पेट्रोलियम उत्पादक (OPEC) देशों की सीमाओं पर भारत-पाकिस्तान की तरह खूनी संघर्ष भले ही न चल रहा हो, कूटनीति संघर्ष की खबरों से इनकार नहीं किया जा सकता है। 10 दिसंबर 1960 को जिस मकसद के साथ ओपेक की स्थापना बगदाद में कई गई थी, उस मकसद में सेंध लग गई है। ओपेक के कुछ देश, तय शर्तों से ज्यादा या कम तेल उत्पादन कर रहे हैं, जिसका व्यापार पर असर पड़ रहा है। खाड़ी के देशों के बीच छिड़ी इस जंग को 'ऑयल वार' कहा जा रहा है। 3 मई को पेट्रोलियम निर्यातक देशों ने 1 जून से 4,11,000 बैरल प्रति दिन के सामूहिक उत्पादन का फैसला लिया। यह लगातार तीसरा महीना था जब तेल कार्टेल ने कच्चे तेल का उत्पादन बढ़ाने का फैसला किया। साल 2023 में ओपेक के आठ सदस्य देशों ने यह तय किया कि 22 लाख बैरल प्रति दिन उत्पादन घटाएंगे। यह फैसला इसलिए लिया गया क्योंकि मांग से ज्यादा तेल का उत्पादन हो रहा था, जिसकी वजह से तेल की कीमतें घट रही थीं।
अब 9,60,000 बैरल प्रति दिन की कटौती खत्म कर दी गई है। शेष उत्पादन में भी जो कटौती की जा रही है, उसे अक्तूबर 2025 तक खत्म किया जा सकता है। इस फैसले से तेल बाजार में हड़कंप की स्थिति पैदा हो गई है। ब्रेंट क्रूड की कीमत 2% गिरकर 60.23 डॉलर प्रति बैरल हो गई है। भारतीय रुपये में यह राशि 5029.21 रुपये के आसपास है। महामारी के बाद का यह सबसे निचला स्तर था। हालात संभले तो अब यह कीमत 65 डॉलर डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई। भारतीय रुपये में यह राशि 5427.50 रुपये है। हालात इसलिए भी संभले नजर आए क्योंकि अमेरिका-चीन के बीच व्यापार समझौता को दिशा मिली। अमेरिका-ईरान परमाणु वार्ता में आई रुकावटें दूर हो रही हैं। तेल की कीमत 100 डॉलर के स्तर से बहुत कम है। ओपेक देशों ने लक्ष्य रखा था कि तेल की कीमतों को 100 डॉलर प्रति बैरल करेंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।
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सऊदी की रणनीति, कई देशों के लिए आफत
सऊदी अरब OPEC का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। सऊदी को ही इस तेल युद्ध के केंद्र में रखा जा रहा है। सऊदी अरब की मांग है कि तेल की कीमतें स्थिर हों, तेल महंगा हो, जिससे सरकार को स्थिर आय भी मिले। सऊदी अरब ने साल 2023 में 30 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती की थी। यह कुल कटौती का 40 फीसदी हिस्सा था। कजाकिस्तान, इराक, यूएई और नाइजीरिया जैसे देशों ने ओपेक का नियम तोड़ा और ज्यादा तेल उत्पादन करने लगे।

सऊदी अरब ने तेल की आपूर्ति अचानक से बढ़ा दी और कीमतें कम करने की रणनीति बना ली। सऊदी अरब, नियम तोड़ने वाले देशों को यह सबक सिखाना चाहता है कि अगर आपसी सहयोग नहीं रहा तो सबके व्यापारिक हित प्रभावित होंगे। तेल उत्पादक देशों की आय का मुख्य हिस्सा ही तेल है, अगर इसकी कीमतें प्रभावित हुईं तो अर्थव्यवस्था के गिरने की आशंका बनी रहेगी। सऊदी चाहता है कि स्थिर कीमतें हों, जिससे अर्थव्यवस्था वैश्विक महंगाई के सापेक्ष स्थिर बनी रही।
कब-कब इस रणनीति पर चला है सऊदी अरब?
सऊदी अरब पहले भी तेल की कीमतें अचानक कम करके, व्यापार को अपनी तरफ मोड़ा है, जिससे दूसरे OPEC देशों के हित प्रभावित हुए हैं। साल 1985-86, 1998, 2014-16 और 2020 में सऊदी भी ऐसा दांव चल चुका है। सऊदी अरब ने अचानक तेल उत्पादन बढ़ा दिया था, फिर बढ़े उत्पादन को रोक कर कच्चे तेल की कीमतें बढ़ा दी थीं। अब एक बार फिर यह देश, इसी रणनीति पर काम कर रहा है।
लड़खड़ाया क्यों है तेल बाजार?
कोविड महामारी के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था एक लंबे वक्त तक पटरी पर नहीं लौटी। ज्यादातर देशों में अर्थव्यवस्था की रिकवरी धीमी रही। कोई देश मुनाफे में गया तो श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देश दिवालिया होने की कगार पर पहुंच गए। जाहिर है इन देशों की भी अर्थव्यवस्था बिगड़ने का असर वैश्विक बाजार पर पड़ा। अरब मामलों के जानकार और पूर्व राजदूत महेश सचदेव ने भी द हिंदू में लिखे एक आलेख में यह आशंका जाहिर की है कि तेल की मांग में 0.73% का ही इजाफा साल 2025 में हो सकता है।

क्यों कम हो रही है तेल की मांग?
दुनिया में इलेक्ट्रिक वाहनों की लोकप्रियता, तेल उत्पादक देशों की सबसे बड़ी चिंता बन सकती है। चीन और भारत में एक बड़ी आबादी इलेक्ट्रिक गाड़ियों की तरफ शिफ्ट कर रही है। इलेक्ट्रिक वाहनों की बढ़ती लोकप्रियता, खासकर चीन में, और जलवायु परिवर्तन के प्रयासों ने मांग को और कम किया। एशियाई देशों में भी लोग पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूक हो रहे हैं, इसलिए इलेक्ट्रिक गाड़ियों की ओर शिफ्ट कर रहे हैं।

नए देश भी तेल की रेस में हो रहे हैं शामिल
ब्राजील, गुयाना और अमेरिकी कंपनियों के कुछ प्रॉक्सी प्रोडक्शन, पेट्रोलियम उत्पादक देशों में हिस्सा चाहते हैं। नुकसान यह हो रहा है कि ज्यादा तेल बाजार तक पहुंच रहा है और तेल उत्पादक देशों के अलावा भी अन्य देशों से आपूर्ति बढ़ गई है।
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अमेरिकी प्रतिबंध हटें तो और अस्थिर होंगी तेल की कीमतें
रूस, ईरान और वेनेजुएला पर अमेरिकी प्रतिबंध लागू है। यूक्रेन के साथ जंग की वजह से रूस पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगाए हैं। कई देश रूस के साथ सीधे व्यापार से परहेज कर रहे हैं, यूरोप ने भी रूस को अकेला छोड़ दिया है। ईरान के साथ परमाणु समझौते पर बात नहीं बन पा रही है। ईरान पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगाए हैं। अमेरिका पर निर्भर देश, उससे व्यापार से बचते हैं। साल 2019 से ही अमेरिका ने वेनेजुएला पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं। इन देशों पर अगर प्रतिबंध हटे तो तेल की कीमतें और गिर सकती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की व्यापार नीतियां और वैश्विक मंदी भी तेल के मांग की गिरावट के लिए जिम्मेदार है। ऐसा नहीं है कि सऊदी की इस नीति का उसे नुकसान नहीं होगा। सऊदी के ग्लोबल ट्रेड में 0.2 प्रतिशत की गिरावट की आशंका है। जीडीपी ग्रोथ भी केवल 2.2 प्रतिशत आसपास रह सकती है।

सऊदी अरब ऐसे फैसले क्यों ले रहा है?
सऊदी अरब को यह पता है कि दुनिया का रुख तेजी से ईवी और वैकल्पिक एनर्जी की ओर बढ़ रहा है। ग्रीन एनर्जी को लेकर नए तरीके से सरकारें योजनाएं बना रही हैं। ऐसे में भविष्य में तेल की मांग घट सकती है। सऊदी अरब कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा लाभ हासिल करना चाहता है। सऊदी के सामने रूस, ईरान और वेनेजुएला भी चुनौती की तरह ही खड़े हैं।
अगर इन देशों से प्रतिबंध हटे तो असर सऊदी अरब पर भी पड़ेगा।
सऊदी अरब कम कीमतों पर बाजार में अपनी हिस्सेदारी बनाए रखना चाहता है। ऐसी भी अटकलें लगाई जा रही हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, सऊदी अरब का दौरा करने वाले हैं। उनकी यात्रा से पहले सऊदी अमेरिका को खुश करना चाहता है। इसलिए ही तेल की कीमतें स्थिर रखी जा रही हैं। अमेरिका से सऊदी अरब को रक्षा समझौते, परमाणु करार और 100 अरब डॉलर के हथियार डील की उम्मीद है।
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इस जंग का भारत पर क्या असर हो सकता है?
भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश है। भारत ने साल 2024-25 में करीब 137 अरब डॉलर का तेल खरीदा है। भारत में भी तेल की मांग 3.2 प्रतिशत तक बढ़ी है। साल 2025 में ऐसे अनुमान जताए जा रहे हैं कि वैश्विक तेल की खपत का 25 फीसदी हिस्सा भारत से आएगा। वैश्विक मांग से यह 4 गुना ज्यादा है। तेल की कीमत में एक डॉलर की कमी से भारत को सालाना 1.5 अरब डॉलर की बचत हो सकती है।
साल 2022 में विदेश मंत्रालय ने खाड़ी के देशों में काम कर रहे मजदूरों से जुड़े आकंड़े जारी किए थे। तेल उत्पादक देशों में करीब 90 लाख भारतीय रहते हैं। 35 लाख से ज्यादा हिंदुस्तानी संयुक्त अरब अमीरात में रहते हैं, वहीं सऊदी अरब में 25 लाख से ज्यादा भारतीय काम करते हैं। भारत में खाड़ी के देशों से कुल 50 अरब डॉलर पहुंचता है। भारत का रिफाइंड पेट्रोलियम निर्यात भी प्रभावित हो सकता है। यह निर्यात का एक बड़ा हिस्सा है। अगर यहां की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाएगी तो असर भारत पर भी पड़ सकता है।