हमारी और आपकी जेब में जो रुपया रखा है, वो कमजोर हो रहा है। कमजोर हो रहा है, ये कैसे पता? इसका पता डॉलर से तुलना करके लगाया जाता है। एक डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत जितनी कम होगी, रुपया उतना मजबूत होगा। एक डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत जितनी ज्यादा होगी, रुपया उतना कमजोर होगा।
कितना गिर रहा रुपया?
13 जनवरी को रुपया अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया था। उस दिन एक डॉलर की कीमत 86.65 रुपये हो गई थी। हालांकि, तीन दिन में रुपया 20 पैसा मजबूत भी हुआ है। 16 जनवरी को एक डॉलर का भाव 86.45 रुपये हो गया है। अगर 10 साल के आंकड़े देखें जाएं तो रुपया करीब 25 रुपये कमजोर हो गया है। 15 जनवरी 2015 को एक डॉलर की कीमत 61.75 रुपये थी। 15 जनवरी 2025 को इसकी कीमत 86.50 रुपये हो गई।
क्यों गिर रहा है रुपया?
इसके कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो ये है कि विदेशी निवेशक बिकवाली कर रहे हैं। विदेशी निवेशक भारतीय बाजार से पैसा निकालकर अमेरिकी बाजार में लगा रहे हैं। इससे डॉलर मजबूत और रुपया कमजोर हो रहा है। इसका असर शेयर मार्केट पर भी देखने को मिल रहा है।
दूसरी वजह अमेरिका की सत्ता में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी भी है। ट्रंप 20 जनवरी को शपथ लेने वाले हैं। इससे डॉलर की धाक और मजबूत हुई है। सिर्फ भारतीय रुपया ही नहीं, बल्कि चीन की युआन और जापान की येन समेत एशियाई देशों की करेंसी कमजोर हुई है।
रुपया कमजोर कैसे होता है?
डॉलर की तुलना में किसी भी करेंसी की वैल्यू कम होती है तो उसे करेंसी का टूटना या कमजोर होना कहा जाता है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे 'करेंसी डेप्रिसिएशन' कहते हैं। ये पूरा खेल अंतर्राष्ट्रीय बाजार से चलता है।
दरअसल, होता ये है कि हर देश के पास विदेशी मुद्रा का भंडार होता है। चूंकि दुनियाभर में 90 फीसदी कारोबार अमेरिकी डॉलर से होता है, इसलिए विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर ही सबसे ज्यादा होता है। विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर का होना बहुत जरूरी है, ताकि रुपया मजबूत हो सके।
इस समय रुपये के कमजोर होने का एक कारण ये भी है कि भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर कम हो रहा है। रिजर्व बैंक (RBI) के मुताबिक, 3 जनवरी 2025 तक विदेशी मुद्रा भंडार में 551.92 अरब डॉलर की करेंसी थी। 10 जनवरी तक ये घटकर 545.48 अरब डॉलर हो गई। यानी, हफ्तेभर में ही लगभग 6 अरब डॉलर कम हो गए। और पीछे जाएं तो एक महीने पहले यानी 13 दिसंबर तक 565.62 अरब डॉलर विदेशी मुद्रा भंडार में था।
इस उदाहरण से समझें सारा खेल
रुपये-डॉलर का संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है कि अमेरिका के विदेशी मुद्रा भंडार में भी उतना ही रुपया हो, जितना भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर है।
उदाहरण के लिए, 16 जनवरी को एक डॉलर की कीमत 86.45 रुपये है। हम इसे 86 रुपये मानते हैं। अमेरिका के पास 86,000 रुपये है और भारत के पास 1,000 डॉलर। ऐसे में दोनों के पास बराबर रकम है। अब अगर भारत को अमेरिका से ऐसी चीज खरीदनी है, जिसकी कीमत 8,600 रुपये है तो भारत को 100 डॉलर खर्च करने होंगे। अब अमेरिका के विदेशी मुद्रा भंडार में 94,600 रुपये हो जाएंगे। ऐसी स्थिति में भारतीय रुपये की स्थिति कमजोर हो जाएगी।
अब इसका संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है कि अमेरिका भी भारत 100 डॉलर या 8,600 रुपये का कोई सामान खरीदे। मगर ऐसा होता नहीं है। भारत का इम्पोर्ट ज्यादा है लेकिन एक्सपोर्ट कम। इसलिए भारत को ज्यादा डॉलर खर्च करना पड़ता है। इस कारण भारत का व्यापार घाटा भी बहुत बढ़ जाता है। मिनिस्ट्री ऑफ कॉमर्स के आंकड़ों के मुताबिक, 2023-24 में भारत ने 92.33 लाख करोड़ रुपये का कारोबार किया था। इसमें 36.15 लाख करोड़ रुपये का सामान बेचा था, जबकि 56.15 लाख करोड़ रुपये का सामान खरीदा था। लिहाजा भारत का व्यापार घाटा लगभग 20 लाख करोड़ रुपये था।
कमजोर रुपये का हम पर असर क्या?
- नुकसान क्याः कमजोर रुपये से महंगाई बढ़ती है। ऑटो इंडस्ट्री से जुड़े 10-20 फीसदी पार्ट्स बाहर से आते हैं। इससे गाड़ियां महंगी हो सकती हैं। 5 फीसदी टेलिकॉम इक्विपमेंट भी बाहर से आते हैं। ऐसे में कंपनियां टैरिफ बढ़ा सकती हैं। कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स से जुड़े 40-60 फीसदी आइटम भी विदेशों से आते हैं। इतना ही नहीं, कच्चे तेल और गैस की 80 फीसदी जरूरत भी बाहर से ही पूरी होती है। रुपया कमजोर होगा तो इनका आयात करने के लिए ज्यादा खर्च करना होग। इससे महंगाई बढ़ सकती है।
- फायदा क्याः कई अमेरिकी कंपनियां भारत में दवा भी बेचती हैं। ये कंपनियां एक बड़ा हिस्सा अमेरिका को निर्यात करती हैं। रुपया कमजोर होने से निर्यात बढ़ सकता है। इसके अलावा ज्यादातर आईटी कंपनियों का 50 से 60 फीसदी रेवेन्यू अमेरिका से ही आता है।
कभी डॉलर-रुपये में बहुत फर्क नहीं था
अब जब बात डॉलर और रुपये की हो रही है तो थोड़ा इतिहास भी झांक लेते हैं। आजादी के वक्त 1947 में एक डॉलर की कीमत 4.76 रुपये थी। 1965 तक रुपया स्थिर रहा लेकिन 1966 के बाद से इसमें गिरावट आनी शुरू हो गई। 1975 तक आते-आते डॉलर का भाव 8 रुपये और 1985 तक 12 रुपये के पार चला गया। 1991 में आर्थिक उदारीकरण ने रुपये को और कमजोर किया। जनवरी 2001 तक डॉलर की कीमत 46 रुपये के पार चली गई। 2010 तक कीमत लगभग इतनी ही रही।