logo

ट्रेंडिंग:

कर्पूरी ठाकुर और मोरारजी देसाई के झगड़े में कैसे डूब गई जनता पार्टी?

कांग्रेस के विरोध में बनी जनता पार्टी का पतन उसके नेताओं के आपसी टकराव की वजह से ही हो गया। जो पार्टी बनना चाह रही थी, उसके बिखराव की कहानी पढ़िए।

karpuri thakur and morarki desai story

कर्पूरी ठाकुर और मोरारजी देसाई के विवाद की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

तारीख 3 नवंबर 1978। पटना का गांधी मैदान। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई एक सभा को संबोधित कर रहे थे। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में ही जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी के खिलाफ एंटी इमरजेंसी लहर में कांग्रेस को बड़े अंतर से हराया था। जब मोरारजी देसाई सभा को संबोधित कर रहे थे, उस वक्त वहां बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर भी बैठे थे। मोरारजी देसाई ने अपने भाषण में जातिगत आरक्षण की आलोचना करते हुए कहा कि अगर इसका आधार आर्थिक हो तो ज़्यादा बेहतर होगा। कर्पूरी ठाकुर मोरारजी देसाई के इस कथन से बहुत असहज हो गए क्योंकि जनता पार्टी ने अपने चुनावी मेनिफेस्टो में कहा था कि अगर वह सरकार में आती है तो बिहार में मुंगेरीलाल कमीशन और केंद्र में काका कालेलकर कमीशन की सिफारिशों को लागू करेगी। मगर प्रधानमंत्री का भाषण उसके ठीक उलट दिखा। इसके बाद कर्पूरी ठाकुर ने इस भाषण पर मोरारजी देसाई से कोई बातचीत नहीं की। शाम में वह पटना एयरपोर्ट पर मोरारजी देसाई को छोड़ने गए और उसी रात प्रदेश में मुंगेरी लाल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर दिया। मगध साम्राज्य की इस किस्त में कहानी कर्पूरी ठाकुर के आरक्षण मॉडल की। कहानी उस एक ईगो क्लैश की जिसके चक्कर में जनता पार्टी ने सबसे पहले राज्य में मुख्यमंत्री और उसके तीन महीने बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी गंवाई।


पिछली किस्त में हमने आपको बताया था कि कर्पूरी ठाकुर ने किस तरह से दसवीं बोर्ड की परीक्षा में अंग्रेजी को अनिवार्य ना करके हर तबके के लिए उच्च शिक्षा की राह आसान की थी। आगे वह चाहते थे कि बिहार के शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में निचले तबकों के लिए कुछ सीटें भी आरक्षित हों। उनके नेता डॉ राम मनोहर लोहिया ने 60 के दशक में एक नारा भी दिया था, 'संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ'। मगर सबसे दिलचस्प यह था कि डॉ. लोहिया खुद पिछड़े नहीं थे। वह मारवाड़ी बनिया थे, जो सवर्णों में आते थे। डॉ. लोहिया का मानना था कि भारत में एक सच्चा समाजवादी आंदोलन राजनीतिक और आर्थिक क्रांति से आगे बढ़कर, देश में गहराई से अपनी जड़ें जमा चुकी जाति असमानता का सक्रिय रूप से मुकाबला करके होगा। कर्पूरी ठाकुर डॉ लोहिया के सबसे प्रिय शिष्यों में से एक थे। बतौर मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर पिछड़ी जातियों पर केंद्रित मुंगेरी लाल कमीशन, ढिबार कमीशन और काका कालेलकर कमीशन की सिफारिशों को हमेशा लागू करने के पक्ष में थे लेकिन कर्पूरी के लिए यह कर पाना आसान नहीं था। 

 

यह भी पढ़ें- खूब बदले CM, जमकर हुई हिंसा, 1975 से 1990 के बिहार की कहानी


कई दलों के समर्थन से मुख्यमंत्री बने कर्पूरी

 

1969 के मध्यावधि चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का प्रदर्शन पिछले चुनाव की तुलना में बहुत खराब रहा था लेकिन कर्पूरी ठाकुर अपनी सीट जीतने में कामयाब रहे। बतौर उपमुख्यमंत्री, वह मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा से ज्यादा चर्चित थे। इस चुनाव में उन्होंने ताजपुर से कांग्रेस नेता राजेंद्र महतो को चुनाव हराया था। 22 दिसंबर 1970 को कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। कर्पूरी ठाकुर को कांग्रेस (O), जनता पार्टी, भारतीय क्रांति दल, सोशित समाज दल, हुल झारखंड पार्टी, स्वतंत्रता पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, लोकतांत्रिक कांग्रेस के अलावा कुछ निर्दलीय विधायकों का भी समर्थन मिला। सरकार तो बन गई थी लेकिन यह गठबंधन काफी नाजुक था। इसमें कई छोटे-छोटे दलों का स्टेक था। कर्पूरी ठाकुर की यह सरकार 6 महीने भी नहीं टिक पाई। यह सरकार जब बनी थी, तभी कयास लगा लिए गए थे कि यह एक अस्थिर सरकार होगी और दलों का कॉन्फ़्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट इसे जल्द ही गिरा देगा। 

 

कांग्रेस (O) के नेता भोला पासवान शास्त्री 1968 और 1969, दो बार मुख्यमंत्री बन चुके थे और इस बार बहुत बेमन से उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को अपना समर्थन दिया था। जैसे ही सरकार बनी उसके बाद से भोला पासवान शास्त्री ने फिर से मुख्यमंत्री बनने के लिए अपना दिमाग लगाना शुरू कर दिया। 2 जून 1971 को कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ सदन में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वह बहुमत सिद्ध कर पाने में नाकाम रहे और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद कांग्रेस (O) ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले कांग्रेस से हाथ मिला लिया और भोला पासवान शास्त्री 3 सालों में तीसरी बार मुख्यमंत्री बन गए।

 

 

भोला पासवान शास्त्री के मुख्यमंत्री रहते मुंगेरी लाल कमीशन गठित किया गया ताकि हर तबके की भागीदारी को और अच्छे से सुनिश्चित किया जाए और उन्हें मुख्यधारा में लाया जाए। कांग्रेसी नेता मुंगेरी लाल को इसकी ज़िम्मेदारी दी गई। वह एक स्वतंत्रता सेनानी थे और सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान जेल भी गए थे। मुंगेरी लाल महात्मा गांधी और राजेंद्र प्रसाद के काफी करीबी थे। कांग्रेस के टिकट पर वह एक बार विधायक और तीन बार एमएलसी भी बने थे। मुंगेरी लाल कमीशन का उद्देश्य बिहार में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों की पहचान करना था। 

 

यह भी पढ़ें- अंग्रेजी पर सियासत और बिहार के 'कर्पूरी डिवीजन' की कहानी क्या है?

 

इसके अलावा बिहार में गहरी जड़ें जमा चुकी जातिगत असमानता को कम करने और पिछड़े वर्गों, विशेष रूप से अति पिछड़ा वर्ग (EBC) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के उत्थान के लिए नीतिगत ढांचा तैयार करना इस कमीशन का मुख्य उद्देश्य था। तब तक बिहार में ओबीसी और पिछड़ी जाति की राजनीति का दौर आ चुका था। चाहे सरकार किसी की भी रहे, कमीशन अपना स्टडी करती रही। इमरजेंसी के दौरान फरवरी 1976 को मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा की कांग्रेस सरकार ने कमीशन की रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में 128 जातियों को पिछड़ा के रूप में आइडेंटिफाई किया गया, जिनमें से 94 को अति-पिछड़ा माना गया। कमीशन की तरफ से कुछ सिफारिशें भी की गईं लेकिन जगन्नाथ मिश्रा ने इसे इंप्लीमेंट नहीं किया। 


कर्पूरी ठाकुर ने तैयार की नई लीडरशिप

 

इमरजेंसी के दौरान कर्पूरी ठाकुर जयप्रकाश नारायण के साथ मिलकर बहुत मजबूती से काम कर रहे थे। जयप्रकाश नारायण के हाथों में छात्र आंदोलन का नेतृत्व ज़रूर था लेकिन आंदोलन में भीड़ जुटाने में कर्पूरी ठाकुर ने मुख्य भूमिका निभाई थी। कर्पूरी ठाकुर के लिए अपनी राजनीति को फिर से मजबूत करने का यह सबसे बढ़िया मौका था। 1972 के विधानसभा चुनाव में कर्पूरी ठाकुर को बहुत बड़ा झटका लग चुका था। उस चुनाव में कांग्रेस ने अकेले दम पर अपनी सरकार बनाई थी। 318 सीटों पर हुए चुनाव में एक तरफ जहां कांग्रेस ने 167 सीटें जीती थीं, वहीं कर्पूरी ठाकुर की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को सिर्फ 33 सीटें ही मिली थीं। इस चुनाव के बाद कांग्रेस की ओर से केदार पांडे मुख्यमंत्री बनाए गए थे। इमरजेंसी के दौरान तो ऐसा हो गया था कि राज्य सरकार ने कर्पूरी ठाकुर का सरकारी आवास तक खाली करवा दिया था। पटना में रहने को उनके पास अपना घर तक नहीं था। जेपी आंदोलन में कर्पूरी के नेतृत्व में लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसे छात्रनेता भी ट्रेन हो रहे थे। 1976 में मुख्य विपक्षी पार्टियों ने तय किया कि वह कांग्रेस के खिलाफ अब इलेक्टोरली भी एकजुट होकर लड़ेंगी। मतलब सारी पार्टियां मिलकर एक फोर्स बनाएगी।

 

वरिष्ठ पत्रकार संतोष सिंह अपनी किताब 'द जननायक कर्पूरी ठाकुर' में लिखते हैं कि किसान नेता चौधरी चरण सिंह ने सभी विपक्षी दलों से पूछा कि क्या कांग्रेस के खिलाफ सारे दल मर्ज करके एक पार्टी बना सकते हैं? जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इसपर बात आगे बढ़ी। आखिरकार औपचारिक रूप से चौधरी चरण सिंह की भारतीय लोक दल, भारतीय जनसंघ और समाजवादी पार्टी इस मर्जर के लिए तैयार हो गई। तब इंदिरा गांधी ने विपक्षी पार्टियों को समझाने की बहुत कोशिश की थी मगर विपक्षी पार्टी के नेता समझौते के मूड में बिल्कुल भी नहीं थे। 

 

यह भी पढ़ें- बिहार में कैसे हारने लगी कांग्रेस? लालू-नीतीश और नक्सलवाद के उदय की कहानी

 

इधर दिग्गज कांग्रेस नेता मोरारजी देसाई इंदिरा गांधी के साथ लगातार पावर के लिए कॉन्फ्लिक्ट कर रहे थे। इंदिरा गांधी के बाद वह पार्टी के भीतर सबसे मजबूत नेता थे। 1969 में कांग्रेस टूटने के बाद वह कांग्रेस (O) के साथ जुड़ गए थे। उससे पहले 1967 से 1969 तक वह इंदिरा गांधी की सरकार में उपप्रधानमंत्री भी रहे। जब विपक्षी पार्टियों के मर्जर की बात चली तो मोरारजी देसाई को लगा कि प्रधानमंत्री बनने का यह सबसे बेहतरीन मौका हो सकता है। उन्होंने भी विपक्षी दलों के साथ अपनी पार्टी का विलय करने की मंजूरी दे दी।


जनता पार्टी को मिला बड़ा बहुमत

 

18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने आपातकाल खत्म कर दिया और चुनाव की घोषणा हुई। सिर्फ तीन दिनों बाद 21 जनवरी को मोरारजी देसाई के घर पर एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुलाई गई। यहां पर विपक्षी दलों के बाकी नेता भी मौजूद थे। सारे दलों का विलय करके एक नई पार्टी का गठन किया गया, नाम था जनता पार्टी। 

 

मोरारजी देसाई के घर पर आयोजित इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस से एक चीज़ तो स्पष्ट हो गया था कि उन्हें कोई बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी मिलने वाली है। इसके बाद 30 जनवरी 1977 को पटना के गांधी मैदान में भी जयप्रकाश नारायण ने एक रैली आयोजित की। खचाखच भरे गांधी मैदान में जयप्रकाश नारायण ने कर्पूरी ठाकुर को बिहार की जनता का नेता घोषित कर दिया। विधानसभा चुनाव बहुत नजदीक आ गया था और अब स्पष्ट हो चुका था कि जनता पार्टी से कर्पूरी ठाकुर ही मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे।
 
मगर उससे पहले लोकसभा का चुनाव। मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री का चेहरा बनाया गया लेकिन यह पूरा चुनाव इंदिरा गांधी के विरोध में लड़ा गया। इससे पहले इंदिरा गांधी को लगता था कि जयप्रकाश नारायण खुद प्रधानमंत्री बनने के लिए इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं लेकिन मोरारजी देसाई को चेहरा बनाने के बाद उनकी यह गलतफहमी दूर हो गई। इस चुनाव में जनता पार्टी ने कहा था कि वह काका कालेलकर कमीशन की सिफारिश को केंद्र में लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हैं और उन्होंने इसे अपने घोषणापत्र में भी शामिल किया था। मार्च 1977 में लोकसभा चुनाव के नतीजे आए और कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी को 295 सीटों पर जीत मिली और कांग्रेस सिर्फ 154 सीटों पर सिमटकर रह गई। जनता पार्टी के कांग्रेस (O) फैक्शन के नेता मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने।

 

यह भी पढ़ें- आजादी के बाद का पहला दशक, कैसे जातीय संघर्ष का केंद्र बना बिहार?

 

इसके तीन महीने बाद बिहार में भी विधानसभा चुनाव हुए। इस चुनाव में जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में मुंगेरी लाल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की बात कही। कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में जनता पार्टी ने 214 सीटों पर जीत दर्ज की। वहीं जगन्नाथ मिश्रा के नेतृत्व में कांग्रेस को 110 सीटों का नुकसान हुआ और वह सिर्फ 57 सीटों पर सिमटकर रह गई। 24 जून 1977 को कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। गरीबों के पक्ष में और कुछ हद तक लोकलुभावन नीतियों के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के बावजूद, कर्पूरी ठाकुर ने अपने समाजवादी एजेंडे पर अडिग रहने का फैसला किया। 

 

22 मार्च 1978 को, वित्त मंत्री कैलाशपति मिश्रा ने अपने बजट भाषण में कहा कि जनता पार्टी सरकार समाज के सबसे कमजोर वर्ग के आर्थिक विकास के लिए प्रतिबद्ध है। संतोष सिंह अपनी किताब 'द जननायक कर्पूरी ठाकुर' में लिखते हैं कि सरकार ने अंत्योदय की एक नई मुहिम शुरू करने की घोषणा की और हरिजनों, आदिवासियों, और भूमिहीन मजदूरों को कानूनी सहायता प्रदान करने का निर्णय लिया। जुलाई 1977 से फरवरी 1978 तक, भूमि सीमा अधिनियम के तहत 5944 एकड़ भूमि अधिग्रहीत की गई थी; 16,470 एकड़ भूमि का वितरण किया गया, जिससे 16,336 परिवारों को लाभ हुआ। 

 

दूसरे कार्यकाल में कर्पूरी ठाकुर ने पंचायती चुनाव कराने का भी फैसला लिया ताकि पावर का और ज़्यादा डिसेन्ट्रीलाइज़ेशन हो सके। वह चाहते थे कि लोकल लेवल तक गवर्निंग बॉडी हो। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मो सज्जाद लिखते हैं कि पंचायत चुनाव कराने के पीछे उनका मकसद था कि स्थानीय स्तर पर ऊंची जातियों के दबदबे को चैलेंज किया जा सके। इस तरह से कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार लगभग डेढ़ साल तक चली।

आरक्षण पर कर्पूरी और मोरारजी देसाई के बीच मतभेद

 

तारीख 3 नवंबर 1978। जब प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई बिहार आते हैं। पटना के गांधी मैदान में उनकी एक सभा थी, जिसमें मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर भी साथ थे। जब मोरारजी देसाई भाषण देने आए तो गांधी मेदान खचाखच भरा हुआ था। कर्पूरी ठाकुर की खुद की लोकप्रियता ऐसी थी कि जनता भर भरकर उन्हें सुनने आती थी। मोरारजी देसाई ने अपना भाषण शुरू किया। सबसे पहले तो उन्होंने केंद्र और राज्य की जनता पार्टी की सरकार की तारीफ की तो समर्थकों ने तालियां भी बजाईं। मगर इसके बाद उन्होंने आरक्षण पर बोलना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि अगर आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था हो तो समाज के हर वर्ग का अपलिफ्टमेंट होगा। इसके बाद भीड़ में मौजूद सवर्णों में इस बात पर खुशी देखी गई लेकिन भीड़ का बाकी हिस्सा खुश नहीं था।

 

कर्पूरी ठाकुर प्रधानमंत्री के इस कथन से काफी असहज हो गए थे क्योंकि विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी ने यह वादा किया था कि मुंगेरी लाल कमीशन के कोटा विदिन कोटा फ़ॉर्मूले को वह चुनाव के बाद लागू करेंगे। यही वादा केंद्र में काका कालेलकर कमीशन के इंप्लीमेंटेशन को लेकर भी था। शाम में मोरारजी देसाई को एयरपोर्ट छोड़ने के बाद कर्पूरी ठाकुर सीधे पटना सचिवालय गए और रात में ही एक नोटिफिकेशन निकाला, जिसमें पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कही। कर्पूरी ठाकुर ने इसी रात पिछड़ी जातियों के लिए 20% आरक्षण की घोषणा कर दी। सहयोगी दल भारतीय जनसंघ ने इसका विरोध भी किया। इसके बाद केंद्र ने इसपर फैसले लेने के लिए एक कमिटी का गठन किया। आखिरकार समझौते का रास्ता निकाला गया। 

 

10 नवंबर 1978 को सरकार के कार्मिक और प्रशासनिक सुधार विभाग ने तीन अलग-अलग रिज़ोल्यूशन पास किए। ओबीसी के लिए 8% और एक्सट्रीमली बैकवर्ड कास्ट यानी कि EBC के 12%, यानी कि कुल 20% के लिए अलग रिज़ॉल्यूशन। इसके अलावा महिलाओं के लिए 3% और आर्थिक आधार पर गरीबों के लिए 3% आरक्षण के लिए अलग रिजॉल्यूशन। रिजॉल्यूशन पर तत्कालीन मुख्य सचिव केए रामसुब्रमण्यम ने साइन किया। कमिटी ने एक और चीज़ पर डिसीजन लिया कि प्रमोशन में यह आरक्षण लागू नहीं होगा। यह सिर्फ फर्स्ट अपॉइंटमेंट में ही मान्य होगा। 

 

मोरारजी देसाई के भाषण ने कर्पूरी ठाकुर को इतना ट्रिगर कर दिया कि उन्होंने रातोंरात यह फैसला ले लिया लेकिन अगर देखा जाए तो कर्पूरी ठाकुर ने बीते डेढ़ सालों में अब तक इसपर फैसला नहीं लिया था जबकि यह जनता पार्टी के मैनिफेस्टो में भी था। कर्पूरी ठाकुर ने जब इस आरक्षण की घोषणा की थी, तो उन्होंने युवा नीतीश कुमार को इस आरक्षण पॉलिसी को पढ़ने और उसमें संशोधन करने की ज़िम्मेदारी दी थी। नीतीश कुमार ने कर्पूरी ठाकुर के रास्तों पर चलते हुए ही 2007 में अनुसूचित जाति कैटेगरी यानि कि दलितों में भी महादलित कैटेगरी बनाई थी।

 

कर्पूरी ठाकुर और नीतीश कुमार का ही आरक्षण मॉडल था जिसने मंडल आयोग के गठन में भूमिका निभाई थी। इधर भारतीय जनसंघ ने कर्पूरी आरक्षण मॉडल का विरोध जारी रखा और उन्होंने उसके विरोध में 31 मार्च 1979 को पटना में एक बड़ी रैली आयोजित की थी। अप्रैल 1979 में जमशेदपुर में एक बड़ा दंगा भड़का था, जिसमें सौ से भी ज्यादा लोग मारे गए थे। इसके अलावा आरक्षण पर मोरारजी देसाई से उनके विरोध ने सरकार को और कमजोर कर दिया था। इस दंगे के बाद भारतीय जनसंघ, मोरारजी देसाई के कांग्रेस (O) और भारतीय लोकदल के कई नेताओं ने मंत्रीपद से इस्तीफा दे दिया। जगजीवन राम के कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी ने भी कर्पूरी ठाकुर से अपना समर्थन वापस ले लिया था। इसके बाद 19 अप्रैल 1979 को कर्पूरी ठाकुर की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया, जिसमें वह हार गए और उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा लेकिन मोरारजी देसाई के लिए भी यह उतना ही महंगा पड़ा। 

मोरारजी देसाई की भी गई कुर्सी

 

जुलाई 1979 को कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाले 18 सांसदों ने मोरारजी देसाई की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। राज नारायण, कर्पूरी ठाकुर, बीजू पटनायक, जॉर्ज फ़र्नांडिस और मधु लिमये समेत एक तिहाई नेताओं ने जनता पार्टी से अलग होकर जनता सेक्युलर बनाई। चौधरी चरण सिंह भी मोरारजी देसाई से अपना समर्थन खींचकर इस पार्टी में शामिल हो गए। मोरारजी देसाई के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। जो कि एक औपचारिकता ही थी। वोटिंग हुई और मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई। इसके बाद राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने नेता प्रतिपक्ष YB चवन को सरकार बनाने का न्योता दिया लेकिन वह सरकार नहीं बना पाए। जब चौधरी चरण सिंह को सरकार बनाने का न्योता मिला तो उन्हें दो कम्युनिस्ट पार्टियों CPI, CPM और फॉरवर्ड ब्लॉक का समर्थन मिला। इंदिरा गांधी ने भी चौधरी चरण सिंह की सरकार को समर्थन दिया और सरकार बनाने के लिए प्रेरित किया लेकिन बहुमत परीक्षण से ठीक पहले कांग्रेस पलट गई और चौधरी चरण सिंह को सिर्फ 23 दिनों के भीतर प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। 

 

समर्थन देने के एवज में इंदिरा गांधी ने शर्त रखी थी कि चौधरी चरण सिंह आपातकाल के दौरान उनके और उनके बेटे संजय गांधी के खिलाफ चल रहे कानूनी मामलों को रद्द करें। चौधरी चरण सिंह सिंह ने इस शर्त को अस्वीकार कर दिया क्योंकि वह इसे ब्लैकमेल मानते थे और सिद्धांतों से समझौता नहीं करना चाहते थे। इसके परिणामस्वरूप, कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया, जिससे उनकी सरकार लोकसभा में बहुमत खो बैठी। अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने या सिद्धांत विहीन गठबंधन जारी रखने की बजाय, चौधरी चरण सिंह ने इस्तीफा दे दिया और लोकसभा भंग करने की सिफारिश की। हालांकि, वह जनवरी 1980 में नए चुनाव होने तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहे।

 

तो यह कहानी थी कर्पूरी ठाकुर के उस आरक्षण मॉडल की जिसने जनता पार्टी की सरकार बनाई और लागू होते ही जनता पार्टी की सरकार गिराई भी। मोरारजी देसाई ने कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हटाने की नींव रखी और ठीक तीन महीने बाद कर्पूरी ठाकुर की वजह से मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी। 

शेयर करें

संबंधित खबरें

Reporter

और पढ़ें

design

हमारे बारे में

श्रेणियाँ

Copyright ©️ TIF MULTIMEDIA PRIVATE LIMITED | All Rights Reserved | Developed By TIF Technologies

CONTACT US | PRIVACY POLICY | TERMS OF USE | Sitemap