साल 1748। फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने एक किताब लिखी 'द स्पिरिट ऑफ लॉज।' किताब में शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत दिया गया। यह पहली बार था जब स्पष्ट तौर पर शासन की शक्तियों को तीन हिस्से में बांटने की बात कही गई, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। मॉन्टेस्क्यू सोचते थे कि शक्तियों का पृथक्करण स्वतंत्रता की रक्षा के लिए जरूरी है और यह सत्ता को निरंकुश होने से रोकना है। मॉन्टेस्क्यू का यह सिद्धांत, आधुनिक देशों की शासन प्रणाली का हिस्सा बना। भारतीय लोकतंत्र भी इसी सिद्धांत के हिसाब से चलता है लेकिन न्यायपालिका और विधायिका के टकराव कई फैसलों में स्पष्ट नजर आते हैं। 

नया विवाद यह है कि वक्फ संशोधन कानून पर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और सुप्रीम कोर्ट में तल्खी देखने को मिली है। पार्टी ने आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं कहा है लेकिन पार्टी के कई चर्चित नेताओं ने इसका मुखर होकर विरोध किया है। बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने साफ कह दिया था कि अगर कानून संसद को ही बनाना है तो संसद को बंद कर देना चाहिए। 


'अगर संसद न्याय पालिका में दखल दे तो...'
केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू 'ज्यूडिशियल एक्टिविज्म' के खिलाफ पहले ही मुखर रहे हैं। उन्होंने सुनवाई से पहले ही कहा था, 'सुप्रीम कोर्ट इस मामले में दखल नहीं देगा। अगर कल को सरकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप करती है तो यह अच्छा नहीं होगा। हमें एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। शक्तियों का बंटवारा कैसे होगा ये अच्छी तरह से परिभाषित है।'

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शक्तियां अलग-अलग फिर टकराव क्यों?
जब शक्तियां परिभाषित हैं तो फिर संसद और केंद्र सरकार में टकराव क्यों हो जाता है? संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता विशाल अरुण मिश्रा कहते हैं, 'सुप्रीम कोर्ट और संसद भारत के शासन तंत्र के दो महत्वपूर्ण अंग हैं। दोनों अंग शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के तहत अलग-अलग काम करते हैं। इनके बीच मुख्य अंतर कार्यक्षेत्र, उद्देश्य और संवैधानिक प्रावधानों में है। एक का काम कानून बनाना है, दूसरे का काम उसकी व्याख्या करना है। सुप्रीम कोर्ट कानून नहीं बना सकता है, संसद फैसला नहीं सुना सकती है। मामला तब उलझता है जब केंद्रीय कानूनों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर होती हैं और सुप्रीम कोर्ट से संवैधानिक अधिनियमों के खिलाफ फैसले आते हैं।' 

सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता रुपाली पंवार ने संसद और सुप्रीम कोर्ट के टकरावों पर कहा, 'सुप्रीम कोर्ट को संविधान का संरक्षक कहा जाता है। सुप्रीम कोर्ट का काम कानून की व्याख्या करना और न्याय देना है। संविधान का अनुच्छेद 124 संघ के न्यायपालिका की बात करता है। सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 32 के तहत यह मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है, जबकि अनुच्छेद 131 केंद्र-राज्य विवादों में मूल अधिकार क्षेत्र स्पष्ट करता है।'

एडवोकेट रुपाली ने पंवार ने कहा, 'सुप्रीम कोर्ट न्यायिक समीक्षा कर सकता है। अनुच्छेद अनुच्छेद 13 के तहत मिले अधिकारों के तहत संसद के कानूनों की संवैधानिकता सुप्रीम कोर्ट जांचता है और असंवैधानिक कानूनों को रद्द कर सकता है। ये कानून तभी रद्द हो सकते हैं, जब केंद्र के साथ उनका टकराव हो। केंद्र सरकार के NJAC की पहल को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया।' 

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संसद और सुप्रीम कोर्ट के काम का अंतर समझिए 

सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता विशाल अरुण मिश्रा ने कहा, 'संसद विधायी संस्था है। संसद का काम कानून बनाना, बजट पारित करना, देश के लिए नीतियां बनाना है। अनुच्छेद 79 के तहत संसद राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा से मिलकर बनती है। अनुच्छेद 245 और 246 इसे संघ और समवर्ती सूची पर कानून बनाने की शक्ति देते हैं। अनुच्छेद 110 धन विधेयक और अनुच्छेद 112 बजट से संबंधित हैं। अनुच्छेद 368 संसद को संविधान संशोधन का अधिकार देता है। संविधान के मूल ढांचे को छोड़कर संसद कोई भी संशोधन कर सकता है।'

दिल्ली हाई कोर्ट में अधिवक्ता स्निग्धा त्रिपाठी ने कहा, 'सुप्रीम कोर्ट का काम न्यायिक है, यह संविधान की रक्षा करता है, जबकि संसद का कार्य विधायी है, जो नीतियां बनाता है। सुप्रीम कोर्ट संसद के कानूनों की समीक्षा करता है और संसद संविधान संशोधन कर सकती है, लेकिन मूल ढांचा सिद्धांत के दायरे में।' 

कब-कब संसद और सुप्रीम कोर्ट में टकराव हुआ?
सुप्रीम कोर्ट और संसद में टकराव के कई मामले सामने आए हैं। कई बार सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के खिलाफ संसद अध्यादेश लेकर आया है, कई बार संसद के फैसलों को सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया है। आइए जानते हैं कुछ अहम मामलों के बारे में जब संसद और सुप्रीम में टकराव हुआ है। 

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शंकरी प्रसाद केस
सुप्रीम कोर्ट ने साल 1951 के इस केस में संसद के संविधान संशोधन की शक्ति को मान्यता दी। मौलिक अधिकारों पर संसद की असीमित शक्ति पर सवाल भी उठाए गए। कोर्ट ने कहा कि संसद अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन कर सकती है।  

गोलकनाथ केस
साल 1967 के इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित करने वाला संशोधन नहीं कर सकती। यह संसद की शक्ति पर पहली बड़ी रोक थी, जिससे टकराव बढ़ा। संसद ने 24वां, 25वां और 29वां संविधान संशोधन किया, जिसका मकसद मौलिक अधिकारों के मामले में संसद की संशोधन शक्ति बढ़ाना था।

केंद्र सरकार ने 24वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 पारित किया। इस संशोधन ने अनुच्छेद 368 में बदलाव कर संसद को संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन करने की स्पष्ट और असीमित शक्ति दी।

यह तय हुआ कि ऐसे संशोधनों को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखा जाए। इस फैसले के बाद 25वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 अस्तित्व में आया। नए संशोधनों की वजह से पैदा हुए टकराव का असर केशवानंद भारती केस में नजर आया।

केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने बेसिक स्ट्रक्चर का सिद्धांत दिया। मतलब यह था कि संशोधन करने की शक्ति संविधान के पास है लेकिन यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। यहां से संसद और सुप्रीम कोर्ट के बीच शक्ति विभाजन की तस्वीर थोड़ी साफ हुई। 

सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ कानून पर क्या कहा है, टकराव क्यों?
सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा है कि वक्फ बोर्ड पर केंद्र के जवाब आने तक वक्फ की संपत्ति की स्थितियां नहीं बदलेंगी। कोर्ट से वक्फ घोषित हो चुकी संपत्तियां डी-नोटिफाई नहीं की जाएंगी। चाहे वे वक्फ बाय यूजर हों या वक्फ बाय डीड हों। वक्फ बोर्ड और केंद्रीय वक्फ परिषद में कोई नई नियुक्ति नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट का नया फैसला ही विवाद की जड़ बना है।