देश के हर राज्य में होने वाले चुनावों में बिहार में सबसे ज्यादा बाहुबलियों का प्रभाव हर बार देखने को मिलता है। ऐसा लगता है कि बिना इनके धन-बल के चुनाव जीतना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल है। इस बार के चुनाव में भी बाहुबलियों का प्रभाव बना हुआ है। पार्टियां जीत के लिए उनको या उनके परिवार के सदस्यों को टिकट देती है। यह चलन बिहार की राजनीति में दशकों से हावी है। क्या ऐसा वाकई है कि बिना इनके मदद के चुनाव जीतना मुश्किल है?

 

बाहुबलियों का दबदबा बिहार में बहुत ज्यादा है। पार्टियां इनको टिकट देने से गुरेज नहीं करती। ऐसा इसलिए क्योंकि बाहुबली का वोट बैंक और इलाके में उनकी पकड़ काफी मजबूत होती है। अगर पार्टियां उनकी छवि के कारण उनको टिकट न भी दें तो वह अपने परिवार के सदस्यों को आगे कर देते हैं। ऐसे भी बाहुबली है जिन पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं या दोषी करार किए जा चुके हैं, वे भी अपने राजनीतिक वारिसों के जरिए राज्य पर राज कर रहे हैं।  

 

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किसने--किसको दिया टिकट

सबसे पहले यह जानते हैं कि चुनाव के मैदान में किन-किन लोगों को किन-किन पार्टियों ने टिकट दिया है--

 

RJD

रीतलाल यादव- दानापुर से फिर टिकट। 30 से ज्यादा आपराधिक मामले। 

ओसामा शहाब- रघुनाथपुर से। मोहम्मद शहाबुद्दीन के बेटे। 

वीणा देवी- मोकामा से। सूरजभान सिंह की पत्नी। 

कुमारी अनीता- वारिसलीगंज से। अशोक महतो की पत्नी। 

शिवानी शुक्ला- लालगंज से। मुन्ना शुक्ला की बेटी। 

दीपू सिंह रावत- संदेश से। अरुण यादव के बेटे। 

 

JDU

अनंत सिंह - मोकामा से विधायक। कई आपराधिक मामले। 

चेतन आनंद - नवीनगर से। आनंद मोहन के बेटे।  

विभा देवी- नवादा से। राजबल्लभ यादव की पत्नी। 

मनोरमा देवी- बेलगछिया से। पति का प्रभाव। 

 

BJP

अरुणा देवी- वारिसलीगंज से। अखिलेश सिंह की पत्नी

राजू कुमार सिंह - साहेबगंज से। 10 से ज्यादा आपराधिक मामले।  

विशाल प्रशांत - तरारी से। बाहुबली के रिश्तेदार। 

केदार नाथ सिंह- बनियापुर से। बाहुबली के रिश्तेदार। 

 

अन्य पार्टियां-  LJP (रामविलास) ने भी बरहमपुर से हुलास पांडे को टिकट दिया है, जो बाहुबलियों से जुड़े हैं।

 

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इतिहास क्या कहता है?

जब बिहार की राजनीति शुरू हुई थी तो ऐसा कहा जाता है कि धनबल के माध्यम से ही शुरू हुई थी। यहां की राजनीति धीरे-धीरे धनबल से होते हुए बाहुबल पर पहुंच गई। 80  के दशक में वीर महोबिया, सरदार कृष्णा और वीर बहादुर सिंह जैसे लोग चुनाव जीतकर आए। ऐसा कहा जाता है कि जो लोग बंदूक के सहारे नेताओं को विधानसभा भेजा करते थे इन लोगों ने ऐसा मान लिया कि वह खुद भी तो इस के सहारे विधानसभा पहुंच सकते हैं।

जाति का भी होता है असर

राजनीतिक पार्टियों की भी मजबूरी होती है सीट पर जीत के लिए जाति पर अपना प्रभाव बनाए रखना। इसी का फायदा उठा कर बाहुबली अपना प्रभाव जाति पर बढ़ाने लगते हैं। बिहार में कास्ट की पॉलिटिक्स के कारण टिकट का बंटवारा किया जाता है। पार्टियों की मजबूरी हो जाती है कि जो भी प्रत्याशी जीतने की काबिलियत रखता है उसे ही टिकट देने में तरजीह देते हैं। अब वह चाहे क्रिमिनल बैकग्राउंड का भी हो तो पार्टियां इससे परहेज नहीं करती। लोग भी अपनी जाति का चेहरा देखकर उसे अपना समर्थन देते हैं। बाहुबल रखने वाले लोग न केवल राजनीति में बल्कि समाज में भी अगवा बनते हैं।

 

बिहार की राजनीति में बाहुबल का प्रभाव दशकों पुराना है। इस बार के चुनाव में दिलचस्प बात यह हैं कि बाहुबलियों की दूसरी पीढ़ी ने भी राजनीति में एंट्री कर ली है। सभी बड़ी पार्टियां इस रणनीति का हिस्सा बन चुके हैं। इस पर यह सवाल उठता है कि क्या बिहार की राजनीति कभी भी बाहुबल और धनबल से मुक्त हो पाएगी? वोटरों और समाज का अगवा करने वालों को तय करना होगा कि वे ऐसी राजनीति को कितना बढ़ावा देना चाहते हैं।