पश्चिम बंगाल की राजनीति में मटुआ समुदाय की भूमिका बेहद अहम मानी जाती है। नामशूद्र जाति से आने वाला यह धार्मिक समुदाय न केवल बड़ी संख्या में है, बल्कि मतदान के समय निर्णायक भूमिका भी निभाता है। यही वजह है कि तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) दोनों ही इस समुदाय को अपने पाले में रखने की कोशिश करती रही हैं। लेकिन हाल ही में मटुआ समाज के भीतर उभरी नाराज़गी और उनके सामने खड़े नागरिकता संबंधी सवालों ने राजनीतिक समीकरणों को बदलना शुरू कर दिया है।

 

बीते दिनों मटुआ समाज का एक प्रतिनिधिमंडल कांग्रेस नेता राहुल गांधी से बिहार में मिला। यह मुलाकात ऐसे समय हुई जब एक ओर मटुआ परिवार के भीतर मतभेद गहराए हुए हैं और दूसरी ओर मतदाता सूची की जांच (वोटर वेरिफिकेशन ड्राइव) ने समुदाय में बेचैनी बढ़ा दी है।

 

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राहुल गांधी से क्यों की मुलाकात?

30 अगस्त को सारण जिले के एक्मा कस्बे में राहुल गांधी की यात्रा के दौरान मटुआ समाज का 24 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल उनसे मिला। इस समूह ने खुद को पश्चिम बंगाल मटुआ महासंघ बताया। प्रतिनिधियों का कहना था कि वे अब बीजेपी और टीएमसी, दोनों से ही निराश हो चुके हैं क्योंकि किसी ने भी उनके असली मुद्दों—खासतौर पर नागरिकता—पर ध्यान नहीं दिया।

 

प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ने बताया, 'राहुल दा ने हमें करीब 15 मिनट समय दिया। हमारी सारी चिंताएं सुनीं और भरोसा दिलाया कि वे भविष्य में भी हमसे जुड़े रहेंगे।' इस मौके पर प्रतिनिधियों ने एक बैनर भी थाम रखा था जिस पर लिखा था: 'राहुल दा, बंगाल आइए… SIR है खतरा, कांग्रेस में है सुरक्षा।'

कांग्रेस नेता का दावा

कांग्रेस के पश्चिम बंगाल के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि कई मटुआ नेता उनसे मिले और अपनी चिंताएं साझा कीं। उनका मानना है कि मटुआ समाज को केवल वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया गया है। चौधरी के मुताबिक, राहुल गांधी जिस तरह से चुनाव आयोग और मतदाता सूची पर सवाल उठा रहे हैं, उससे मटुआ लोग प्रभावित हुए हैं। उन्हें डर है कि मौजूदा स्थिति में उनका मतदाता पहचान खतरे में पड़ सकती है।

बीजेपी का पलटवार

इस मुलाकात के बाद बीजेपी ने कांग्रेस पर आरोप लगाए कि वह मटुआ समाज को बहकाने की कोशिश कर रही है। बीजेपी सांसद और ऑल इंडिया मटुआ महासंघ के प्रमुख शांतनु ठाकुर ने कहा कि कांग्रेस झूठ बोलकर प्रतिनिधियों को पटना ले गई और उन्हें पैसे का लालच दिया। उन्होंने चेतावनी दी कि मटुआ समाज को गुमराह करने की कांग्रेस की कोशिशें नाकाम होंगी। बीजेपी ने यहां तक कहा कि प्रतिनिधिमंडल के नेताओं को कारण बताओ नोटिस (शो-कॉज) भी दिया जाएगा।

 

हालांकि कांग्रेस प्रवक्ता केतन जायसवाल ने इन आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा, 'बीजेपी और टीएमसी दोनों ने ही मटुआ समाज से झूठे वादे किए हैं। लोग अब कांग्रेस की ओर देख रहे हैं। बीजेपी इसलिए बौखलाई हुई है।'

बांग्लादेश से जुड़ी हैं जड़ें

मटुआ समाज की जड़ें बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) से जुड़ी हैं। विभाजन (1947) और 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान बड़ी संख्या में मटुआ शरणार्थी पश्चिम बंगाल आए। सामाजिक सुधारक गुरुचांद ठाकुर ने इस समुदाय को मुख्यधारा की राजनीति से जुड़ने का संदेश दिया था।

 

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उनके पौत्र प्रमथ रंजन ठाकुर कांग्रेस सरकार में मंत्री बने और 1967 में लोकसभा के लिए भी चुने गए। इसके बाद कांग्रेस सरकार ने मटुआ शरणार्थियों के पुनर्वास का प्रयास किया। उन्हें राशन कार्ड और वोटर आईडी तो मिल गए, लेकिन नागरिकता का सवाल अधूरा ही रह गया।

 

बाद में वाम शासन के दौरान भी स्थिति में बड़ा बदलाव नहीं आया। 2003 में वाजपेयी सरकार के दौरान बना नागरिकता संशोधन कानून (CAA 2003) और एनआरसी का प्रावधान मटुआ समाज के लिए नई दिक्कत लेकर आया, क्योंकि इसमें 25 मार्च 1971 के बाद आने वाले शरणार्थियों को अवैध घोषित कर दिया गया।

क्या है राजनीति?

2009 के लोकसभा चुनाव में जब वामपंथी दलों की पकड़ कमजोर पड़ी, तब मटुआ समाज का झुकाव ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी की ओर हुआ। ममता बनर्जी ने उन्हें पहचान पत्र और राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिलाने की कोशिश की। इसी दौरान कपिल कृष्ण ठाकुर टीएमसी से सांसद बने।

 

लेकिन उनके निधन के बाद परिवार में पहली बड़ी टूट हुई। एक हिस्सा टीएमसी के साथ रहा जबकि शांतनु ठाकुर और अन्य बीजेपी में शामिल हो गए। बीजेपी ने उन्हें नागरिकता देने का भरोसा दिलाया। इससे समुदाय का एक बड़ा वर्ग बीजेपी के साथ खड़ा हो गया।

 

हालांकि अब तक CAA लागू न होने और NRC व SIR जैसे प्रावधानों की वजह से मटुआ समाज में फिर से असमंजस बढ़ गया है। उन्हें डर है कि वादे पूरे न होने पर उनकी नागरिकता का सवाल अधूरा ही रह जाएगा।

क्या हैं मौजूदा हालात?

आज की स्थिति यह है कि मटुआ समाज की एक बड़ी संख्या में लोग टीएमसी और बीजेपी से निराश दिख रहे हैं। राहुल गांधी से मुलाकात इसी निराशा का संकेत है। कांग्रेस फिलहाल बंगाल की राजनीति में हाशिए पर है, उसके पास सिर्फ एक सांसद है और विधानसभा में कोई विधायक नहीं है। लेकिन मटुआ समाज का समर्थन अगर कांग्रेस की ओर झुकता है, तो यह पश्चिम बंगाल की राजनीति में नई हलचल पैदा कर सकता है।

 

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नागरिकता का मुद्दा मटुआ समाज की राजनीति की धुरी है। अगर बीजेपी इस मोर्चे पर असफल रही और टीएमसी भरोसा नहीं जगा पाई, तो कांग्रेस जैसे दल को नया मौका मिल सकता है।

 

पश्चिम बंगाल में मटुआ समाज सिर्फ वोटों की गिनती भर नहीं है, बल्कि एक ऐसा समुदाय है जो चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकता है। पिछले दशकों में इस समाज ने कांग्रेस, वामपंथ, टीएमसी और बीजेपी—सभी को आजमाया है। लेकिन नागरिकता का सवाल अब भी अधूरा है।

 

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राहुल गांधी से मुलाकात को मटुआ समाज की नई राजनीतिक तलाश माना जा रहा है। आने वाले चुनावों में यह समुदाय किस दिशा में जाएगा, यह न केवल बंगाल बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण होगा।