दिल्ली में जिस मुख्यमंत्री पद के लिए आम आदमी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच चुनावी लड़ रही है, वह पद ही 37 साल के लिए 'लापता' हो गया था। वजह थी कि दिल्ली में 1956 से लेकर 1993 तक कोई विधानसभा ही नहीं थी।
मदन लाल खुराना ने दिल्ली की स्वायत्तता और विधानसभा के लिए आवाज उठाई। दिल्ली में बेहतर 1953 में राज्य पुनर्गठन समिति की स्थापना हुई। दिल्ली का विधानसभा दर्जा छीन लिया गया। दिल्ली में नगर निगम की स्थापना हुई। दिल्ली में विधानसभा के लिए जिस नेता ने सबसे ज्यादा शोर मचाया, उनका नाम मदन लाल खुराना था।
मदन लाल खुराना 2 दिसंबर 1993 से लेकर 26 फरवरी 1996 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे। 37 साल के सूखे के बाद यह पहली दफा था कि दिल्ली को अपना मुख्यमंत्री मिला था। वह भारतीय जनता पार्टी के सीनियर नेताओं में से एक थे।
रिफ्यूजी जिसे दिल्ली का शेर कहा गया
मदन लाल खुराना दिल्ली के तीसरे मुख्यमंत्री बने थे। उन्हें बीजेपी के नेता दिल्ली का शेर बुलाते थे। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में कई अहम पद संभाला, राजस्थान के राज्यपाल भी बने लेकिन उनकी सियासी कहानी, इससे कहीं ज्यादा बड़ी थी।
मदन लाल खुराना अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं के बेहद करीबी थे। वह राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से अपने शुरुआती दिनों में ही जुड़ गए थे।
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मदन लाल खुराना अविभाजित पाकिस्तान के ल्यारपुर में 15 अक्तूबर 1936 में पैदा हुए थे। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में अब यह जगह पड़ती है। पाकिस्तान से उनका परिवार दिल्ली आकर, दिल्ली का ऐसा हुआ कि दिल्ली के लोग आज भी उनका एहसान मानते हैं।
राजनीति में कैसे आए मदन लाल खुराना?
मदन लाल खुराना जब महज 12 साल के थे, तभी विभाजन के बाद उनके परिवार को भारत आना पड़ा। कीर्ति नगर के रिफ्यूजी कॉलोनी में रह रहा मदन लाल खुराना का परिवार कोई राजनीतिक रसूख वाला परिवार नहीं था। उन्होंने किरोड़ी मल कॉलेज से ग्रेजुएशन किया और राजनीति में सक्रिय हो गए।
मदन लाल खुराना के राजनीतिक जीवन में सबसे बड़ा बदलाव तब आया जब वह इलाहाबाद विश्व विद्यालय गए। यहीं से उन्होंने अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन किया। वह साल 1959 में इलाहाबाद स्टूडेंट यूनियन के महासचिव बन गए। 1960 आते-आते अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के महासचिव बन गए।
दिल्ली में विधानसभा के लिए लगाया जोर
मदन लाल खुराना जनसंघ से जुड़े रहे। मदन लाल खुराना, विजय कुमार मल्होत्रा जैसे दिग्गजों के साथ जुड़कर उन्होंने राजनीति शुरू की। साल 1980 में जनसंघ बीजेपी बना, तब मदन लाल खुराना का कद और बढ़ गया। यह वही दौर था, जब वह दिल्ली में अलग विधानसभा की मांग उठाने लगे थे।
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साल 1965 से लेकर 1967 तक वह जनसंघ के महासचिव रह चुके थे। ऐसे में उनके पास राजनीतिक अनुभव बड़ा था। उन्होंने नगर निगम की राजनीति में अपनी पैठ बनाई और बीजेपी में एक के बाद एक बड़ा पायादन पर काबिज होते गए।
साल 1984 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की करारी हार हुई। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ये चुनाव हुए थे, ऐसे में बीजेपी के आने का कोई तुक ही नहीं था। मदन लाल खुराना ने जमीन पर मेहनत की और भारतीय जनता पार्टी को दिल्ली में फिर से स्थापित किया। उन्हें बीजेपी के भीतर ही 'दिल्ली का शेर' कहा जाने लगा।
ऐसे आंदोलन को पूरा करने में हुए कामयाब
1980 तक वह दिल्ली विधानसभा के लिए सड़कों पर उतर गए थे। उनकी रैलियों में लाखों लोगों की भीड़ होती थी। उन्होंने सरकार पर इतना दबाव बनाया कि तत्कालीन सरकार ने दिल्ली में प्रशासनिक व्यवस्था के लिए समिति गठित कर दिया।
जस्टिस आर एस सरकारिया की अध्यक्षता में सरकारिया आयोग 1987 का गठन हुआ। उनकी समिति ने कहा कि दिल्ली पर केंद्र का नियंत्रण हो लेकिन स्थानीय मांगों के लिए प्रतिनिधि निकाय जरूर हो। आयोग ने दिल्ली में विधानसभा की बहाली की सिफारिश की, जिन्हें मंजूर कर लिया गया।
पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली सरकार ने साल 1991 में एक संविधान संशोधन किया। 1991 में दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का दर्जा दिया गया। दिल्ली विधानसभा की ताकतें कम थीं लेकिन एक सीएम मिला। 1 दिसंबर 1993 को दिल्ली में 37 साल बाद पहली बार विधानसभा चुनाव हुए और इसके बाद बीजेपी के नेता मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने।
मदन लाल खुराना की यह खुशी ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह पाई। उन्हें अपनी मेहनत का इनाम तो मिला लेकिन यह पद 2 साल 86 दिनों बाद गंवा देना पड़ा। वजह भी जनता पार्टी के एक नेता बने। वह नेता कोई और नहीं, अक्सर विवादों में रहने वाले सुब्रमण्यम स्वामी थे।
आखिर सुब्रमण्यम स्वामी ने क्या कहा था?
सुब्रमण्यम स्वामी ने 29 जून 1993 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि एक दलाल और हवाला कारोबारी सुरेंद्र जैन ने 1991 में लाल कृष्ण आडवाणी को 2 करोड़ रुपये दिए थे। सुरेंद्र जैन उस गिरोह का हिस्सा था जो जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की मदद करता था। यह आरोप न तो कोर्ट में साबित हो सका, न ही CBI को लाल कृष्ण आडवाणी और मदन लाल खुराना के बारे में कुछ भी मिला, लेकिन उन्हें आडवाणी के अनुरोध पर अपने पद को छोड़ देना पड़ा। सुब्रमण्यम स्वामी की पीसी ने उनसे दिल्ली की ताकत छीन ली।
क्यों उन्हें अपने पद से हटना पड़ा?
साल 1991 में ही कुछ हवाला कारोबारियों की गिरफ्तारी हुई थी। हवाला के जरिए कथित तौर पर पैसे जम्मू और कश्मीर में आतंकियों को मिल रहे थे। इसमें जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) तक का नाम सामने आया था। इनमें जिन लोगों का नाम उछाला गया, उनमें लाल कृष्ण आडवाणी, वीसी शुक्ला, शिव शंकर, शरद यादव और बलराम जाखड़ जैसे नाम सामने आए। मदन लाल खुराना का भी नाम सामने आया। विवाद बढ़ा तो आडवाणी ने सलाह दी कि इस्तीफा दे दो, जब तक दोषमुक्त न हो। उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
क्या इन आरोपों से कम हुआ रसूख?
मदन लाल खुराना के लिए कुछ साल मुश्किल रहे। उन्हें वक्ती झटका लगा लेकिन रसूख कम नहीं हुआ। पार्टी के भीतर उनके लिए समर्थन बना रहा। बस साहिब सिंह वर्मा से उनकी तना-तनी सुर्खियों में रही। वह मुरली मनोहर जोशी के भी करीबी थे। वह दोषमुक्त हो गए थे। वह 14 जनवरी से लेकर 1 नवंबर 2004 तक राजस्थान के राज्यपाल रहे। 1998 से लेकर 2004 तक केंद्रीय मंत्री रहे।