1977 का बिहार विधानसभा चुनाव न केवल बिहार बल्कि राष्ट्रीय सियासत का सबसे अहम चुनाव था। बिहार में कांग्रेस को सबसे करारी हार इसी मिली थी। बहुमत से चुनाव जीतने वाली जनता पार्टी की सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी, लेकिन 1977 के जन आंदोलन से कई बड़े सियासी चेहरे निकले। 

 

25 जून 1975 को इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल घोषित किया। करीब दो साल बाद 21 मार्च 1977 को आपातकाल हटाया गया। इसके बाद बिहार में विधानसभा चुनावों का ऐलान कर दिया गया। जनता में कांग्रेस के खिलाफ गुस्सा था। सरकारी दमन, मंहगाई और तानाशाही के खिलाफ पूरा विपक्ष एकजुट था। सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, भारतीय लोकदल और कांग्रेस (ओ) को मिलाकर जनता पार्टी बनी।

 

इस बीच, बिहार में इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ छात्र आंदोलन भड़क चुका था। सोशलिस्ट पार्टी और जनसंघ की छात्र इकाइयों ने इसका समर्थन किया। 1974 के जेपी आंदोलन ने जनता में कांग्रेस के प्रति नाराजगी को और तेल-पानी दिया। इसी आंदोलन से उठी सामाजिक न्याय की लड़ाई देश की सियासत में आज भी प्रासंगिक है। 90 के दशक में उभरे कई सियासी दल और उनके चेहरे जेपी आंदोलन की ही देन है। आपातकाल और जेपी आंदोलन की छांव में 1977 के विधानसभा चुनाव हुए तो इसमें कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया।

समय से पहले हुए चुनाव

बिहार विधानसभा का कार्यकाल 19 मार्च 1978 था। मगर उससे पहले ही केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार ने विधानसभा को भंग करने का आदेश दिया। कई राज्यों ने हाई कोर्ट की शरण ली। मगर वहां भी राहत नहीं मिली। समय से पहले चुनावों का ऐलान हुआ। जनता पार्टी के पक्ष में हवा थी। कांग्रेस ने खूब जोर आजमाई की, लेकिन पार्टी खुद को सबसे बुरी हार से नहीं बचा सकी। 


1977 चुनाव के अहम मुद्दे

  • जरूरी वस्तुओं की कमी
  • आर्थिक मंदी
  • महंगाई
  • सरकारी दमन
  • आपातकाल
  • बेरोजगारी
  • छात्र अधिकार

सियासी हत्याओं के खिलाफ आक्रोश

1977 में कांग्रेस की करारी हार के बीज करीब सात साल पहले ही बोए गए थे। 1970 के दशक में बिहार में सियासी हत्याओं से जनआक्रोश तेजी से उभरा। महंगाई और बेरोजगारी ने कांग्रेस के प्रति गुस्से को सातवें आसमान में पहुंचा दिया। सरकारी दमन और आपातकाल के खिलाफ जेपी आंदोलन ने खूब हवा बनाई। छात्रों के अधिकार की आवाज ने युवाओं को एकजुट किया। कांग्रेस में उच्च जातियों के वर्चस्व से पिछड़ी जातियों की गोलबंदी ने चुनाव को और भी दिलचस्प बना दिया।

 

जेपी आंदोलन का आठ सूत्रीय एजेंडा

  • छात्र संघ अधिकार
  • व्यावसायिक शिक्षा का प्रावधान
  • व्यवसाय के लिए बैंक ऋण
  • बेरोजगारी भत्ता
  • आवास
  • छात्रवृत्ति
  • मुद्रास्फीति पर लगाम
  • किफायती भोजन
  •  

लोकतंत्र की वापसी: आपातकाल में सरकार ने लोगों का खूब दमन किया। प्रेस की आजादी का हनन हुआ। आम जन मानस की गिरफ्तारी के बाद लोकतंत्र की वापसी सबसे बड़ा मुद्दा बना।

 

रोटी और रोजगार: 1977 के चुनाव में सामाजिक न्याय की मांग उठी। कर्पूरी ठाकुर ने आजादी और रोटी का नारा दिया। अगड़ी जातियों के वर्चस्व के खिलाफ पिछड़ों की आवाज को बुलंद किया। किसानी और रोजगार को चुनाव के केंद्र में रखा।

 

महंगाई: 1974 में मुद्रास्फीति 30 फीसद तक पहुंच गई। इसके अलावा 1966 से 1977 के बीच बिहार की विकास दर महज 2.5 फीसद में सिमट गई।

 

कैसे तैयार हुई 1977 चुनाव की पृष्ठभूमि?

  • 4 दिसंबर 1973 को छात्रों ने दो बसों को अगवा किया। देखते ही देखते पटना की सड़कों पर झड़पों का दौर शुरू हो गया। छह दिन बाद 10 दिसंबर को मगध विश्वविद्यालय में धरना प्रदर्शन और आंदोलन की शुरुआत हुई। पुलिस ने आंदोलन को दबाने की भरसक कोशिश की, लेकिन दांव उलटा पड़ गया। पटना और मगध विश्वविद्यालय से उठा छात्र आंदोलन राज्यव्यापी हड़ताल में बदल गया।

 

  • सात दिन बाद 17 दिसंबर से हड़ताल जारी हुई। 'पूरा राशन, पूरा काम, नहीं तो होगा चक्का जाम' नारा दिया गया। हड़ताल में रेलवे कर्मचारी, छात्र, पत्रकार, शिक्षकों के अलावा 120 से अधिक ट्रेड यूनियनों ने हिस्सा लिया।

 

  • 21 जनवरी 1974 को संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ और सीपीआई की संयुक्त संघर्ष समिति ने बिहार बंद का ऐलान कर दिया। अगले दिन 22 जनवरी 1974 को जय प्रकाश नारायण ने छात्रों की एक बड़ी सभा को आयोजित किया। उनसे गांवों के लिए कुछ समय निकालने की अपील की। इस बीच कर्पूरी ठाकुर ने सरकार के खिलाफ राजीतिक जिहाद की घोषणा कर दी।

 

  • 11 अप्रैल 1974 को बिहार में दोबारा छात्रों का आंदोलन भड़का। 'विधानसभा भंग करो और बिहार सरकार बर्खास्त करो' की मांग उठी। इस बीच 5 जून 1974 को जय प्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति की घोषणा कर दी। 

 

  • बिहार जनसंघर्ष समिति और बिहार छात्र संघर्ष समिति ने 4 नवंबर 1974 को पूरे बिहार में प्रदर्शन किया। बिहार कैबिनेट को बर्खास्त करने की मांग उठी। पटना का डाक बंगला चौराहा सियासी रण में बन चुका था। पुलिस की गोलीबारी में 5 लोगों की मौत से हालात और बेकाबू हो गए। उधर, जेपी पर पुलिस के हमले के बाद छात्रों का आंदोलन 'इंदिरा गांधी हटाओ' के आंदोलन में तब्दील हो गया।

 

  • 1974 में जेपी आंदोलन ने कांग्रेस के खिलाफ न केवल बिहार, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर माहौल बनाया। पूरा साल धरना प्रदर्शन, जुलूस, संघर्ष और सरकार के साथ टकराव में बीता। बिहार से निकला यह आंदोलन के देश के अन्य हिस्सों में फैल गया।

 

भारी हिंसा के बीच चुनाव


70 के दशक में बिहार में खूब सियासी हत्याओं को अंजाम दिया गया। साल 1977 में हिंसा की कुल 260 घटनाओं से बिहार दहल गया, इनमें 34 लोगों की जान गई। मृतकों में चार प्रत्याशी थे। उससे पहले 21 अप्रैल 1973 को स्वतंत्रता सेनानी सूरज नारायण सिंह और 2 फरवरी 1975 को रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा की हत्या ने जनता में आक्रोश पैदा किया।

 

1977 के बिहार विधानसभा चुनाव हिंसा के बीच संपन्न हुए। 10 और 12 जून को वोटिंग हुई। सरयू मिश्रा फारबिसगंज से चुनाव मैदान में थे, उनको चुनाव से पहले ही अगवा कर लिया गया। मोकामा में कृष्णा शाही पर हमला किया गया।

1977 चुनाव के प्रमुख चेहरे

1977 के चुनाव में कर्पूरी ठाकुर विपक्ष के सबसे बड़े चेहरे थे। चुनाव से पहले जगन्नाथ मिश्रा की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेस ने उनकी ही अगुवाई में चुनाव लड़ा। इंदिरा गांधी ने भी खूब ताकत झोंकी। मगर जनता पार्टी की लामबंदी ने जगन्नाथ मिश्रा के अगुवाई में कांग्रेस को करारी शिकस्त दी। जनता पार्टी ने कुल 311 सीटों पर चुनाव लड़ा। उसे 214 सीटों पर प्रचंड जीत मिली। 84 सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही। आठ प्रत्याशी तीसरे स्थान पर थे। अगर वोट शेयर की बात करें तो उसे 42.7 फीसद मत मिले।

 

जगन्नाथ मिश्रा की अगुवाई में कांग्रेस ने 286 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन जीत सिर्फ 57 पर मिली। बिहार के इतिहास में यह कांग्रेस की सबसे करारी हाथ थी। पार्टी 142 सीटों पर दूसरे और 58 पर तीसरे स्थान पर रही। उसका वोट शेयर घटकर महज 23.6 फीसद रह गया। इस चुनाव में कांग्रेस को बिहार के करीब हर जिले में करारी हार मिली, लेकिन पश्चिम चंपारण में उसका वर्चस्व कायम रहा।

निर्दलीय बने तीसरी सबसे बड़ी ताकत

73 सीटों पर प्रत्याशी उतारने वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को सिर्फ 21 सीटों पर जीत मिली। उसे आपातकाल का समर्थन करना भारी पड़ा। चार सीटों पर सीपीआई (मार्क्सवादी), दो पर झारखंड पार्टी, ऑल इंडिया झारखंड पार्टी और शोषित समाज दल को एक-एक सीट पर जीत मिली। 1977 के चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी तीसरे सबसे बड़े दल के तौर पर उभरे। कुल 24 सीटों पर उनका कब्जा था। उन्हें कांग्रेस के बराबर 23.7 फीसद वोट मिले।

 

दल वोट शेयर
जनता पार्टी 42.7%
कांग्रेस 23.6
सीपीआई  7.0%

 

जब दूसरी बार सीएम बने कर्पूरी ठाकुर

कर्पूरी ठाकुर बतौर सोशलिस्ट पार्टी के नेता के तौर पर पहली बार 1970 में मुख्यमंत्री बने। 1977 में जनता पार्टी को मिली प्रचंड जीत के बाद सीएम पद की रेस शुरू हुई। एक तरफ लोकदल से कर्पूरी ठाकुर थे और दूसरी तरफ जनता पार्टी अध्यक्ष सत्येंद्र नारायण सिन्हा। विधायक दल के चुनाव में कर्पूरी ठाकुर को 144  मत मिले। सत्येंद्र नारायण के पक्ष में 84 वोट आए। विधायक दल का चुनाव जीतने के बाद 22 जून 1977 को कर्पूरी ठाकुर ने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

 

साधारण नाई परिवार में जन्मे कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में सामाजिक न्याय की अलख जगाई। सरकार बनाने के बाद उन्होंने 9 मार्च 1978 को सरकारी सेवाओं में अन्य पिछड़ा वर्ग को 25 फीसद आरक्षण देने का निर्णय लिया। कर्पूरी ठाकुर ने दूसरा सबसे बड़ा फैसला पंचायत चुनाव कराने का लिया। पंचायत चुनाव में खूब हिंसा हुई, लेकिन कथित उच्च जातियों का बिहार की पंचायत से काफी हद तक वर्चस्व खत्म हो गया। करीब एक साल तक उनकी सरकार चली। 1997 में उन्हें सीएम पद छोड़ना पड़ा। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को सियासी गुर कर्पूरी ठाकुर से ही सीखने को मिले। 


कर्पूरी ठाकुर की सामाजिक न्याय की लड़ाई का असर ही था कि 1977 में कांग्रेस के 57 विधायकों में से 10 यादव समुदाय से थे। चार कोइरी और दो कुर्मी प्रत्याशी भी जीते थे। इसके अलावा 9 ब्राह्मण, 7 राजपूत और छह भूमिहार कांग्रेस की टिकट पर चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। साल 1974 में जयप्रकाश नारायण ने कहा था, 'जाति बिहार में सबसे बड़ी सियासी पार्टी है।' उनकी यह बात आज भी सटीक बैठती है।

 

कुल विधानसभा सीटें 324
कुल वोटर्स 3,49,77,092
कुल पड़े वोट 1,76,66,353
मत प्रतिशत 50.5%
जनरल सीटें 250
एससी सीटें 46
एसटी सीटें 28

 

 

दल कितनी सीटों पर लड़े  जीत
जनता पार्टी 311  214
कांग्रेस 286  57
निर्दलीय -- 24
सीपीआई  73  21
सीपीआई (मार्क्सवादी)  16  04
झारखंड पार्टी  31 02
शोषित समाज दल 26  01
ऑल इंडिया झारखंड पार्टी 21 01