36 बिरादरी, 360 गांव। ये दिल्ली की वह पहचान है जिसे दिल्ली देहात कहा जाता है। कभी दूध-दही, हरे-भरे जंगलों, आम के पेड़ों और गांव के बुजुर्गों के तजुर्बे के कहकहों से गूंजते गांव आज अक्सर तब खबरों में आते हैं जब उनके चंद प्रतिनिधि जंतर-मंतर या ऐसी किसी दूसरी जगह पर धरना देने पहुंच जाते हैं। अपनी बात को सरकारों तक पहुंचाने के लिए दिल्ली देहात से जुड़े संगठन कभी दिल्ली सरकार के नुमाइंदों से मिलते हैं, कभी दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के अफसरों से मिन्नतें करतें हैं तो कभी उपराज्यपाल और केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश करते हैं। आश्वासन हर बार मिलता है, राहत देने की बात कही जाती है लेकिन यह राहत मिलती नहीं। नतीजा यह होता है कि गांव से शहर होने के अधर में अटके ये गांव खुद को संगठित करके मजबूत दिखाने की कोशिशों में ही जूझते रह जाते हैं।

 

जनवरी तक चुनाव का बहिष्कार करने वाली पालम खाम के मुखिया सुरेंद्र सोलंकी ने फरवरी की शुरुआत में ही केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात करके दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (BJP) को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है। रोचक बात यह है कि कुछ महीने पहले तक इसी संगठन ने पूरी दिल्ली में पदयात्रा की और कहा कि वह किसी पार्टी के साथ नहीं है।

 

 

लुटियंस दिल्ली की चकाचौंध से दूर जैसे ही आप दिल्ली के बाहरी इलाकों में पहुंचेंगे तो आपको कई इलाकों के नाम के साथ 'गांव' लिखा मिल जाएगा। पालम गांव, बुधेला गांव, ककरोला गांव, कंझावला गांव, शाहपुर जाट गांव, निठारी गांव जैसे सैकड़ों गांव हैं जो आज भी गांव बने रहने या शहर हो जाने के बीच पिस रहे हैं। पिछले कुछ महीनों में अगर आप इन इलाकों में गए हों तो आपको कई जगहों पर गांव के नाम के साथ एक पोस्टर दिख जाता जिसमें कुछ समस्याएं लिखी गई थीं। ये समस्याएं भले ही नेताओं की नजरों में न चढ़ पा रही हों लेकिन दिल्ली देहात की मूल जनता के लिए ये समस्याएं सिरदर्द बनी हुई हैं। दशकों से इन गांवों के लोग मालिकाना हक, लैंड पूलिंग पॉलिसी, म्यूटेशन और लाल डोरा जैसे शब्द रटते आ रहे हैं लेकिन इतना रटने से यह सिर्फ उनकी ही जुबान पर चढ़ा है, उन लोगों की जुबान पर नहीं, जो सच में इन समस्याओं का हल निकाल सकते हैं।

 

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क्या है दिल्ली देहात?

 

दिल्ली के गांव सिर्फ बाहरी इलाकों में ही सीमित नहीं हैं। इतिहास के कुछ ही पन्ने पलटने पर आपको पता चलने लगेगा कि आज जिस इलाके को लुटियंस जोन, राजपथ, कर्तव्य पथ और रायसीना हिल्स जैसे फैन्सी नाम दिए गए हैं, असल में वे भी गांव की जमीन पर ही बने हुए हैं। बाराखंबा, राई, सीना और मालचा जैसे गांवों की जमीन पर ही नई दिल्ली इलाका बसा हुआ है। पहले अंग्रेजों ने कुछ गांव खाली करवाए और नई दिल्ली बसाने की शुरुआत की, धीरे-धीरे जनसंख्या और शहर फैलता ही गया और आज दिल्ली के हर कोने में घनी बस्तियां ही नजर आने लगी हैं।

 

इतिहास में झांकें तो दिल्ली में मुख्य बसावट शाहजहानाबाद में ही थी। इसके बाहरी इलाकों में कुछ-कुछ संख्या में ही लोग रहते थे। यही बाहर के गांवों में रहने वाले लोग धीरे-धीरे बढ़े और दिल्ली के मूल निवासियों के रूप में स्थापित हुए। यही वजह है कि जब कोई यह कहता है कि दिल्ली में गांव कहां हैं तो दिल्ली के गांवों के लोग बुरा मान जाते हैं। दिल्ली को भारत की राजधानी बनाने का ऐलान होने से पहले के नक्शों को देखें तो शाहजहानाबाद के बाहर जो थोड़ी-बहुत बसावट दिखती है वह इन गांवों में ही थी। इन गांवों को बसाने वाले पुरखों, उनके इतिहास और उनकी संस्कृति की कहानी फिर कभी लेकिन यहां इतना समझना जरूरी है कि इन गांवों में वह संस्कृति कमोबेश अब भी बची हुई है और दिल्ली देहात से जुड़े लोग इसी को बचाने की जद्दोजहद भी कर रहे हैं।

 

कहां से शुरू हुआ खेल

 

जब अंग्रेजों ने फैसला किया कि दिल्ली को राजधानी बनाया जाएगा तब पुरानी दिल्ली यानी शाहजहानाबाद के पश्चिमी और उत्तरी किनारे वाली जगहों को चुना गया। यहां से लाल डोरा अस्तित्व में आता है। जब नई दिल्ली को बसाने के लिए जमीन ली जाने लगी तो किसानों और यहां के स्थानीय निवासियों ने विरोध किया। इसके बाद साल 1908 में पहली बार तय किया गया कि आबादी वाला इलाका लाल डोरा माना जाएगा। उस समय पर लाल डोरा को गांव के लोगों ने अपनी सुरक्षा करने वाली ढाल समझा क्योंकि इससे उन्हें अधिग्रहण का शिकार होने से बचने का भरोसा था। लाल डोरा में आने वाले इन गांवों को शहरी गांव कहा जाता है। मौजूदा समय में लाल डोरा का मतलब यह है कि इन इलाकों में खरीदी जाने वाली जमीन की कोई रजिस्ट्री नहीं होती है। लाल डोरा में जमीन खरीदकर घर बनाने वाले लोग सिर्फ जीपीए यानी जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी के सहारे ही हैं।

 

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दिल्ली में जब खेती की जमीन का अधिग्रहण सरकार कर लेती है और प्लान करके कॉलोनी बसाती है तो इसी को शहरी गांव कहा जाता है। यह काम करने की मुख्य जिम्मेदारी दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) की है। यही वजह है कि विवाद और असमंजस की स्थिति का एक केंद्र DDA भी है।

आंकड़ों से समझें दिल्ली

 

साल 1911 में दिल्ली की जनसंख्या सिर्फ 2.3 लाख थी और दिल्ली के मात्र 1800 हेक्टेयर इलाके में लोगों को बसावट थी। मौजूदा समय में दिल्ली की जनसंख्या कम से कम 2 करोड़ बताई जाती है। 1951 में दिल्ली के अंदर ग्रामीण क्षेत्र वाले कुल 304 गांव थे। 1961 में इनकी संख्या 276 हो गई। गांव गायब नहीं हुए, बस इनकी कैटगरी बदलने लगी। मसलन 1961 में शहरी गांव 20 थे और ग्रामीण गांव 276 थे। समय के साथ ग्रामीण गांवों की संख्या कम होती गई और शहरी गांव बढ़ते गए। 2011 में हुई आखिरी जनगणना के मुताबिक, शहरी गांव 135 हो गए और ग्रामीण गांवों की संख्या 304 से घटकर सिर्फ 112 पर आ गई।

 

उधर दिल्ली में शहरों का भी जबरदस्त फैलाव हुआ। 1971 में दिल्ली में सिर्फ 3 शहर थे। 1991 में शहरों की संख्या 29 हुई और 2011 तक इनकी संख्या 110 हो गई। अब समस्या यह है कि दर्जनों गांव कहने को तो शहरी गांव हो गए हैं यानी डीडीए के अंदर आ गए हैं लेकिन उनमें विकास नहीं हुआ है। कुछ ऐसे भी गांव हैं जिनको शहरी गांव बहुत पहले बनाया जाना चाहिए था लेकिन अब तक नहीं बने हैं।

 

अगर साल दर साल की बात करें तो 1857 में हुई क्रांति के बाद अंग्रेजों ने प्रशासनिक अमले को कसना शुरू किया। इसी क्रम में साल 1864 में गजट छापा गया। इस गजट में हर जानकारी जुटाई गई कि कौन किस जमीन पर काबिज है, किसकी मालकियत है और किसकी कितनी खेती है। यहीं से लाल डोरे की भी नींव पड़ती है। दिल्ली देहात के लोग बताते हैं कि तब लगान कम करवाने के लिए लोगों ने आबादी वाली जमीन अलग करवाई जिससे उस जमीन के लिए लगान न देना पड़े।

 

1908 से 1952 का वक्त इस विवाद के लिए उतनी अहमियत नहीं रखता क्योंकि इस बीच सबकुछ लगभग वैसा ही चला। हां, देश के आजाद होने के बाद तत्कालीन सरकार ने फिर से दिल्ली देहात के लोगों की सुध ली तो लोगों ने एक्सटेंडेड लाल डोरा मांगा यानी आबादी के इलाके को बढ़ाया जाए। सरकार ने एक्सटेंडेड लाल डोरा दिया यानी आबादी की जमीन बढ़ा दी गई। इसके बदले में लोगों की ही जमीन लेकर सड़क और अन्य सार्वजनिक निर्माण भी किए गए।

 

म्यूटेशन की मांग की वजह क्या है?

 

लंबे समय से दिल्ली में रह रहे लोगों के पास आज भी जमीन का कब्जा तो है लेकिन उनके पास मालिकाना हक नहीं है। समस्या यह होती है कि पीढ़ियां बदलने के साथ लोगों की जमीनें उनकी अगली पीढ़ी को ट्रांसफर नहीं हो पाती हैं।

 

 

इसके बारे में देवली गांव के पुनीत बताते हैं कि बार-बार कैंप लगाने की बात तो होती है लेकिन म्यूटेशन में ऐसी-ऐसी शर्तें होती हैं कि लोग इन कैंप में बहुत कम संख्या में जाते हैं। ऐसे में मांग यह है कि म्यूटेशन आसान शर्तों के साथ हो।


लैंड पूलिंग क्यों अटकी?

 

लैंड पूलिंग के जरिए लोगों की जमीन के छोटे-छोटे हिस्सों को एकसाथ कर दिया जाता है, जिससे उन्हें असुविधा न हो। सेंटर फॉर यूथ कल्चर लॉ एंड एन्वायरनमेंट (CYCLE) के सह संस्थापक पारस त्यागी खबरगांव को बताते हैं, 'बाकी जगहों पर होता है कि लैंड पूलिंग सरकार करवाती है लेकिन दिल्ली में कहा जाता है कि लोग खुद ही जमीन की पूलिंग कर लें। ऐसा कैसे हो सकता है?'

 

इस चक्कर में न तो प्रशासन की ओर से लैंड पूलिंग पर इतना फोकस रहता है और न ही लोग खुद से इसके लिए उतनी पहल करते हैं। हां, गाहे-बगाहे होने वाले प्रदर्शनों में इस पर जोर जरूर रहता है।

 

क्या है मास्टर प्लान 2041?

 

समय-समय पर दिल्ली के विकास के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण की ओर से डेवलपमेंट प्लान लागी किए जाते हैं। पिछला प्लान मास्टर प्लान 2021 था जो कभी जमीन पर पूरी तरह से उतर नहीं पाया। अब मास्टर प्लान 2041 लागू करने की मांग की जा रही है और इसी को लेकर बार-बार धरना दिया जा रहा है। 

 

मोटे तौर पर समझें तो अगर मास्टर प्लान 2041 लागू होता है और यह सही से जमीन पर उतरता है तो इसके जरिए 40 साल से पुरानी रिहायशी इमारतों को नए सिरे से डेवलप किया जाएगा। वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी, बाढ़ जैसी आपदाओं से निपटने के लिए शहर तैयार होगा और अनधिकृत कॉलोनियों की हालत बेहतर हो सकेगी।

 

दिल्ली देहात की मांगें क्या हैं?

  • मास्टर प्लान 2041 लागू किया जाए।
  • लैंड पूलिंग और जीडीए पॉलिसी लागू की जाए।
  • DDA ऐक्ट 1957 में संशोधन किया जाए।
  • म्यूटेशन, ज्वाइंट होल्डिंग, स्मार्ट विलेज जैसी समस्याओं के समाधान के लिए एसओपी बनाई जाए।
  • गांव की जमीन पर रहने वाले लोगों का हाउस टैक्स माफ किया जाए।
  • जमीन का मालिकाना हक दिया जाए।
  • गांवों की फिरनी सौ फुट चौड़ी की जाए।
  • कॉलेजों में सौ फीसदी आरक्षण दिया जाए।
  • राजस्व दस्तावेजों को उर्दू और फारसी से हिंदी में किया जाए।
  • बारात घर, जल स्रोत और पंचायत घर गांव के लोगों को सौंपे जाएं।
  • धारा 81 और 33 समाप्त हो, धारा 81 के तहत पुराने मुकदमे वापस हों।
  • जिन गांवों की भूमि का अधिग्रहण हुआ है उनको वैकल्पिक प्लॉट जल्द से जल्द दिए जाएं।
  • गांव के लोगों को पुश्तैनी जमीन का मालिकाना हक बिना स्टांप ड्यूटी लिए ही दिया जाए।


उलझाऊ है मामला?

 

दिल्ली में जैसे दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच स्पष्टता नहीं है, ठीक वैसा ही अन्य विभागों के बीच भी देखने को मिलता है। दिल्ली में जमीन का रिकॉर्ड रखने का काम तो राजस्व विभाग का ही है लेकिन इसके लिए एक नहीं दो अलग कानून हैं। पूरी तरह से ग्रामीण गांवों का रिकॉर्ड लैंड रेवेन्यू ऐक्ट के तहत चलता है और शहरीकृत गांवों का सिस्टम दिल्ली म्युनिसिटिपल ऐक्ट यानी डीएमसी ऐक्ट के तहत चलता है। 

 

 

ऐसे में एमसीडी, डीडीए और राजस्व विभाग के बीच आम लोग पिस जाते हैं। दिल्ली देहात से जुड़े कई लोगों ने बताया कि आम लोगों को इतनी चीजें पता नहीं होतीं और अधिकारी भी कुछ स्पष्ट नहीं बता पाते जिसके चलते जमीन का मामला बेहद पेचीदा हो जाता है।

 

समस्याओं के बारे में भूपेंद्र बजाड बताते हैं कि कृषि वाली जमीन में उतनी समस्या नहीं है लेकिन अगर कागज बनवाना पड़ जाए तो वह मुश्किल काम है। दिल्ली में अगर किसी को भी जमीन की लैंड पूलिंग करानी हो तो म्यूटेशन सर्टिफिकेट चाहिए और वही दिल्ली के लोगों के पास है नहीं।

 

मास्टर प्लान से क्या फायदा मिलेगा? इस सवाल के जवाब में भूपेंद्र बजाड खबरगांव को विस्तार से बताते हैं, ‘हमने बार-बार मुलाकात करके दिल्ली डेवलपमेंट ऐक्ट और अन्य कानूनों में कई बदलाव करवाए हैं लेकिन उन्हें नोटिफाई ही नहीं किया जा रहा है। मौजूदा समय में अपनी ही जमीन का मालिकाना हक लेने के लिए स्टांप ड्यूटी चुकानी पड़ती है। अगर मास्टर प्लान लागू होता है तो आबादी में विस्तार को अनुमित दी जाए, जैसे अनधिकृत कॉलोनियों को रेगुलराइज किया जा है, वैसे ही इनको भी किया जाए। मास्टर प्लान से 40 लाख करोड़ का निवेश आ सकता है, 20 लाख लोगों को रोजगार मिल सकता है और दिल्ली का विकास अभूतपूर्व तरीके से हो सकता है जो पिछले 17-18 सालों से रुका हुआ है।’

 

नतीजा यह होता है कि गांव के लोग मजबूत बिल्डरों या नेताओं के हाथ अपनी जमीन औने-पौने दाम पर बेचने को मजबूर होते हैं, खेती से संबंधित योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है। समाधान के मामले में लोग ठीक उसी तरह कन्फ्यूज दिखते हैं जैसे कि अलग-अलग विभागों के अधिकारी। इसके बारे में CYCLE के को-फाउंडर पारस त्यागी बताते हैं, ‘धरने में बैठने वाले लोग कुछ ही हैं और वे एक ही गुट के हैं। बहुत लोगों को तो यह भी नहीं पता कि मास्टर प्लान से क्या मिल जाएगा लेकिन वे मास्टर प्लान मांगते रहते हैं।’

 

दिल्ली देहात की समस्याओं से जुड़े प्रदर्शन करने वाले संगठन भी कई हैं। एक है थान सिंह यादव की अगुवाई वाला दिल्ली पंचायत संघ। एक है दिल्ली देहात विकास मंच। इसके अलावा, 360 गांवों की मुखिया पालम खाप के प्रधान सुरेंद्र सोलंकी की अगुवाई वाला गुट। अगर आप बारीक नजर डालें तो समझ आता है कि इन सबकी मांगें एक जैसी तो हैं लेकिन एक नहीं हैं। आमतौर पर ये सभी एकसाथ नजर भी नहीं आते। हालांकि, संगठनों की राजनीति की बात फिर कभी।

क्या है मौजूदा स्थिति?

 

दिल्ली देहात विकास मंच की दिल्ली मास्टर प्लान कमेटी के अध्यक्ष भूपेंद्र बजाड अक्सर केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और अन्य प्रतिनिधियों से मिलते रहे हैं। मामले की मौजूदा स्थिति के बारे में वह खबरगांव को बताते हैं, 'डीडीए के मुताबिक, दिल्ली के उपराज्यपाल की ओर से मास्टर प्लान को मंजूरी मिलने के बाद से पिछले 20 महीने से यह फाइल आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय में अटकी हुई है।' चुनाव के ऐलान से पहले भूपेंद्र बजाड ने खबरगांव से बातचीत में उम्मीद जताई है कि चुनाव से पहले इस पर कुछ फैसला होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रोचक बात यह भी है कि दिल्ली चुनाव में दिल्ली देहात का मुद्दा चर्चा का केंद्र भी नहीं बन पाया है।

 

 

इसी क्रम में भूपेंद्र बजाड की अगुवाई में कई प्रतिनिधियों ने आवास एवं शहरी विकास मंत्री मनोहर लाल खट्टर से मुलाकात की थी। इस मीटिंग में मास्टर प्लान 2041 लागू करने, लैंड पूलिंग और जीडीए नीति के शीघ्र समाधान, सर्कल रेट और डीडीए ऐक्ट 1957 के लंबित मामलों के निपटारे का मुद्दा रखा गया। मनोहर लाल खट्टर ने समस्याएं सुनकर दो दिन में समाधान का भरोसा दिया लेकिन चुनावी माहौल में ये दो दिन भी कब बीत गए पता नहीं चला।

समाधान क्या है?

 

जैसे समस्या उलझाऊ है, वैसे ही समाधान पर भी कोई स्पष्ट तरीका नहीं समझ आता। CYCLE के सह संस्थापक पारस त्यागी कहते हैं, ‘केंद्र सरकार की स्वामित्व योजना के जरिए देश के दूसरे हिस्सों में स्वामित्व कार्ड बांटे जा रहे हैं लेकिन दिल्ली सरकार ने इसे भी रोक रखा है। अगर यह हो जाए तो संभवत: काफी समस्याओं का हल निकल जाएगा।’

 

वहीं, पालम खाप के मुखिया सुरेंद्र सोलंकी ने जनवरी महीने में खबरगांव से हुई बातचीत में कहा था, ‘सरकारें समाधान करना ही नहीं चाहती हैं। हमें किसी पार्टी से मतलब नहीं है जो हमारा समाधान कर दे हम उसके साथ हैं। हम चाहते हैं कि मास्टर प्लान 2041 का नोटिफिकेशन जारी हो, लैंड पूलिंग पॉलिसी लागू हो, म्यूटेशन किया जाए और इस बार अगर ये सब नहीं होता है तो हम चुनाव का बहिष्कार भी करेंगे।’ अब सुरेंद्र सोलंकी और उनका संगठन बीजेपी के समर्थन में उतर आया है।

 

मौजूदा स्थिति यह है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले बार-बार आंदोलन कर रहे संगठन अब लगभग शांत से दिखने लगे हैं। चुनाव में गाहे-बगाहे बहिष्कार या किसी को समर्थन की बात भी हो रही है लेकिन एकजुटता नहीं दिख रही है। यही वजह है कि राजनीतिक दल भी दिल्ली देहात को एक बार फिर से गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।

 

कंझावला में सांकेतिक धरना लगभग साढ़े 5 महीने से जारी है। चुनावी वादों, नारों और रैलियों से भी दिल्ली देहात के मुद्दे शांत हो गए हैं। दिल्ली देहात के संगठनों से जुड़े लोग जो राजनीतिक दलों से टिकट की आस लगाए हुए थे वे भी टिकट का बंटवारा हो जाने के बाद शांत हो गए हैं। देखना यह है कि चुनाव के बाद राजनीतिक किस ओर करवट लेती है और दिल्ली देहात के ये लोग अगली बार किसके पास अपनी मांग लेकर जाते हैं।