फरवरी 2005 का बिहार विधानसभा चुनाव राज्य की राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ लेकर आया। इस चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), जो कि पंद्रह वर्षों तक सत्ता पर काबिज रही थी, इस बार सत्ता से बाहर हो गई थी, जबकि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और जेडीयू का गठबंधन सबसे बड़े समूह के रूप में उभरा, परंतु वह भी बहुमत से कुछ सीटें पीछे रह गया। कुल मिलाकर विधानसभा की 243 सीटों में से कोई भी दल या गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था। परिणामस्वरूप बिहार में त्रिशंकु विधानसभा बनी।

 

राज्यपाल बूटा सिंह ने किसी भी पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित नहीं किया। चूंकि इस चुनाव में एलजेपी के पास 29 सीटें आ गई थीं और एलजेपी ने किसी के भी साथ जाने से मना कर दिया था, इसलिए आरजेडी के लिए सरकार बना पाना मुश्किल था। हालांकि, एनडीए (जेडीयू और बीजेपी) को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित नहीं किया। एनडीए का कहना था कि उनके पास 115 विधायकों का समर्थन है, लेकिन उन्हें बहुमत सिद्ध करने के लिए नहीं बुलाया गया और विधानसभा भंग कर दी गई। उनका कहना था कि विधानसभा भंग न करने पर विधायकों की खरीद फरोख्त हो सकती है।

 

प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए बूटा सिंह द्वारा भेजी गई रिपोर्ट को लेकर बूटा सिंह की काफी आलोचना भी हुई और इस फैसले को असंवैधानिक करार दिया गया। अब राजनीतिक जोड़तोड़ और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ। बीजेपी-जेडीयू गठबंधन ने कांग्रेस और निर्दलीयों पर दबाव डालने के आरोप लगाए, वहीं आरजेडी पर भी ‘सत्ता में वापसी के लिए खरीद-फरोख्त’ की कोशिशों के आरोप लगे।

 

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आरजेडी के खिलाफ असंतोष

इस बीच, जनता के बीच आरजेडी शासन के खिलाफ असंतोष गहराता गया। कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार और पिछड़ेपन जैसे मुद्दे फिर से चर्चा में आए। नीतीश कुमार और बीजेपी ने ‘सुशासन’ और ‘विकास’ को मुख्य एजेंडा बनाते हुए जनसंपर्क बढ़ाया और अगले विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लग गए।

 

हालांकि,  अक्टूबर 2005 में बिहार विधानसभा के चुनाव राज्य की राजनीतिक दिशा बदलने वाले निर्णायक चुनाव साबित हुए। इससे कुछ महीने पहले फरवरी 2005 में खंडित जनादेश आया था, जिसमें कोई सरकार नहीं बन सकी थी और राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था। फरवरी के चुनाव में ही दिखने लगा था कि जनता आरजेडी को हटाना चाहती है लेकिन उस बार वैसा हो नहीं सका था। इधर नीतीश कुमार के नेतृत्व में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने सुशासन, विकास और सामाजिक समावेश का मुद्दा और मजूबती से उठाया, जिससे लोग उनकी तरफ और ज्यादा आकर्षित हुए।

चार चरणों में संपन्न हुआ चुनाव

अक्टूबर-नवंबर 2005 का यह चुनाव चार चरणों में संपन्न हुआ। इस बार जेडीयू ने 139 सीटों पर चुनाव लड़ा और 88 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी। भाजपा ने 102 सीटों पर चुनाव लड़कर 55 सीटें जीतीं। RJD की सीट घटकर 175 में से केवल 54 रह गई, जबकि कांग्रेस सिर्फ 9 सीटों पर ही सीमित रह गई। लोक जनशक्ति पार्टी, जो फरवरी में किंगमेकर थी, अब सिर्फ 10 सीटों तक सिमट गई थी। मतदान प्रतिशत लगभग 46% रहा और महिला प्रत्याशियों की जीत की संख्या फरवरी की तुलना में काफी बढ़ गई थी।

 

इस चुनाव में वोट प्रतिशत में भी बदलाव देखने को मिला—RJD का वोट शेयर घटकर 23.45% रह गया, जबकि जेडीयू का बढ़कर 20.46% हो गया। एनडीए गठबंधन को साफ बहुमत मिला और पहली बार नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस चुनाव के नतीजों से जाहिर हो चुका था कि बिहार की जनता एक लालू राज से तंग आ चुकी थी और एक बड़ा बदलाव चाहती थी। लोगों ने नीतीश के सुशासन के नारे पर भरोसा जताया था। अब आने वाले सालों में बारी नीतीश कुमार की थी कि वह अपने वादों पर कितना खरे उतरने वाले थे।

 

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अक्टूबर 2005ः किसने कितनीं सीटें जीतीं

पार्टी  जीती हुई सीटें
जनता दल (यूनाइटेड) – जेडीयू 88
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) 55
राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) 54
लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) 10
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (कांग्रेस) 9
सीपीआई 3
सीपीएम 1
झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) 2
निर्दलीय 4
अन्य 17

 

एनडीए (जेडीयू + बीजेपी) कुल: 143 सीटें
नतीजा: जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने।

क्या बदलाव हुआ?

चुनाव आरजेडी जेडीयू बीजेपी एलजेपी कांग्रेस निर्दलीय एनडीए कुल
फरवही 2005 75 55 37 29 10 17 92
अक्टूबर 2005 54 88 55 10 9 4