देश का सबसे जैव-विविधता वाला क्षेत्र पूर्वोत्तर भारत आज प्रकृति के प्रकोप का सामना कर रहा है। बाढ़, बादल फटने और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं इस क्षेत्र को बार-बार तबाह कर रही हैं। पिछले 2 दिन में हई भारी बारिश और लैंडस्लाइड की वजह से कम से कम 30 लोगों की मौत हो चुकी है और कई लोग लापता हैं. असम में 60 हजार से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं और सिक्किम में करीब 1500 टूरिस्ट फंस गए हैं। पहले ये घटनाएं मुश्किस से होती थीं, लेकिन अब हर मानसून में यह होना आम बात होती जा रही है। साल 2024 में इस क्षेत्र में 980 से अधिक भूस्खलन दर्ज किए गए, जो पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा हैं। जलवायु परिवर्तन और अनियमित बारिश इसके प्रमुख कारण हैं, लेकिन विशेषज्ञ इसके लिए तमाम तरह के मानवीय कारणों को भी जिम्मेदार मान रहे हैं।
पूर्वोत्तर भारत में सड़क निर्माण, जलविद्युत परियोजनाएं और शहरीकरण जैसे विकास कार्य तेजी से हो रहे हैं, लेकिन इनके कारण इस क्षेत्र की नाजुक पहाड़ी संरचना कमजोर हो रही है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई और अनियंत्रित खनन ने पहाड़ों को अस्थिर कर दिया है, जिससे लाखों लोगों का जीवन खतरे में है। खबरगांव आपको इस लेख में उन कारणों के बारे में बता रहा है जिसकी वजह से इस तरह की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं।
यह भी पढ़ेंः कहीं बाढ़, कहीं भूस्खलन, पूर्वोत्तर में बारिश बनी आफत, कई मौतें
बढ़ते लैंडस्लाइड
अगर भूस्खलन की बात करें तो भारत में 14 भूस्खलन वाले राज्यों में से सात पूर्वोत्तर में हैं: अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) के अनुसार, 2023 में देश के कुल भूस्खलनों में से 32% भूस्खलन पूर्वोत्तर में हुए। असम में 2023 में 289 बड़े भूस्खलन हुए, जो 2015 की तुलना में 120% ज्यादा हैं। मिजोरम में जुलाई 2023 में केवल 48 घंटों में 300 मिमी से अधिक बारिश के बाद 83 भूस्खलन दर्ज किए गए। अरुणाचल और मणिपुर में 2024 के मानसून में 400 किमी से अधिक सड़कें ढह गईं। इन आपदाओं की वजह से न केवल काफी लोगों की जान जा रही है बल्कि इसकी वजह से हर साल हजारों लोगों बेघर भी हो रहे हैं।
जंगलों की कटाई, नंगे होते पहाड़
उत्तर-पूर्व भारत के जंगल इंडो-बर्मा जैव-विविधता हॉटस्पॉट का हिस्सा हैं, जहां एशिया की सबसे समृद्ध वनस्पतियां और जीव-जंतु पाए जाते हैं। लेकिन पिछले दो दशकों में जंगलों की तेजी से कटाई हुई है। ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के अनुसार, 2001 से 2022 तक इस क्षेत्र में 32 लाख हेक्टेयर जंगलों को काटकर साफ कर दिया गया।
मिजोरम, जो कभी भारत का सबसे हरा-भरा राज्य था, उसके 11.4% जंगल कट गए। मेघालय के गारो और खासी पहाड़ों में जंगल कटाई ने प्राकृतिक संतुलन को काफी बिगाड़ा है, जिसके कारण भूस्खलन वाले क्षेत्रों की संख्या 2010 में 140 से बढ़कर 2022 में 367 हो गई। भारतीय रिमोट सेंसिंग संस्थान (IIRS) के 2022 के अध्ययन में पाया गया कि अरुणाचल में 66% भूस्खलन उन क्षेत्रों में हुए, जहां एक-तिहाई जंगलों को काट दिया गया था।
जंगल पहाड़ों को स्थिर रखते हैं। पेड़ों की जड़ें मिट्टी को बांधे रखती हैं, बारिश का पानी रोकती हैं और भूजल को संरक्षित करती हैं। जब पेड़ काटे जाते हैं, खासकर खड़ी ढलानों पर, तो जमीन आसानी से ढह जाती है, यहां तक कि हल्की बारिश में भी, जिसकी वजह से भूस्खलनों की संख्या बढ़ती है।
झूम खेती या शिफ्टिंग कल्टीवेशन
कॉमर्शियल लकड़ी कटाई के अलावा, झूम खेती की वजह से भी जंगलों की कटाई में बढ़ोत्तरी हुई है । यह परंपरागत खेती का तरीका है, जिसमें जंगल जलाकर साफ किए जाते हैं, 1-2 साल तक खेती की जाती है और फिर जमीन छोड़ दी जाती है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के अनुसार, पूर्वोत्तर में 19 लाख हेक्टेयर क्षेत्र झूम खेती के अधीन है, लेकिन जनसंख्या के दबाव के कारण झूम खेती बढ़ रही है और धीरे-धीरे जमीन स्थायी रूप से बंजर होती जा रही है। नागालैंड और मणिपुर में हर साल 30,000 हेक्टेयर जमीन झूम खेती के कारण लगने वाली जंगल की आग से प्रभावित होती है, जिससे मिट्टी का कटाव और भूस्खलन का खतरा बढ़ता है।
अवैध खनन
पूर्वोत्तर में कोयला, चूना पत्थर और रेत खनन तेजी से बढ़ा है और यह खनन अक्सर बिना पर्यावरणीय मंजूरी या भूवैज्ञानिक अध्ययन के किया जाता है। मेघालय के जयंतिया हिल्स में ‘रैट-होल’ माइनिंग काफी होता है, जिसे राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ने 2014 में प्रतिबंधित कर दिया था।
फिर भी, 2023 में मेघालय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 4,000 से अधिक अवैध खदानों की पहचान की। रैट होल माइनिंग की वजह से पहाड़ अंदर से खोखले हो जाते हैं जिससे वे भूवैज्ञानिक रूप से पहाड़ों की स्थिरता कम हो जाती है। IIT-गुवाहटी के 2022 के अध्ययन में जयंतिया हिल्स के 48% भूस्खलनों को रैट-होल माइनिंग से जोड़ा गया।
असम और अरुणाचल में चूना पत्थर और रेत खनन ने भी नुकसान पहुंचाया है। काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के पास चूना पत्थर खनन की वजह से जैव-विविधता को काफी नुकसान पहुंचा और नदी-तट के पहाड़ काफी अस्थिर हो गए। अरुणाचल में सुबनसिरी नदी के पास अवैध रेत खनन की वजह से नदी के प्राकृतिक जल बहाव में बदलाव आया है, जिससे ढलानें कटाव और भूस्खलन के प्रति काफी संवेदनशील हो गईं।
खनन न केवल ढलानों को कमजोर करता है, बल्कि इसके बाद प्राकृतिक रूप से उसका फिर से वैसा हो पाना मुश्किल होता है। जंगल और चट्टानों से खाली हुई जमीन शायद ही अपनी मूल ताकत वापस पा पाती है, जिससे वे स्थायी भूस्खलन क्षेत्र बन जाते हैं।
बढ़ता कॉन्सट्र्क्शन
हाल के वर्षों में, भारतमाला और एक्ट ईस्ट नीतियों के तहत सड़क और जलविद्युत परियोजनाओं ने जंगल कटाई और पहाड़ काटने को बढ़ावा दिया है। 2024 तक, पूर्वोत्तर में 1,900 किमी राष्ट्रीय राजमार्ग निर्माणाधीन हैं। सड़क परिवहन मंत्रालय के अनुसार, इनमें से 72% सड़कें पहाड़ी या भूस्खलन वाले क्षेत्रों से होकर गुजरती हैं। मणिपुर में इम्फाल-मोरेह सड़क परियोजना में तीन वर्षों में छह भूस्खलन हुए, सभी नए कटे हुए क्षेत्रों में।
विकास के साथ भी इन समस्याओं से निपटा जा सकता है। लेकिन वैज्ञानिक तरीके से ढलान-स्थिरीकरण तकनीकों की कमी है। कई परियोजनाओं के लिए पेड़ काटे जाते हैं लेकिन मिट्टी खुली छोड़ दी जाती है, बिना रिटेनिंग वॉल, टेरेसिंग या जियोग्रिड जैसे उपायों के। नतीजा यह होता है कि पहली ही मानसून में सड़कें बह जाती हैं।
जलवायु परिवर्तन और मानसून की अनियमितता
उत्तर-पूर्व भारत में भारी बारिश कोई नई बात नहीं है, लेकिन जलवायु परिवर्तन ने इसके पैटर्न को बदल दिया है। अब मानसून में कम समय में तेज़ बारिश होती है, जिससे प्राकृतिक जल निकासी सिस्टम ओवरफ्लो होने लगता है और भूस्खलन को बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिए, जून 2023 में असम के हाफलॉन्ग में 48 घंटों में 650 मिमी बारिश हुई, जिससे घर और सड़कें दब गईं। मई 2024 में मेघालय में 370 मिमी बारिश ने शिलांग के पास सड़कों को तोड़ दिया।
भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (IITM) के अनुसार, 2000 से 2020 तक असम, मेघालय और अरुणाचल में 100 मिमी/दिन से अधिक बारिश की घटनाएं 33% बढ़ीं। यह अनियमितता क्षेत्र की नाजुक संरचना के लिए घातक है।
पूर्वोत्तर भारत में भूस्खलन और भारी बारिश का संकट अब केवल चेतावनी नहीं, बल्कि एक कठोर वास्तविकता है। जलवायु परिवर्तन, जंगल कटाई और अवैध खनन ने इस क्षेत्र को आपदा के कगार पर ला खड़ा किया है। अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो यह क्षेत्र उत्तराखंड और हिमाचल जैसी त्रासदियों का गवाह बन सकता है।