दिल्ली का साल 1956 से लेकर 1993 तक के बीच कोई मुख्यमंत्री नहीं रहा। यह चौंकाने वाला था कि किसी केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभा थी, मुख्यमंत्री थे लेकिन पद ही खत्म कर दिया गया हो। दिल्ली के विधानसभा चुनावों पर देशभर की नजरें टिकी हैं। चुनाव हो रहे हैं। दिल्ली में 70 विधानसभा सीटें हैं और आम आदमी पार्टी (AAP), भारतीय जनता पार्टी (BJP) और कांग्रेस (Congress) की त्रिकोणीय लड़ाई के बीच किसी को ख्याल भी नहीं होगा कि दिल्ली में 37 साल कोई मुख्यमंत्री ही नहीं था।
दिल्ली में विधानसभा थी लेकिन मुख्यमंत्री पद ही एक फैसले के बाद खत्म हो गया था। राजधानी के पूर्ण राज्य के दर्जे की कवायद 1947 से लेकर अब तक हो रही है लेकिन दिल्ली का यह ख्वाब पूरा ही नहीं हो सका। ग्रहण तो 1950 के दशक से ही लगना शुरू हुआ था कि दिल्ली में मुख्यमंत्री पद ही क्यों हो।
दिल्ली आजादी मिलने के बाद केंद्र शासित प्रदेश बनी। साल 1947 के जमाने में भारत की संविधान सभा की सदन-समिति के अध्यक्ष बी पट्टाभि सीतारमैया ने कहा था कि दिल्ली के शासन को स्वायत्तता दी जानी चाहिए। उनकी समिति ने सिफारिश भी की थी। दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी के तौर पर विकसित किया जाना था।
कैसे दिल्ली ने गंवाई विधानसभा?
कवायद की गई कि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश हो, राष्ट्रपति एक लेफ्टिनेंट गवर्नर की नियुक्ति करें और एक चुनी गई विधायिका हो। बीआर अंबेडकर की अध्यक्षता वाली संविधान की ड्राफ्ट कमेटी को ये सिफारिशें रास नहीं आईं।
जवाहरलाल नेहरू भी इस समिति का हिस्सा थे। उनकी अगुवाई में भी नेताओं का एक दल चाहता था कि दिल्ली में स्थानीय सरकार न हो। शुरुआत से ही कई नेताओं ने इसके स्वततंत्र मुख्यमंत्री का विरोध दिया। एक प्रारूप समिति तैयार की गई। योजना अमल में आई तो दिल्ली के पास अपनी विधानसभा बनाने का अधिकार ही खत्म हो गया। राष्ट्रपति की ओर से नियुक्त उपराज्यपाल की ये जिम्मेदारी थी कि वे दिल्ली पर शासन करें।
इसे भी पढ़ें- 'दिल्ली में मीम, AI, वीडियो वार,' सियासी दलों के चुनावी हथियार
साल 1951 आते-आते परिस्थितियां बदलीं। द गवर्नमेंट ऑफ पार्ट सी स्टेट्स (अमेंडमेंट) एक्ट, 1951 अस्तित्व में आया। इस अधिनियम के तहत विधानसभा के गठन की मंजूरी दी गई। दिल्ली की सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस, भूमि और नगर पालिका जैसे विषय केंद्र सरकार के हिस्से आए। साल 1952 में दिल्ली को अपना मुख्यमंत्री भी मिल गया। कांग्रेस के दिग्गज नेता चौधरी ब्रह्म प्रकाश मुख्यमंत्री बने। 17 मार्च 1952 को उन्होंने सीएम पद की शपथ ली और 12 फरवरी 1955 को उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
ब्रह्म प्रकाश और गोविंद बल्लभ पंत में ठनी क्यों?
चौधरी ब्रह्म प्रकाश चाहते थे कि दिल्ली की स्वायत्त रहने दिया जाए। केंद्र शासित प्रदेश भले ही दिल्ली रहे लेकिन उसके अपने कुछ अधिकार हों। वह जवाहर लाल नेहरू के करीबी थी लेकिन चीफ कमिश्नर आनंद दत्त पंडित और केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद बल्लभ पंत से उनकी अनबन होने लगी। साल 1955 में 2 साल 332 दिन सीएम रहने के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
ब्रह्म प्रकाश चाहते थे कि न तो तत्कालीन केंद्रीय मंत्री गोविंद बल्लभ पंत का दिल्ली के काम-काज में हस्तक्षेप न हो। चीफ कमिश्नर आनंद का भी दखल न हो। अनबन के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
क्यों दिल्ली से छीन लिया गया मुख्यमंत्री?
द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बेहतर शासन के साल 1953 में राज्य पुनर्गठन समिति की स्थापना हुई। कहते हैं ब्रह्म प्रकाश, चीफ कमिश्नर और गृहमंत्री की तकरार ने दिल्ली के विधानसभा स्टेटस को ही नुकसान पहुंचाया है। दिल्ली में दोहरे प्रशासन की वजह प्रशासनिक अव्यवस्थाएं हुईं।
ब्रह्म प्रकाश के इस्तीफे के बाद गुरुमुख निहाल सिंह ने 12 फरवरी 1955 को शपथ लिया। 1 नवंबर 1956 तक उनका कार्यकाल चला। 1 साल 263 दिन उनका कार्यकाल चला। 1 नवंबर 1956 से लेकर 1 दिसंबर 1993 तक दिल्ली के पास कोई मुख्यमंत्री ही नहीं था। इस दफ्तर के औचित्य को ही खत्म कर दिया गया था। 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। इसके बाद दिल्ली में विधानसभा भंग कर दी गई और मुख्यमंत्री का पद समाप्त कर दिया गया।
कैसे दिल्ली को वापस मिली राजधानी?
दिल्ली से मुख्यमंत्री पद हटा, विधानसभा छीना गया तो दिल्ली के हक में क्या आया? दिल्ली के लिए एक स्वायत्त नगर निगम गठित हुआ। दिल्ली के राज्य पुनर्गठन समिति की सिफारिशों की जमकर आलोचना हुई थी। कहा गया कि दिल्ली के पास अब लोकतांत्रिक शक्ति नहीं रही, प्रशासन थोपा गया। सांसद सुचेता कृपालनी ने भी चिंताए जताईं और कहा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था बिना दिल्ली का का अस्तित्व क्या है। राज्य के लोगों से वोटिंग का हक छीन लिया जा रहा है।
इसे भी पढ़ें- सुल्तानपुर माजरा: मुकेश अहलावत पर फिर AAP को भरोसा, क्या पलटेगी बाजी?
विपक्ष लगातार दिल्ली को विधानसभा दिलाने की मांग करता रहा। केंद्र सरकार ने आलोचनाओं के बाद भी साल 1957 में दिल्ली नगर निगम अधिनियम लागू किया। लोगों के पास नगर निगम में वोट करने का अधिकार मिला। नगर निगम का पूरे दिल्ली पर अधिकार बताया गया। दशकों तक लोग आवाज उठाते रहे कि दिल्ली की अपनी विधानसभा होनी चाहिए।
विधानसभा गंवाने के बाद काम कैसे हुआ?
साल 1960 के दशक में, 56 निर्वाचित और 5 मनोनीत सदस्यों के शक्ति वाले महानगर परिषद की स्थापना हुई। 1966 में दिल्ली के प्रशासन को बेहतर ढंग से चलाने के लिए दिल्ली नगर निगम की स्थापना की गई। हालांकि, राजनीतिक शासन के लिए कोई मुख्यमंत्री या विधानसभा नहीं थी। 1970 के दशक में जनसंघ कांग्रेस को चुनौती देना वाला अहम राजनीतिक पार्टी के तौर पर उभरा। दिल्ली के लिए अलग विधानसभा की मांग जोर पकड़ने लगी। जनसंघ की मांग थी दिल्ली को अलग राज्य का दर्जा मिले, जिससे दिल्ली का विकास हो।
1980 तक के अंतिम साल तक विधानसभा को लेकर हंगामा सड़कों पर होने लगा। जनसंघ के नेता मदन लाल खुराना सबसे मुखर होकर मांग करने लेग। उन्होंने एक रैली बुलाई जिसमें लाखों लोग आए। विवाद बढ़ते देखकर 1987 में केंद्र सरकार ने दिल्ली में प्रशासनिक व्यवस्था के लिए एक समिति गठित करने पर सहमति जताई।
जस्टिस आर एस सरकारिया की अध्यक्षता में सरकारिया आयोग 1987 में बना। समिति ने कहा कि दिल्ली पर केंद्र का नियंत्रण हो लेकिन स्थानीय मांगों के लिए प्रतिनिधि निकाय जरूर हो। आयोग ने दिल्ली में विधानसभा की बहाली की सिफारिश की।
पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली सरकार ने साल 1991 में एक संविधान संशोधन किया। यह संविधान का 69वां संविधान संशोधन था। 1991 में दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (NCT of Delhi) का दर्जा दिया गया। एक सीमित लेकिन लोकतांत्रिक शक्ति वाली विधानसभा की स्थापना की गई। साल 1993 में पहली बार मुख्यमंत्री का पद बहाल किया गया। 1 दिसंबर 1993 को दिल्ली में 37 साल बाद पहली बार विधानसभा चुनाव हुए और इसके बाद भारतीय जनता पार्टी (BJP) के नेता मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने।
जब दिल्ली में नहीं थे मुख्यमंत्री काम कैसे चलता था?
दिल्ली में जब मुख्यमंत्री का पद नहीं था, तब केंद्र शासित प्रदेश का प्रशासनिक ढांचा केंद्र के आधीन था। कानून व्यवस्था, पुलिस, जमीन, सार्वजनिक व्यवस्थाएं केंद्र सरकार के आधीन थीं। दिल्ली नगर निगम और नई दिल्ली नगर पालिका परिषद (NDMC) के पास शहरी प्रशासन की जिम्मेदारी थी। दिल्ली, आज के लद्दाख की तरह केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर दर्जा रखती थी। अब दिल्ली में 70 विधानसभा सीटें हैं, चुनावों 5 फरवरी को वोटिंग होने वाली है, चुनाव के नतीजे 8 फरवरी को घोषित होंगे।