हो सकता था कि लाहौर, पाकिस्तान का नहीं भारत का हिस्सा होता। बात है 1947 की। भारत के बंटवारे के वक्त दो बाउंड्री कमीशन बनाए गए। पंजाब के लिए अलग, बंगाल के लिए अलग। इसके अध्यक्ष थे सिरिल रैडक्लिफ। रैडक्लिफ ने बाद में बताया कि एक बार उन्होंने लाहौर भारत को देने का फैसला कर लिया था लेकिन फिर बात अटक गई। हुआ यह कि पंजाब बाउंड्री कमीशन के कमीशन के एक मेंबर हुआ करते थे- मेहर चंद महाजन। पंजाब हाई कोर्ट के जज। जो बाद में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस भी बने। बंटवारे से चंद दिन पहले जस्टिस महाजन को पता चला कि पंजाब का एक महत्वपूर्ण इलाका पकिस्तान के हिस्से में दिया जा रहा है। जस्टिस महाजन अड़ गए। तब दो ऑप्शन रखे गए - गुरदासपुर या लाहौर। जस्टिस महाजन ने गुरदासपुर को चुना। लाहौर बड़ा शहर था लेकिन जस्टिस महाजन ने गुरदासपुर चुना, क्यों?

 

इस सवाल का जवाब चंद महीने बाद ही मिल गया। जब कबीलाइयों के भेष में पाकिस्तान फौज ने कश्मीर पर हमला किया। तब कश्मीर को भारत से जोड़ने वाला एकमात्र रास्ता गुरदासपुर से होकर जाता था। इसी रास्ते फौज गई और श्रीनगर बचाया जा सका। एक और दिलचस्प बात सुनिए, जिन दिनों कश्मीर और बाकी इंडिया के बीच सिर्फ एक कच्ची रोड हुआ करती थी। पाकिस्तान के सियालकोट से जम्मू तक पूरी ट्रेन चलती थी। आजादी के बाद 18 सितम्बर 1947 तक इस रूट पर ट्रेन चला करती थी जबकि बाकी भारत से जम्मू को जोड़ने में 25 साल का वक़्त लग गया और श्रीनगर को इसके आगे 50 साल और इंतज़ार करना पड़ा। यह इंतज़ार अब पूरा हो रहा है।

 

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कटरा से श्रीनगर तक वंदे भारत एक्सप्रेस के उदघाटन के साथ ही भारत का सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम यानी रेलवे , कश्मीर से जुड़ जाएगा लेकिन यह कहानी कश्मीर से शुरू नहीं हुई थी। कहा जाता है कि दुनिया के ज्यादातर बड़े आविष्कार- जैसे सैटेलाइट, माइक्रोवेव, पेन्सिलिन, जेट इंजन- इन सबका आविष्कार दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हुआ। कश्मीर तक रेल को आविष्कार तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इतने टफ टरेन में रेल बिछाने का यह अपनी तरह का अनूठा प्रोजेक्ट है और इसकी नींव भी युद्ध के कारण ही पड़ी थी। 

कश्मीर तक कैसे पहुंची रेल?

 

ट्रेनों का लेट होना, हमारी संस्कृति का हिस्सा है। कश्मीर तक ट्रेन 2025 में पहुंची जबकि इसके चलना शुरू कर दिया था 1853 में। अंग्रेज़ पूरे देश में रेलवे का जाल बिछा रहे थे। ब्रिटिश इंडिया के अलावा रियासतों में रेल बिछ रही थी। मसलन बड़ौदा, ग्वालियर, ये तमाम राजघराने रेलवे से जुड़ रहे थे। ऐसे में जम्मू कश्मीर के महाराजा रणबीर सिंह ने 1880 के करीब ब्रिटिश गवर्नर जनरल को एक प्रस्ताव भेजा- जम्मू को सियालकोट से जोड़ने की एक रेल लाइन। रणबीर सिंह बाद उनके बेटे महाराजा प्रताप सिंह ने इस सपने को आगे बढ़ाया। खजाने से 10 लाख रुपये खर्च किए। समझौता यह हुआ कि लाइन चलाएगी नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे और महाराजा को मिलेगा एक फीसदी ब्याज। बाकी जो कमाई होगी, वह पांच साल तक आधी-आधी बांटी जाएगी। 

 

 

इस रेल लाइन से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा है। दरअसल, सियालकोट जम्मू लाइन, दो राज्यों में बंटी थी। पंजाब और जम्मू कश्मीर। पंजाब के हिस्से में 60 पाउंड की पुरानी लोहे की पटरियां बिछाईं गईं जबकि जम्मू-कश्मीर के हिस्से में 75 पाउंड की नई स्टील की पटरियां। क्यों? क्योंकि महाराजा चाहते थे कि उनकी रियासत में सबसे बेहतरीन रेल सेवा हो। बहरहाल महाराजा की इस कवायद के चलते, जम्मू के बिक्रम चौक से सियालकोट तक 43 किलोमीटर लंबी रेल लाइन बनी। जिसका काम 1890 में पूरा हुआ। जैसा शुरुआत में बताया, आजादी के बाद तक इस लाइन पर ट्रेने चला करती थीं। जो जम्मू कश्मीर और पाकिस्तान को डायरेक्ट कनेक्ट करती थी। अगस्त 1947 में पाकिस्तान ने ऑपरेशन गुलमर्ग शुरू किया।

 

पाकिस्तान ने कबाइली हमलावरों के भेष में फौज भेजी और अपने यहां से होने वाला ट्रांसपोर्ट भी रोक दिया। लिहाजा जम्मू-सियालकोट रेल लाइन भी बंद हो गई। 1947 से 1949 तक कश्मीर को बचाने के लिए भारत ने पाकिस्तान से जंग लड़ी। बात UN गई, UN में हुई उठापटक के बाद जंग तो रुक गई लेकिन भारत के सामने एक ऐसा सवाल खड़ा हो गया जो कश्मीर मुद्दे से सीधे जुड़ा हुआ था।

 

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कश्मीर भारत का अभिन्न अंग लेकिन सिर्फ नक़्शे से देश नहीं बनता। शरीर के अंगों को खून पहुंचाने के लिए धमनियां चाहिए। ये धमनियां होती हैं, रेल। जहाज कितने ही उड़ा लिए जाएं लेकिन बड़े पैमाने पर, लम्बी दूरी तक लैंड ट्रांसपोर्ट के लिए आज भी रेल का कोई अल्टेरनेटिव नहीं। इसी सोच के चलते सीजफायर के तुरंत बाद J&K को रेलवे से जोड़ने की मुहिम शुरू हुई। जालंधर तक ट्रेन जाती थी। यहां से मुकेरियां तक रेल ट्रैक बनाया गया। फिर इसी लाइन को पठानकोट तक बढ़ाया गया। 44 किलोमीटर की यह लाइन 7 अप्रैल 1952 को चालू हुई। धीरे-धीरे रेल आगे बढ़ी। पठानकोट से मधोपुर और फिर 1966 में कठुआ तक। कठुआ पहुंचते ही आप जम्मू कश्मीर में एंटर हो जाते हो लेकिन ये महज सिम्बॉलिक कनेक्शन था। असली चुनौती आगे जम्मू तक पहुंचने की थी।

क्यों महसूस हुई जरूरत?

 

कठुआ से जम्मू तक रेल लाइन की नींव 1969 में डाली गई। 1965 युद्ध के बाद इंडिया समझ चुका था कि जम्मू कश्मीर तक रेल होना बहुत जरूरी है। ताकि सैनिकों को जल्द से जल्द भेजा जा सके। इस प्रोजेक्ट का महत्व ऐसे समझिए कि 1971 में जब इंडिया पाकिस्तान के बीच जंग जोरों पर थी, तब भी इस रेल लाइन का काम रोका नहीं गया। महज तीन साल में यह प्रोजेक्ट पूरा हुआ। इस लाइन पर पहली मालगाड़ी 2 अक्टूबर 1972 को चली थी। इसके बाद 2 दिसंबर 1972 को नई दिल्ली से जम्मू तक एक पैसेंजर ट्रेन चली थी। उस दौर में इसका महत्व इतना हुआ करता था कि दुल्हन सी सजी ट्रेन में बैठकर दो केंद्रीय मंत्री भी जम्मू पहुंचे थे। इस ट्रैक पर चलने वाले ट्रेन को तब श्रीनगर एक्सप्रेस कहा जाता था, जिसे अब झेलम एक्सप्रेस के नाम से आप जानते हैं। 

 

1972 में जम्मू तक जब रेल पहुंची तब 25 साल के इंतजार के बाद जम्मू रेल के नक्शे पर लौटा था। धीरे-धीरे जम्मू तक और ट्रेनें शुरू हुईं: कश्मीर ट्रेन (अब जम्मू मेल), सियालदाह एक्सप्रेस, जम्मू-पठानकोट पैसेंजर और 24 दिसंबर 1976 को बॉम्बे-जम्मू तवी सुपरफास्ट।


जम्मू तक ट्रेन पहुंचने के बाद टेक्निकली जम्मू कश्मीर और भारत के अन्य हिस्सों के बीच रेलवे कनेक्शन जुड़ गया था लेकिन जम्मू और कश्मीर, दो अलग दुनिया हैं। पॉलिटिक्स से लेकर सिक्योरिटी तक, तमाम मसलों में कश्मीर अलग मायने रखता है। इसलिए असली कनेक्शन तभी माना जा सकता था जब कश्मीर तक ट्रेन पहुंचे लेकिन यह काम टेढ़ा था।

 

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शुरुआत में हमने बताया था कि कैसे भारत और बाकी कश्मीर को जोड़ने वाला एकमात्र हाईवे, NH 44 उधमपुर से जाता था। यानी उधरपुर कश्मीर का गेटवे था और यही भूमिका इसने रेलवे के लिए भी निभाई। 1983 में इंदिरा गांधी ने जम्मू-उधमपुर लाइन की आधारशिला रखी। सिर्फ 53 किलोमीटर की इस लाइन को बनाने का अनुमानित खर्च था 50 करोड़ रुपये और समय सीमा थी 5 साल लेकिन इसे बनाने में पूरे 21 साल लग गए और खर्च हुए 515 करोड़ रुपये। इस छोटी सी रेल लाइन को बनाने में इतना वक्त क्यों लगा?

 

इस एक सवाल के जवाब से आप कटरा श्रीनगर रेल लाइन जिसका उदघाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करने वाले हैं, उसका महत्व समझ सकते हैं। सिर्फ जम्मू-उधमपुर लाइन बनाने के लिए 20 सुरंगें और 158 पुल बनाए गए। जिन्हें शिवालिक की पहाड़ियों को काटकर बनाया गया था। आगे कश्मीर तक रेल पहुंचाना तो और भी बड़ी चुनौती थी। लिहाजा इसके लिए एक अलग प्रोजेक्ट बनाया गया।
 
उधमपुर-श्रीनगर-बारामूला रेल लिंक (USBRL)

 

जम्मू-उधमपुर लाइन का मसौदा जब तय हुआ था तब यह सिर्फ स्टैंड अलोन प्रोजेक्ट था लेकिन 1994 में इसे एक बड़े प्रोजेक्ट का सेक्शन बना दिया गया। 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने ऐलान किया कि अब रेल लाइन उधमपुर से आगे श्रीनगर और फिर बारामूला तक जाएगी। इस प्रोजेक्ट को नाम दिया गया - उधमपुर-श्रीनगर-बारामूला रेल लिंक (USBRL), यही वह प्रोजेक्ट है, जिसकी चर्चा आप लगातार सुन रहे हैं। जिसके तहत कटरा से श्रीनगर रेल लाइन बनी है। USBRL प्रोजेक्ट के तहत सिर्फ श्रीनगर ही नहीं, LOC के पास उरी कुपवाड़ा तक रेलवे लाइन बिछाई जानी है। USBRL प्रोजेक्ट जब शुरू हुआ था, इसका बजट, 2500 करोड़ था लेकिन 2025 आते-आते इस पर 42 हज़ार 930 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं।
 

यह प्रोजेक्ट चार हिस्सों में बंटा है - 
लेग-0: जम्मू से उधमपुर (53 किमी) जो 2005 में पूरा हुआ। 
लेग-1: उधमपुर से कटरा (25 किमी), 2014 में पूरा हुआ।
लेग-2: कटरा से बनिहाल (111 किमी) , 2024 दिसंबर में पूरा हुआ है। इसी को अब राष्ट्र को समर्पित किया जा रहा है।
लेग-3: बनिहाल से बारामूला (135 किमी), 2013 में पूरा हुआ

 

लेग 2, कटरा से बनिहाल, इस प्रोजेक्ट का सबसे चुनौतीपूर्ण हिस्सा था। इसी कारण इसे पूरा होने में 2024 तक का समय लग गया। 1994 में जब इस प्रोजेक्ट की घोषणा हुई थी। तब जम्मू-उधमपुर लाइन का काम चल रहा था। उस लाइन की दिक्कतों को देखकर तब मान लिया गया था कि कश्मीर में रेल दो हिस्सों में बंटी होगी। एक कश्मीर के अंदर, बनिहाल से बारामुला और एक जम्मू से उधमपुर। कहने का मतलब, यह माना जा रहा था कि कश्मीर के अंदर ट्रेन तो होगी लेकिन उसे बाकी इंडिया से कनेक्ट नहीं किया जा सकेगा। भारत की इस सोच में परिवर्तन आया एक और युद्ध के बाद। कारगिल में धोखा खाए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2002 में USBRL को राष्ट्रीय प्रोजेक्ट घोषित कर दिया यानी पूरा खर्च केंद्र सरकार करेगी। वाजपेयी की पहल के बाद जोर-शोर से काम शुरू हुआ और लेग 1 और 3 का काम लगभग एक दशक के अंदर पूरा कर लिया गया। लेग 2 में इतना टाइम क्यों लगा, क्या क्या चुनौतियां आई। और फीचर्स क्या हैं। ये जानने के लिए हर चरणों को पॉइंट वाइज जान लेते हैं।
 
लेग-1: उधमपुर से कटरा (25 KM)

 

यह छोटा सा हिस्सा माता वैष्णो देवी के भक्तों के लिए बेहद खास था। इसकी पहली डेडलाइन 2005 थी लेकिन काम अधूरा रहा। इसके बड़ा दो और डेडलाइन मिस हुई। 2005 और 2009 में। 2009 में एक सुरंग का एक हिस्सा धंस गया। दो साल तक काम बंद रहा। इंजीनियरों के सामने कई चुनौतियां थीं- 7 बड़ी सुरंगें, जिनमें सबसे लम्बी 3.15 किलोमीटर थी। 30 बड़े पुल, जिनमें सबसे ऊंचा 85 मीटर। हर पुल पर विशेष एंटी-सीस्मिक तकनीक, ताकि भूकंप से स्ट्रक्चर मुकाबला कर सके। हवा के झोंकों से बचाने के लिए खास डिजाइन। पहाड़ी टरेन पर खतरे और जम्मू कश्मीर में सुरक्षा की चुनौतियों को देखते हुए, इस लाइन को विशेष तकनीकों से बनाया गया है। मसलन हर 100 मीटर पर सेंसर हैं। ऑटोमैटिक वेदर अलार्म लगाए गए हैं।
 
लेग-2: कटरा से बनिहाल (111KM)

 

USBRL प्रोजेक्ट का यह सबसे मुश्किल हिस्सा है। इसका पूरा होना इंजीनियरिंग के चमत्कार से कम नहीं। क्योंकि 111 किलोमीटर में से 97.34 किलोमीटर सिर्फ सुरंगें हैं! 35 बड़ी सुरंगें (27 मुख्य और 8 एस्केप टनल), 27 बड़े पुल और 10 छोटे पुल, चेनाब नदी पर दुनिया का सबसे ऊंचा रेल पुल और सबसे बड़ी चुनौती- टी 33, वह सुरंग जो पूरा होने का नाम ही नहीं ले रही थी।

 

लेग 2 को पूरा करते हुए भारतीय रेल ने कई रिकॉर्ड बनाए। इनमें पहला तो चेनाब पर बना दुनिया का सबसे ऊंचा रेल पुल ही है, जिसकी खूब चर्चा होती है। यह 359 मीटर ऊंचा है, जिसकी ऊंचाई एफिल टॉवर से भी 35 मीटर ज्यादा है। इस पुल की लंबाई 1.3 किलोमीटर है और इसमें 24,000 टन स्टील का उपयोग किया गया है। यह 266 किलोमीटर प्रति घंटे की हवा में भी स्थिर रह सकता है। इसे बनाने में 'सेल्फ-एंकरिंग' सिस्टम का इस्तेमाल हुआ है। यानी भूकंप आने पर भी पुल खुद को संभाल सकता है।
 
भारत का पहला केबल स्टेड रेल पुल भी USBRL के लिए ही बनाया गया। कटरा से जब आप श्रीनगर की ओर बढ़ेंगे, तो लगातार चार सुरंगे पड़ेंगी और फिर अचानक आप आसमान में तैरने लगेंगे, यह अंजी खड्ड पुल है। अगल-बगल से गुज़रती मोटी-मोटी केबल ही भरोसा दिलाती हैं कि हवा के बीच ज़मीन का कोई सिरा है, जो आपको थामे हुए है। इस गहरी खाई पर पहले चनाब पुल की ही तरह आर्च ब्रिज बनाने की योजना थी। आर्च ब्रिज ऐसी जगहों पर बनाए जाते हैं, जहां बीच में पिलर खड़े करने का स्कोप न हो लेकिन आर्च ब्रिज को भी कम से कम दो जगहों पर सहारे की ज़रूरत होती है। एक इस छोर, एक उस छोर। लेकिन अंजी खड्ड में सिर्फ एक ही छोर पर कोई पिलर खड़ा करने की गुंजाइश थी। दूसरी तरफ लगभग खड़ी ढलान थी। इतने तीखे एंगल पर कुछ बनाना संभव नहीं लग रहा था। तिसपर ढलान की मिट्टी भुरभुरी थी।

 

कैसे बनी सबसे मुश्किल सुरंग?
 
इंजीनियर समझ गए कि वे इस जगह पर सिर्फ एक पायलॉन खड़ा कर सकते हैं, जिसे पूरे पुल का भार उठाना होगा। ऐसे एक केबल स्टेड पुल की कल्पना ने जन्म लिया। एक पुल जिसका सिर्फ एक खंभा होगा, जिससे झूलती केबल पूरे पुल को संभालेंगी। 193 मीटर ऊंचे इस खंभे पर 96 केबल खींची गई हैं, जो खाई से 331 मीटर ऊंचाई पर पुल के मुख्य हिस्से को संभालती हैं। ऊंचाई में चिनाब पुल से महज़ 28 मीटर ही छोटा है। हमने 28 मीटर कह तो दिया लेकिन अपने इर्द गिर्द सात मंज़िला इमारत की छत से झांकिएगा। जो ऊंचाई आपको नज़र आ रही है, वह 28 मीटर ही है।

 

भारत की सबसे लम्बी सुरंग T-49 भी इसी लेग का हिस्सा है। सुंबड़ से खड़ी के बीच पड़ने वाली इस सुरंग की लंबाई 12.75 किलोमीटर है। सुरंग में हर 500 मीटर पर इमरजेंसी एग्जिट बनाए गए है। इसमें विशेष वेंटिलेशन सिस्टम, फायर फाइटिंग सिस्टम और सीसीटीवी लगे हैं। बाकायदा ऑक्सीजन लेवल भी चेक किया जाता है। T49 ने सवा ग्यारह किलोमीटर लंबी पीर पंजाल टनल का रिकॉर्ड तोड़ा, जो USBRL पर ही बनिहाल से काज़ीगुंड के बीच है लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि न चिनाब पुल, न अंजी खड्ड पुल और न ही टी 49 इस प्रॉजेक्ट का सबसे चुनौतीपूर्ण हिस्सा था। इस प्रॉजेक्ट पर काम कर रहे इंजीनियर्स की नींद अगर किसी ने हराम की थी, तो वह थी महज़ सवा तीन किलोमीटर लंबी T-33 सुरंग, जिसे पहले T1 कहा जाता था।
 
यह सुरंग बनाना क्यों मुश्किल था, ये समझने से पहले आपको जानना होगा कि ये बनी किस जगह है। इतना तो आप जानते ही हैं कि करोड़ों साल पहले ऑस्ट्रेलिया से अलग हुआ ज़मीन का हिस्सा एशिया की ज़मीन से टकराया तो हिमालय उठ खड़े हुए। आज भी भारतीय प्रायद्वीप एशिया भूखंड पर ज़ोर लगा रहा है, हिमालय और ऊंचे होते जा रहे हैं। जहां इन दो भूखंडों की टक्कर होती है, वहां ज़मीन में सिलवटें पड़ती हैं और घर्षण से चट्टानें बारीक पिस जाती हैं। 

 

ऐसी ही एक सिलवट अफगानिस्तान से लेकर अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी छोर तक है, जिसे कहा जाता है मेन बाउंड्री थस्ट या MBT। इसे पार किए बिना रेलवे लाइन जम्मू से श्रीनगर नहीं जा सकती थी। रेलवे ने तय किया कि वो MBT को कटरा के ठीक बाद पार करेंगे। जहां त्रिकूट पर्वत है, जिसके ऊपर वैष्णो देवी मंदिर है। रेलवे को अंदाज़ा तो था कि काम मुश्किल हो सकता है लेकिन कितना, यह नहीं मालूम था। पहले परंपरागत तकनीक से D शेप टनल पर काम हुआ। लेकिन थोड़ी ही खुदाई के बाद मालूम चला कि पहाड़ इतना मज़बूत है ही नहीं कि टनल अपने आप को संभाल पाए तो तकनीक बदली गई और एक अंडाकार सुरंग पर काम शुरू हुआ। लेकिन जैसे ही सुरंग 470 मीटर लंबे एमबीटी पर पहुंची, इस तरीके ने भी काम करना बंद कर दिया। करोड़ों वर्षों के घर्षण ने चट्टानों को बारीक चूरे में बदल दिया था ऊपर से पानी की आवक इतनी थी कि सुरंग में नदी सी बहने लगी। 

 

इंजीनियरों ने पाया कि उनके सामने एक ऐसी संरचना है, जो दिखने में ठोस लगे, लेकिन वह पानी की तरह है। जितनी मिट्टी हटाओ, उतना वह गिरती जाएगी। इसके चलते कई बार सुरंग का काम ठप पड़ा। दुनिया भर से एक्सपर्ट बुलाए गए। अंत में एक रास्ता निकला कि आगे ठोस चट्टान नहीं है, तो ठोस चट्टान बना लेते हैं। भुरभुरी मिट्टी में पाइप लगाकर केमिकल डाला गया। ये केमिकल भुरभुरी मिट्टी और पानी को जमाकर ठोस कर देता। फिर इस ठोस जगह से धीरे धीरे एक सुरंग खोदी गई। चिनाब पुल बन गया, अंजी पुल बन गया उसके भी कहीं बाद जाकर दिसंबर 2024 में यह सुरंग पूरी तरह बनकर तैयार हुई। इस सुरंग में खास सेंसर लगाए गए हैं, जो एमबीटी की हरकत तो मापते रहते हैं, ताकि अनहोनी से पहले ही रेल परिचालन रोक दिया जाए। 


लेग-3: बनिहाल से बारामूला (135 KM)

 

USBRL के तीसरे लेग में हम कश्मीर में दाखिल हो जाते हैं। इसे बनाने में भी चैलेंजेस की कमी नहीं थी। यहां पीर पंजाल की रेंजेस हैं, जिनके बीच से 11.215 किलोमीटर लंबी सुरंग बनाई गई है। एक वक्त यह भारत की सबसे लंबी सुरंग थी। इस लेग पर 2008 में ट्रेन चलना शुरू हुई थी। जिसके चलते बनिहाल से बारामूला का सफर 4-5 घंटे से घटकर 2 घंटे का हो गया है। पूरे प्रोजेक्ट से ऐसे तमाम फायदे हुए हैं। जम्मू से श्रीनगर का सफर अब 8-10 घंटे की जगह 3-4 घंटे में हो जाएगा। USBRL ट्रैक्स पर चलने वाली ट्रेन्स को आधुनिक सुविधाओं से लेस किया गया है। मसलन इस रूट पर चलने वाली ट्रेन्स पूरी तरह एयर कंडीशंड और हीटेड कोच वाली होंगी। ऑटोमैटिक वेदर मॉनिटरिंग होगी। बर्फ के मौसम में स्नो कटर्स का इस्तेमाल होगा।
 
ये तमाम अच्छी बाते हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि USBRL प्रोजेक्ट को लेकर सब खुश हैं। जम्मू के लोगों में इस प्रोजेक्ट को लेकर अलग आशंकाएं हैं। ऐसे समझिए कि पहले कश्मीर जाने वाले सभी लोगों को जम्मू आना पड़ता था। दिल्ली, लुधियाना, अमृतसर और जयपुर से बसें आती थीं। ट्रेन भी थीं लेकिन USBRL के बाद लोग सीधे कटरा और फिर वहां से श्रीनगर जाएंगे। दिल्ली से बाकी इंडिया से सीधे श्रीनगर के लिए अभी कोई डायरेक्ट ट्रेन नहीं है। सुरक्षा इंतजामों के चलते पहले कटरा जाना होगा, फिर कश्मीर के लिए ट्रेन पकड़नी होगी लेकिन जम्मू का नुकसान तब भी होगा ही। 

 

इससे पहले 2014 में जब कटरा रेलवे का उद्धघाटन हुआ। तब भी जम्मू को नुकसान हुआ था क्योंकि वैष्णो देवी जाने वाले यात्री अब जम्मू में नहीं रुकते। जम्मू के साथ एक बड़ी दिक्कत 2021 के बाद शुरू हुई है। डोगरा शासकों के समय से जम्मू कश्मीर में एक परंपरा चलती थी- दरबार मूव। जाड़ों में पूरी सरकारी मशीनरी, लगभग 10 हजार लोग श्रीनगर से जम्मू चले आते थे लेकिन 2021 में लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने यह प्रथा ख़त्म कर दी। इससे जम्मू के बिजनेस को खासा नुकसान हुआ। आने वाले समय में सरकार दिल्ली-अमृतसर-कटरा एक्सप्रेसवे बनाने जा रही है। 669 किलोमीटर लम्बा ये एक्सप्रेसवे जम्मू शहर को बायपास करेगा और लोगों को डर है कि जम्मू और अधिक अलग-थलग पड़ जाएगा। इसी के चलते USBRL प्रोजेक्ट के तहत लोगों की मांग है कि जम्मू को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाए व्यापारियों को मुआवजा दिया जाए। 

सरकार का क्या प्लान है?

 

जम्मू को लेकर सरकार सोच सकती हैं लेकिन फिलहाल USBRL को आगे और बढ़ाने का प्लान है। बारामुला से कुपवाड़ा तक रेल लाइन बनाई जाएगी। 39 किलोमीटर लंबी इस रेल लाइन में 9 स्टेशन होंगे। जिससे LOC के पास के इलाके भी रेल लाइन से जुड़ जाएंगे। अगली योजना है बारामूला-उरी एक्सटेंशन: यह 50 किलोमीटर का नया रूट होगा। इसके अलावा, अवंतीपोरा-शोपियां लाइन बनाई जानी है, जिसके बाद साउथ कश्मीर भी रेल नेटवर्क का हिस्सा बन जाएगा। सरकार हिमाचल के रास्ते लेह तक भी रेल लाइन बिछाना चाहती है।
इन तमाम रेल लाइनों के अलावा सरकार कुछ बड़े इंफ्रास्ट्रचर प्रोजेक्ट्स भी बनाने जा रही है। मसलन, कोल्ड स्टोरेज, वेयरहाउस फूड प्रोसेसिंग यूनिट और लॉजिस्टिक हब। ये सारी बातें भविष्य की योजनाएं हैं लेकिन फ़िलहाल कश्मीर को भारत को जोड़ने का लक्ष्य पूरा हो चुका है। 

 

USBRL के रूप में सिर्फ एक रेल लाइन ही पूरी नहीं हुई है। भारतीय रेल का कॉन्फिडेंस बूस्ट करने में इस प्रॉजेक्ट की बड़ी भूमिका है। अंग्रेज़ों ने भारत के ज़्यादातर हिस्सों में रेल लाइन बिछाई ये सही बात है लेकिन वह भी पहाड़ी इलाकों में चहलकदमी से कतराए। इसके कुछ अपवाद भी हैं, जैसे कालका शिमला, माथेरान हिल रेलवे, नीलगिरी माउंटेन रेलवे और दार्जीलिंग हिमालयन रेलवे लेकिन जैसे हमने कहा, ये अपवाद हैं, नैरो गेज प्रॉजेक्ट्स हैं। पूर्वोत्तर में भी मीटर गेज पर काम हुआ। अंग्रेज़ों और फिर उनके बाद भारतीय रेल ने भी ज़्यादातर मैदानी इलाकों में काम किया। हम लंबी सुरंगे या पुलों को बनाने से बचते थे। आपको कई उदाहरण मिल जाएंगे, जहां नदी के सबसे छोटे पाट पर पुल बनाने के लिए लाइनें कई किलोमीटर घूम जाती थीं। सुरंगें बनाने से बचने के लिए लाइनें पहाड़ के इर्द-गिर्द घूम जाती थीं लेकिन कोंकण रेलवे ने भारतीय रेल को वो कॉन्फिडेंस दिया कि वे मुश्किल पहाड़ी इलाकों में भी एक प्रॉपर ब्रॉड गेज नेटवर्क बिछा सकती है। लंबी सुरंगें, ऊंचे पुल बना सकती है। यही कॉन्फिडेंस USBRL को बनाने में काम आया और अब भारत इस अनुभव का इस्तेमाल पूर्वोत्तर और उत्तराखंड- हिमाचल में कर रहा है। 

 

ये बात ठीक है कि USBRL की लागत और उसकी कैपेसिटी-सेफ्टी को लेकर कुछ जायज़ सवाल हैं लेकिन इस प्रॉजेक्ट के टैंजिबल-इनटैंजिबल फायदे बहुत हैं। सामरिक महत्व के मामले में भी और लोगों की ज़िंदगियां आसान करने के मामले में भी। अब सरकार को चाहिए कि वह इसपर काम करे कि USBRL की कैपेसिटी को कैसे बूस्ट किया जा सकता है, ताकि वह उस मकसद को पूरा करे, जिसके लिए उसे बनाया गया था, उसका सपना देखा गया था।