगों को खुश करने के लिए भी हर संभव प्रयास किया। पूरे राज्य में CAA विरोधी भावना होने के बावजूद बीजेपी सरकार बचाने में सफल रही। 2021 में NDA ने लगातार दूसरी बार सरकार बनाई। इसका भी क्रेडिट हिमंता को गया। अब मुख्यमंत्री चुनने का समय था। हिमंता की महत्वाकांक्षा स्पष्ट थी लेकिन बीजेपी के पास सर्बानंद सोनोवाल के रूप में  साफ-सुथरी छवि का एक युवा मुख्यमंत्री था। जिसे हटाने का कोई कारण नहीं था।

 

2021 में चुनाव के नतीजे आने के बाद भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री घोषित करने में एक हफ्ते का समय लिया। बाहरियों के खिलाफ राजनीति से करियर की शुरुआत करने वाले हिमंता और मुख्यमंत्री की कुर्सी के बीच सबसे बड़ी रुकावट उनका बाहरी होना था। एक बाधा यह भी थी कि सोनोवाल को हटाने का कोई गंभीर कारण नहीं था लेकिन सरमा ने स्पष्ट कर दिया कि वह फिर से नंबर दो की भूमिका नहीं निभाने वाले। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि केंद्र में कैबिनेट मंत्री का पद उनके लिए कोई सांत्वना पुरस्कार नहीं था। दरअसल, सांत्वना पुरस्कारों से उनका मन भर गया था। अब समय आ गया था कि उन्हें उनका हक दिया जाए और ऐसा ही हुआ भी। 10 मई 2021 को बरसों की प्रतीक्षा पूरी हुई। गुवाहाटी के श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र में हिमंता बिस्वा सरमा ने असम के 15वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली।  


टाइमिंग, अवसरवादिता और सत्ता से करीबी

 

अपनी महत्वाकांक्षा को खुलकर जाहिर करने में बिल्कुल संकोच न करने वाले हिमंता को राजनीतिक अवसरवादी के तौर पर देखा जाता है। यह चाहे उनकी पसंद रही हो या मजबूरी,  वह हमेशा ‘पावर’ के करीब रहे। फिर चाहे मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंत रहे हों, हितेश्वर सैकिया हों या फिर तरुण गोगोई और बाद में सर्बानंद सोनोवाल।  वह असम के छात्र आंदोलन से तब जुड़े जब राज्य में यह आंदोलन अपने चरम पर था और वह तेजी से तरक्की की सीढ़ियां चढ़े। उन्होंने AASU के शीर्ष नेतृत्व के साथ काम किया। उन्हें गुवाहाटी शहर में रैलियों में बुलाया जाने लगा। फिर उन पर रंगदारी वसूलने, गैरकानूनी तरीके से हथियार रखने और हत्या तक के आरोप लगे। प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन उल्फा से संबंध होने और उसके लिए वसूली करने के आरोप भी लगे और टाडा के तहत केस भी दर्ज हुआ। 

 

2010 में किसान नेता और RTI ऐक्टिविस्ट अखिल गोगोई ने दावा किया कि हिमंता को 1991 में उल्फा से कथित संबंधों के लिए गिरफ्तार किया गया था। अखिल गोगोई ने दावा किया था कि उन्हें दो केस डायरियां मिली हैं जो गुवाहाटी के चांदमारी और पान बाजार थाने में दर्ज मुकदमों की हैं। ये उल्फा के लिए जबरन वसूली और कांग्रेस नेता मानबेंद्र शर्मा की हत्या से जुड़ी थीं। आरोप है कि दोनों मामलों में हिमंता का नाम आरोपी के तौर पर दर्ज था। साथ ही कॉटन कॉलेज के एक हॉस्टल की रसोई से बरामद रिवॉल्वर और कारतूस का मामला भी था। ये मामले सामने आए तो AASU ने हिमंता से पल्ला झाड़ लिया और दूरी बना ली। हिमंता को पता था कि इन मामलों से निपटने के लिए क्या करना है।

 

जब उनका नाम उल्फा से जुड़ा और टाडा का मुकदमा दर्ज हुआ तो उन्होंने मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया से संपर्क साधा। मुख्यमंत्री का साथ मिलने के बाद हिमंता का न केवल पॉलिटिकल ग्राफ बढ़ा बल्कि उनके खिलाफ दर्ज मामलों की केस डायरी आश्चर्यजनक तरीके से गायब हो गई। 2010 में जब अखिल गोगोई, केस डायरी लेकर आए तो तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री हिमंता ने खुद को पाक साफ बताया। कहा कि कोर्ट ने उन्हें इन मामलों में बरी कर दिया है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि उन पर केस डायरी गायब करवाने के आरोप लगते हैं लेकिन अब जब ये सामने आ ही गई है तो इससे यह साफ होता है कि इसमें उनका कोई हाथ नहीं। 

 

उस वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने हिमंता का बचाव किया था। साथ ही उनके खिलाफ राजनीतिक साजिश की बात कही थी। इतना ही नहीं गोगोई ने लुइस बर्गर और शारदा चिटफंड मामले में भी हिमंता का बचाव किया। जब भ्रष्टाचार के मामलों में हिमंता आरोपी बने लेकिन जब ये आरोप भारी पड़ने लगे और बीजेपी उन पर हमलावर होने लगी तो 1991 की ही तरह हिमंता ने पार्टी बदलने में ही भलाई समझी। एक बार फिर से वह सत्ता के साथ हो लिए। एक बार फिर से उनके खिलाफ चल रही जांचों की गति कुंद पड़ गई। 


हिंदू हृदय सम्राट 

 

मुख्यमंत्री बनने के बाद हिमंता का तेजी से उभार हुआ। हिंदूवादी नेता के तौर पर। उनके बयान, कामकाज के तरीकों में इसकी छाप खुलकर दिखने लगी। कहा जाने लगा कि हिंदुत्व की पिच पर खुलकर बैटिंग कर रहे हिमंता ने जन्मजात भाजपाइयों को भी पीछे छोड़ दिया है। हिमंता, हिंदुत्व के नए पोस्टर बॉय बनकर उभरे हैं। जो कभी कांग्रेस के ताकतवर मंत्री नेता हुआ करते थे।

 

कांग्रेस में रहते उन्होंने बीजेपी-आरएसएस पर सांप्रदायिक राजनीति का आरोप लगाया। टेलीग्राफ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान तेजपुर में हिमंता ने नरेंद्र मोदी पर ऐसी टिप्पणी की थी कि उन्हें चुनाव आयोग ने नोटिस जारी कर दिया था। मोदी, बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे। हिमंता ने उन्हें आतंकवादी बताया था और कहा था कि गुजरात के नलों में पानी की जगह खून बहता है। बीजेपी ने इस बयान के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई और चुनाव आयोग ने हिमंता को नोटिस जारी किया।

 

हालांकि 2015 में बीजेपी जॉइन करने के बाद हिमंता के नए टारगेट बने राहुल गांधी। उन्होंने राहुल पर जमकर हमले किए। आलोचकों ने कहा कि वह यह कड़ी मेहनत अपने शीर्ष नेतृत्व को हर संभव तरीके से यह विश्वास दिलाने के लिए कर रहे थे कि अब वह पूरी तरह से भाजपाई हैं।  2014 से पहले तक संघ का खुलकर विरोध करने वाले हिमंता मुख्यमंत्री बनने के बाद सबसे पहले गुवाहाटी में संघ कार्यालय गए। 

 

मुख्यमंत्री सरमा के ज्यादातर बयान मंदिरों, मुसलमानों, मौलवियों और मदरसों के बारे में होते हैं। वह असम विधानसभा में विवादास्पद असम निरसन विधेयक और असम अनिवार्य मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण विधेयक 2024 लेकर आए। विपक्ष ने इसे अल्पसंख्यक समुदाय की धार्मिक आजादी पर हमला बताया और इसे लेकर विधानसभा में हिमंता और विपक्षी नेताओं के बीच बहस भी हुई। हिमंता ने कहा कि हम तुम्हें असम पर कब्जा नहीं करने देंगे। इससे पहले भी हिमंता ने दावा किया था कि 2041 तक असम मुस्लिम बहुल राज्य बन जाएगा। 

मुस्लिम विरोधी हो गए हिमंता?

 

2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान एक रैली में हिमंता ने कहा कि कांग्रेस को वोट देने का मतलब है बाबर-औरंगजेब को बढ़ावा देना। बीजेपी जॉइन करने के बाद से ही हिमंता ने हिंदुत्व की राह पकड़ ली थी। मुस्लिम आबादी को लेकर लगातार बयान आते रहे। चाइल्ड मैरेज और CAA और NRC जैसे मुद्दों पर हिमंता के निशाने पर हमेशा मुस्लिम आबादी रही और यह उनके बयानों में खुलकर दिखाई देती है। चाहे वह विधानसभा हो या फिर चुनावी रैली। 

 

2011 की जनगणना के मुताबिक़ असम में करीब 35 फीसदी मुसलमान हैं और यह मुसलमानों की दूसरी सबसे घनी आबादी वाला राज्य है। हिमंता बिस्वा सरमा यह आरोप लगाते हैं कि असम में बड़े पैमाने पर अवैध रूप से बांग्लादेश से मुसलमान आकर बसे हैं। जिन्हें वापस जाना होगा। हिमंता खुलकर कहते हैं कि उन्हें बंगाली मूल के मुसलमानों से वोटों की ज़रूरत नहीं है क्योंकि ये असमिया संस्कृति और असमिया भाषा को विकृत करना चाहते हैं। हिमंता इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने असम में बाढ़ के लिए मेघालय की USTM यूनिवर्सिटी को जिम्मेदार बताया और इसे बाढ़ जिहाद का नाम दिया। इस प्राइवेट यूनिवर्सिटी के मालिक का नाम महबूबल हक़ है।

 

इसी तरह से सब्जी की बढ़ती कीमतों के लिए उन्होंने सब्जी जिहाद और खाद जिहाद का भी जिक्र किया था। बंगाली-मुस्लिम किसानों पर खाद जिहाद का आरोप लगाते हुए हिमंता ने कहा था कि सब्जियां उगाने में खाद के अनियंत्रित उपयोग के कारण लोगों में बीमारियां फैल रही हैं। इससे पहले हिमंता लव जिहाद, ऑनलाइन जिहाद और जमीन जिहाद जैसी चीजों का भी जिक्र कर चुके हैं। बयानों से इतर, हिमंता ने कई सारे ऐसे फैसले भी लिए जो खूब सुर्खियों में रहे। जैसे- असम विधानसभा में जुमे की नमाज के लिए मिलने वाले ब्रेक को खत्म करना, स्वदेशी मुसलमानों का आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण, शादी, विवाह और तलाक का रजिस्ट्रेशन आदि। हिमंता सरकार ने 1200 मदरसों को बंद कर सरकारी स्कूल में बदलने का फैसला किया जिस पर काफी बवाल हुआ। 
 
2021 में मुख्यमंत्री बनने के बाद हिमंता ने बेदखली अभियान शुरू किया। जुलाई 2025 में हिमंता ने दावा किया कि राज्य की 10 लाख एकड़ जमीन पर अवैध बांग्लादेशियों और संदिग्ध व्यक्तियों ने अवैध कब्जा कर रखा है। उन्होंने एक-एक इंच जमीन खाली कराने का वादा करते हुए कहा कि पिछले चार साल में करीब 25 हजार एकड़ जमीन अवैध अतिक्रमण से मुक्त कराई जा चुकी है। हालांकि, विपक्षी दलों ने सरकार पर अतिक्रमण विरोधी उपायों के बहाने एक समुदाय को निशाना बनाने का आरोप लगाया है। ममता बनर्जी ने इसे बांग्ला लोगों के खिलाफ विभाजनकारी एजेंडा बताया जबकि कांग्रेस ने जमीन से बेदखल किए गए लोगों के लिए मुआवजे की मांग की। 

 

कांग्रेस पार्टी, हिमंता पर यह भी आरोप लगाती है कि वह सांप्रदायिक राजनीति कर बीजेपी के शीर्ष नेताओं के कृपा पात्र बने रहना चाहते हैं। अपने खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को छिपाने और अपना नंबर बढ़ाने के लिए वह इस तरह की राजनीति कर रहे हैं। हालांकि, हिमंता इसे असमिया और हिंदू संस्कृति को बचाने के लिए किया जा रहा प्रयास बताते हैं।

विवादों का दूसरा नाम

 

हिमंता और विवाद, एक दूसरे के पर्यायवाची लगते हैं। उन पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप हैं। छात्र राजनीति के दौरान आर्म्स ऐक्ट से लेकर हत्या और उल्फा के लिए उगाही करने के आरोप लगे। हॉस्टल की रसोई से हथियार बरामद हुए और टाडा के तहत मुकदमे दर्ज हुए। 

 

साल 2015 के लुई बर्गर घोटाले में उनका नाम सामने आया, जहां असम सरकार के वॉटर प्रोजेक्ट्स में उन पर कमीशन लेने का आरोप लगा। BJP ने खुद इस मामले को प्रमुखता से उठाया था। इसके अलावा साल 2013 के सारदा चिट फंड घोटाले में भी हिमंता पर भ्रष्टाचार के संगीन इल्ज़ाम लगे। मामले की जांच को लेकर CBI की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए। इन सब मामलों में हिमंता बीजेपी नेताओं के निशाने पर थे लेकिन पार्टी बदलने के बाद जांच ठंडे बस्ते में चली गई। कांग्रेस अक्सर इसे बीजेपी की वॉशिंग मशीन का कमाल बताते हुए उस पर हमला करती है। 

 

साल 2022 में एक RTI के ज़रिए हिमंता और उनके परिवार पर घोटाले के नए इल्ज़ाम सामने आए। इन दावों के ज़रिए AAP की ओर से COVID PPE किट की ख़रीद को लेकर हिमंता की पत्नी रिनिकी भुइयां सरमा और उनके बेटे की कंपनी को फ़ायदा पहुंचाने का आरोप लगाया गया। इस दौरान हिमंत बिस्व सरमा राज्य के स्वास्थ्य मंत्री थे। रिनिकी भुइयां ने इन आरोपों को निराधार बताया। 

 

इसी तरह कांग्रेस ने साल 2021 में हिमंता और उनके परिवार पर एक और बड़ा आरोप लगाया। हिमंता पर साल 2006 से 2009 के दौरान असम की कांग्रेस सरकार में मंत्री पद पर रहते हुए बेघर लोगों को आवंटित की जाने वाली 18 एकड़ सरकारी ज़मीन को RBS Realtors को देने का इल्ज़ाम लगाया गया। हिमंता की पत्नी रिनिकी भुइयां की सह-स्वामित्व वाली इस कंपनी को सीधे तौर पर फ़ायदा मिलने की बात कही गई।

 

हिमंता की पत्नी रिनिकी भुइयां बिजनस वुमन और सोशल एक्टिविस्ट हैं। वह नॉर्थ ईस्ट के सबसे बड़े मीडिया हाउस, प्राइड ईस्ट एंटरटेनमेंट की फाउंडर और मैनेजिंग डायरेक्टर हैं। इसमें नॉर्थ ईस्ट के दो सबसे बड़े न्यूज चैनल, एक न्यूज पेपर और एंटरटेनमेंट चैनल शामिल हैं। 

शीर्ष को चुनौती 

 

भारत की राजनीति में जो रिश्ता हिमंता बिस्वा सरमा और राहुल गांधी के बीच रहा है वह बहुत ही कम देखने को मिलता है। राहुल ने हिमंता को कभी स्वीकार नहीं किया। असम का सबसे प्रभावशाली नेता होने और गुवाहाटी से लेकर दिल्ली तक हाईकमान के सामने यह साबित करने के बाद भी उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं मिली। हिमंता ने इसे गंभीरता से लिया और असम ही नहीं पूरे पूर्वोत्तर में कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया। 

 

यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में असम के लगभग हर दौरे में राहुल गांधी ने हिमंता पर सीधा हमला बोला है। इसी साल 16 जुलाई 2025 को राहुल गांधी ने साफ कहा कि उनका लक्ष्य एक आदमी को असम की सत्ता से बेदखल करने का है और इसमें तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई उनके कमांडर की भूमिका में हैं। वही गौरव गोगोई, जो सालों से अपनी बारी का इंतजार कर रहे हिमंता के सामने आए और देखते ही देखते अपने पिता के संरक्षण में असम कांग्रेस का चेहरा बन गए। 

राहुल और सरमा के बीच की अदावत, एक निजी टकराव का नतीजा है जिसने पूर्वोत्तर की पॉलिटिक्स को बुनियादी तौर पर बदल दिया है। एक ऐसा बदलाव जिसकी शुरुआत बिस्कुट की एक प्लेट और पिडी नाम के एक कुत्ते से हुई थी। जो समय के साथ गहरी और अशिष्ट होती गई। 2022 की शुरुआत में राहुल गांधी द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगने के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए हिमंता ने कहा, 'क्या हमने आपसे कभी यह सबूत माँगा कि आप राजीव गाँधी के बेटे हैं या नहीं? आपको मेरी सेना से सबूत मांगने का क्या अधिकार है?'

 

जनवरी 2024 में भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान राहुल ने हिमंता को  'भारत का सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री' कहा और आरोप लगाया कि उनके परिवार का हर सदस्य, बच्चे, पत्नी और वह खुद भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। राहुल ने लोगों से कहा कि खुद को राजा समझने वाला आपका मुख्यमंत्री कुछ समय बाद जेल में होगा। हिमंता ने इसकी कड़ी निंदा की और इसे बेहद अनुचित बताया और कहा, 'राहुल गांधी कभी मुझसे डरते थे। अब वह मेरे बच्चों से डरते हैं।'

 

 

 

 

हिमंता ने कहा, 'राहुल गांधी केवल धमकी देने के लिए इतनी दूर चले आए हैं और यह भूल गए हैं कि वह खुद कई आपराधिक मामलों में जमानत पर बाहर हैं।' राहुल गांधी और हिमंता बिस्वा सरमा दोनों अपने प्रतिद्वंद्वियों को पहचानते हैं। दोनों को अपना लक्ष्य पता है और वे किसी भी कीमत पर एक-दूसरे से हिसाब बराबर करना चाहते हैं। इंडिया टुडे के लिए वरिष्ठ पत्रकार कौशिक डेका एक दूसरे के रिश्तों की व्याख्या करते हुए लिखते हैं, 'यह झगड़ा एक नए दौर में पहुंच गया है। राहुल भले ही एक राष्ट्रीय हस्ती हों और भारत के सबसे प्रसिद्ध राजनीतिक परिवार के वंशज हों, जबकि हेमंता एक दूर-दराज के राज्य के 'मात्र' मुख्यमंत्री हैं लेकिन अपनी आपसी मुठभेड़ में, वे एक-दूसरे में एक प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को पहचानते नज़र आते हैं। उदासीन बॉस और असंतुष्ट मातहत, एक-दूसरे को मात देने के लिए दृढ़संकल्पित, जुझारू प्रतिद्वंद्वियों में बदल गए हैं।'

 

हिमंता बिस्वा सरमा, उन नेताओं में से हैं जो किसी भी परिस्थिति को अपने पक्ष में करने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाने से नहीं चूकते। उनके बारे में कहा जाता है कि जितनी पकड़ उनकी अपनी वर्तमान पार्टी बीजेपी में है उतनी ही पकड़ अभी भी पुरानी पार्टी कांग्रेस में भी है। अपने असम दौरे के दौरान राहुल गांधी बंद कमरे की मीटिंग में क्या बात कर रहे हैं, यह उन तक पहले ही पहुंच जाती है। एक बार तो हिमंता ने ट्वीट भी कर दिया कि बैठक में क्या बात हुई है। 

हिमंता बिस्वा सरमा, जोड़तोड़ की राजनीति में माहिर खिलाड़ी हैं। जब वह कांग्रेस में थे तभी उन्होंने पार्टियों को तोड़ने, सरकारों को गिराने,  दलबदलुओं को अपने पक्ष में करने और स्थापित प्रतिद्वंद्वियों को ध्वस्त करने की कला सीखी थी। जिसका इस्तेमाल भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें पार्टी में शामिल कराने के बाद पूर्वोत्तर में किया। उन्होंने अधिकांश पूर्वोत्तर राज्यों से बीजेपी-विरोधी और कांग्रेस की अगुवाई या सहयोग वाली सरकारों को उखाड़ फेंका। त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल और नागालैंड में उन्होंने पार्टी का विस्तार किया और सरकार भी बनाई। 

 

ओडिशा में, उन्होंने कार्यकर्ताओं को संगठित किया और "जय जगन्नाथ!" के नारे के साथ हिंदू कार्ड का भरपूर इस्तेमाल किया। 2024 में उन्हें बीजेपी ने झारखंड चुनाव का सह प्रभारी बनाया। हिमंता ने झारखंड में अवैध प्रवासियों के घुसपैठ को मुद्दा बनाया। 

 

हालांकि, उन्हें झारखंड में सफलता नहीं मिली लेकिन फिर भी हिमंता को पार्टी का समर्थन जारी रहा। चुनावी सभाओं में उनकी जबरदस्त डिमांड रहती है। कई मौकों पर वह योगी आदित्यनाथ और देवेंद्र फडणवीस जैसे बीजेपी की दूसरी पंक्ति के नेताओं को टक्कर देते नजर आते हैं। राहुल गांधी पर सरमा के हमलों से बीजेपी समर्थक उत्साहित होते हैं और यह कहते हैं कि कभी चुनौती विहीन रहे गांधी परिवार को एक स्व-निर्मित क्षेत्रीय नेता के सामने झुकाया जा सकता है और वोह नेता कोई और नहीं वह हैं हेमंता बिस्वा सरमा।