एक तरफ अरावली को बचाने के लिए गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली में प्रदर्शन हो रहे हैं, दूसरी तरफ झारखंड सरकार का एक फैसला चर्चा में है। हेमंत सोरेन की अगुवाई वाली हेमंत सोरेन सरकार की कैबिनेट ने अनुसूचित क्षेत्रों के लिए बने पंचायत विस्तार अधिनियम (PESA) के तहत बने कानून के नियमों को मंजूरी दे दी है। पेसा अधिनियम 24 दिसंबर 2024 को लागू हुए थे। हेमंत सोरेन सरकार ने इसकी नई नियमावलियों को अब झारखंड के लिए मंजूरी दे दी है।
कैबिनेट सचिव वंदना डाडेल ने दावा किया है कि यह नियम पेसा कानून के सभी महत्वपूर्ण प्रावधानों को शामिल करते हैं। पेसा कानून 1996 में पूरे देश में लागू हुआ था, जो आदिवासी बहुल अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को विशेष अधिकार देता है। साल 2000 में झारखंड में बिहार से अलग होकर नया राज्य बना था, लेकिन यह अधिनियम पूरी तरह से लागू नहीं हुआ था।
नए नियम बनने से यह कानून राज्य में प्रभावी हो सकेगा। पंचायती राज विभाग के सचिव मनोज कुमार ने बताया कि झारखंड के 24 जिलों में से 13 जिले पूरी तरह और 2 जिले आंशिक रूप से पांचवीं अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्र में आते हैं। इस कानून के तहत ग्राम सभाओं को अब ज्यादा ताकत मिलेगी।
यह भी पढ़ें: 'पैसा ही चाहिए तो...', PM मोदी का नाम लेकर नोट उड़ाने वाले कार्तिकेय कौन हैं?
कानून में अब खास क्या है?
- खनन या बड़े प्रोजेक्ट के लिए ग्राम सभा की सहमति जरूरी होगी
- भूमि अधिग्रहण में ग्राम सभा की भूमिका होगी
- लघु वन उपज, जैसे महुआ, तेंदू पत्ता पर गांव वालों का अधिकार मजबूत होगा
- गांव में साहूकारी और ऊंची ब्याज पर कर्ज देने पर रोक लगेगी
- जल संसाधनों और स्थानीय संसाधनों के प्रबंधन का अधिकार ग्राम सभा को मिलेगा
- आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम सभाएं ज्यादा सशक्त होंगी
- स्थानीय लोगों के अधिकार ज्यादा मजबूत होंगे
PESA कानून क्या है?
झारखंड हाई कोर्ट के अधिवक्ता सुधांशु बिरंची ने PESA पर कहा, 'PESA कानून साल 1996 में बना केंद्र का कानून है। यह संविधान की पांचवीं अनुसूची वाले इलाकों में आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करता है। झारखंड जैसे खनिज से समृद्ध राज्यों की लिए यह जरूरी है। अब जमीन अधिग्रहण, वन उत्पादों और ग्रामीणों की सुरक्षा के लिए जरूरी था।'
PESA लाया क्यों गया था?
एडवोकेट सुधांशु बिरंची ने कहा, 'भारत में जनजातीय आबादी कुल जनसंख्या का लगभग 8.6 फीसदी है। संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत 10 राज्य, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और तेलंगाना में अनुसूचित क्षेत्र घोषित हैं। करीब 77,564 गांवों को शामिल किया गया है।'
73वें संवैधानिक संशोधन (1993) ने पंचायती राज संस्थाओं को शक्तियां दीं लेकिन अनुसूचित क्षेत्रों पर यह स्वतः लागू नहीं हुआ। इस कमी को दूर करने के लिए 1996 में PESA अधिनियम लागू किया गया, जिसने जनजातीय क्षेत्रों में ग्राम सभाओं को विशेष शक्तियां दीं। झारखंड सरकार ने अब इसे लागू करने का फैसला किया था। इस अधिनियम की मूल भावना में भूमि, जल, जंगल, लघु खनिज और सांस्कृतिक परंपराओं का नियंत्रण करना है। आठ राज्यों ने PESA नियम बना लिए हैं, जबकि ओडिशा और झारखंड में अभी इसमें सुधार की गुंजाइश है।
यह भी पढ़ें: अरावली कटने से बच जाएगी, दिल्ली के 'फेफड़े' बचाने वाले कानून कौन से हैं?

अब नई कवायद क्यों शुरू हुई है?
एडवोकेट सुधांशु बिरंची ने कहा, 'पंचायत (एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरियाज) एक्ट 1996 में बन तो गया था लेकिन इसे लागू करने में राज्य सरकारें हिचकती रहीं। इसका मकसद आदिवासी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को अपनी जमीन, जंगल और संसाधनों पर अधिकार देना था। उन्हें सेल्फ-गवर्नेंस का अधिकार प्रदान करना है। यह कानून ग्राम सभा को सबसे ताकतवर संस्था बनाता है। आदिवासी खुद अपने गांव के फैसले ले सकें और बाहर के लोग उनकी जमीन या जंगल आसानी से न छीन सकें।'
जमीन पर हकीकत बहुत अलग है। ज्यादातर राज्य सरकारों ने अपने पंचायती राज कानूनों में PESA के प्रावधानों को कमजोर कर दिया है। ग्राम सभा को अधिकार देने की बजाय ग्राम पंचायत को ज्यादा ताकत दी गई है। खनन और उद्योगों के लिए आदिवासी जमीन आसानी से ली जा रही है। ग्राम सभा से राय तक नहीं ली जाती।
यह भी पढ़ें: अरावली सफारी प्रोजेक्ट: बुनियादी बातें जिनसे अनजान हैं हम और आप
एडवोकेट सुधांशु बिरंची ने कहा, 'ब्यूरोक्रेट्स और कंपनियां 'पैसा' सोचती हैं, PESA नहीं। आदिवासियों में इसे लेकर गुस्सा रहा है। कई इलाकों में नक्सलवाद की एक वजह यह भी रहा है। निष्कर्ष यह है कि PESA कानून कागज पर बहुत अच्छा है और अगर इसे पूरी तरह लागू किया जाए तो आदिवासी खुद अपना विकास कर सकते हैं। उनकी गरीबी दूर हो सकती है।'
एडवोकेट सुधांशु बिरंची ने कहा, 'सरकारों की उदासीनता और कॉर्पोरेट हितों की वजह से यह कानून कागज पर तो रहा लेकिन सही मायने में लागू ही नहीं हो पाया। अगर यह पूरी तरह से लागू हो जाए तो गांव में आदिवासियों के अधिकार बच जाएंगे। ग्राम स्वराज की अवधारणा को मजबूती मिलेगी।'
