जिन लोगों के कंधे पर कानून की रक्षा का भार हो, अगर वे बलात्कारी बन जाएं तो क्या हो। पुलिस कस्टडी में किसी लड़की के साथ गैंगरेप हो जाए तो क्या हो? क्या हो अगर अदालत ये कह दे कि लड़की सेक्स कर चुकी है, उसने विरोध नहीं किया, इसलिए उसकी सहमति मानी जाए। कोर्ट भी सामान्य नहीं। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने यह कहते हुए दोषियों को बरी कर दिया। मथुरा रेप केस की कहानी, कुछ ऐसी है। महराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के एक देसाईगंज पुलिस स्टेशन में एक आदिवासी लड़की के साथ 26 मार्च 1972 को दो पुलिसकर्मी हिरासत में रेप करते हैं। रेप के वक्त पुलिसकर्मी वर्दी में होते हैं। वे शराब के नशे में होते हैं और लड़की को डर दिखाकर रेप कर डालते हैं। रेप केस में पीड़िता की पहचान उजागर नहीं करते हैं, इसलिए पीड़िता का नाम मथुरा तय होता है। रेप के वक्त मथुरा नाबालिग थी और उसकी उम्र 14 से 16 के बीच थी।

मथुरा के मां-पिता गुजर चुके होते हैं, वह अपने भाई गामा के साथ रह रही होती है। वह लोगों के घरों में काम करती है, इसी दौरान उसे अशोक नाम के एक युवक से प्यार हो जाता है। जब ये बाद उसके भाई को पता लगती है तो वे इस पर ऐतराज जताते हैं। मथुरा, प्यार में होती है और अपने प्रेमी के साथ चली जाती है। मथुरा के भाई को यह रिश्ता नहीं पसंद था। वह गढ़चिरौली पुलिस स्टेशन में एक एफआईआर रजिस्टर कराता है। शिकायत के बाद पुलिस अशोक और उसके घरवालों को थाने में बुलाकर पूछताछ करती है।


मथुरा को रोका, उसके भाइयों को बाहर भेज दिया 

जांच के बाद मथुरा,अशोक और उसके भाई को पुलिस घर जाने के लिए कह देती है। मथुरा के भाइयों का बयान पुलिस रात में 10.30 मिनट पर दर्ज कर लेती है। पुलिस गामा से कहती कि वह मथुरा के जन्म प्रमाणपत्र की कॉपी लेकर आए। जब वे थाने से बाहर जा रहे होते हैं, पुलिस मथुरा को थाने में रुकने के लिए कहती है। उसके रिश्तेदारों से पुलिस कहती है कि इंतजार करे।

लाइट बुझाई, गेट लगाया और थाने में कर दिया रेप
पुलिसकर्मी, गेट बंद करते हैं और अंदर की लाइट ऑफ कर देते हैं। मथुरा के घरवालों को शक होता है कि यह क्या हुआ है। पुलिसकर्मियों में से एक गणपत मथुरा को वॉशरूम लेकर जाता है और कहता है कि कपड़े उतार दे। मथुरा के साथ वह जबरन रेप करता है। दूसरा पुलिसकर्मी तुकाराम भी आता है। वह भी रेप की कोशिश करता है लेकिन शराब ज्यादा पीने की वजह से ऐसा वह कर नहीं पाता है। 

मथुरा बाहर आकर अपने साथ हुई आपबीती बताती है। भीड़ धमकी देती है कि वह थाने को जला देगी, तब जाकर हेड कांस्टेबल मथुरा का बयान दर्ज करता है। वह डॉक्टर के पास भेजी जाती है लेकिन उसके शरीर पर कोई निशान नहीं होते हैं। बॉडी पर कथित तौर पर सीमेन के निशान नहीं मिलते हैं। लड़की के कपड़ों पर सीमेन पाया जाता है। डॉक्टर अनुमान लगाते हैं कि मथुरा की उम्र 14 से 16 साल के बीच में है। अदालत में यह मुकदमा पहुंचता है।

कोर्ट के फैसले शर्मनाक थे
मथुरा की ओर से यह केस एडवोकेट वसुधा धागमवार लड़ती हैं। सेशन कोर्ट फैसला सुनाता है कि आरोपी दोषी नहीं है। पीड़िता ने सहमति से सेक्स किया है। पीड़िता पहले भी सेक्स कर चुकी है। वह अशोक और नुशी से डरी थी इसलिए उसने आवाज नहीं की। दोनों पुलिसकर्मियों को कोर्ट बरी कर देती है। यह केस बॉम्बे हाईकोर्ट में पहुंचता है। हाई कोर्ट सेशन कोर्ट के फैसले को पलट देता है और कहता है कि यह रेप है। दोनों पुलिसकर्मियों को मथुरा नहीं जानती है और वह अपने यौन इच्छाओं को पूरा करने के लिए अजनबियों से शारीरिक संबंध नहीं बनाएगी, यह बेतुका है। सितंबर 1979 में यह केस सुप्रीम कोर्ट पहुंचता है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जसवंत सिंह, जस्टिस कैलाशम और जस्टिस कौशल हैरान करने वाला फैसला सुनाते हैं। सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट के फैसले को पलट देता है। सुप्रीम सिर्फ तीन कारणों पर ऐसा फैसला सुनाता है, जिसे सुनकर देशभर के लोग भड़क जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट का कहना होता है कि रेप के दौरान मथुरा ने उन्हें रेप करने से नहीं रोका, कोई प्रतिरोध नहीं किया। मथुरा के शरीर पर रेप के बाद कोई निशान नहीं थे। वह सेक्स की आदती थी। कोर्ट ने 'Habituated to sexual intercourse' का जिक्र किया था। पीड़िता का 2 फिंगर टेस्ट भी किया गया था।

कोर्ट के फैसले में खामी क्या थी?
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला, बेहद आपत्तिजनक था। महिलाएं इस फैसले के खिलाफ आक्रोशित हो गई थीं। फैसला का तीसरा मुद्दा ऐसा था, जिसे सुनकर हर कोई हैरान था। इस फैसले का हर पैरा, किसी विकृति की तरह था। शादी से पहले यौन संबंधों को लेकर भी यह फैसला बेहद संकीर्ण सोच वाला था। भय या डर की वजह से न बोल पाने को कोर्ट ने सहमति समझ ली, सरेंडर करने को सेक्सुअल कसेंट। सितंबर 1979 के इस फैसले के कुछ दिनों बाद भी सामाजिक और महिलावादी संगठनों ने आंदोलन किया। महिलाएं धरने पर बैठीं और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर जनाक्रोश बढ़ता गया।

कानून के प्रोफेसर डॉक्टर उपेंद्र बख्शी, रघुनाथ केलकर और लोतिका सरकार, वसुधा धागमवार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ खुला खत लिखा। खत में लिखा गया कि भय की वजह से चुप चाप प्रतिक्रियाहीन हो जाना, सेक्स के लिए सहमति नहीं है। शादी से पहले यौन संबंधों को लेकर यह सोच दकियानूसी ह। महिलाओं ने इस फैसले का रिव्यू मांगा। मीडिया ने भी महिलाओं का साथ दिया।

महिलाओं ने 'सहेली' और 'फोरम अगेंस्ट रेप' जैसी संस्थाएं बनाईं। दिल्ली, मुंबई और लखनऊ जैसे शहरों में विरोध प्रदर्शन हुए। कोर्ट ने यह भी कहा कि मथुरा के समर्थन में कोई कानून नहीं है। लोगों का गुस्सा बढ़ा तो कानून बदलना पड़ा। साल 1983 में सरकार को आगे आना पड़ा, जिसके बाद द क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट 1983 पेश हुआ। साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 (ए) सामने आई। रेप के संदर्भ में इस धारा का मतलब था कि अगर पीड़िता कहे कि उसके साथ रेप हुआ तो यह माना जाए कि उसके साथ ऐसा हुआ होगा।

इस केस केस बाद से से भारतीय दंड संहिता की धारा 376 में भी बदलाव हुआ। धारा 376 में एक प्रावधान जोड़ा गया कि अगर कोई पुलिस अधिकारी, अपनी कस्टडी में महिला के साथ रेप करता है तो उसे कम से कम 10 साल की सजा मिलेगी, जिसे आजीवन कारावास में बदला जा सकेगा। इसके अलावा, धारा 376 (बी), सी, डी भी जोड़ी गई। इस कानून में यह भी बदलाव हुआ कि रेप के केस में अब आरोप सत्यापित करने की जिम्मेदारी, पीड़िता नहीं, आरोपी की होगी। इस कानून के बाद यह भी बदला कि किसी भी महिला को सूरज डूबने के बाद पुलिस गिरफ्तार नहीं करेगी, उसे पुलिस स्टेशन नहीं लेकर आएगी।


पीड़िता दोषी नहीं होती है
इस केस के बाद समाज में बहुत कुछ बदल गया था। पीड़िता को ही दोषी ठहराने वाली मानसिकता पर यह प्रहार था। यह कदम बेहद जरूरी था। सोचकर देखिए, जिस पीड़िता के साथ रेप हुआ, उसे कोर्ट ने सेक्स की आदी कह दिया। वजह ये था कि वह अपने प्रेमी से शारीरिक संबंध बना चुकी थी। कोर्ट ने भले ही सीधे शब्दों में यह न कहा हो लेकिन 'Habituated to sexual intercourse' किसी महिला के लिए कितना अपमानजनक है। इस केस के बाद अदालतें, ऐसे मामलों पर संवेदनशील फैसले देने लगीं, देश का कानून बदला। यह पहली बार था जब रेप के मुद्दे पर कहीं लोग इतनी बुरी तरह से भड़क गए हों।