फ्रीबीज पर कितना पैसा बहा रहीं सरकारें? SC ने क्यों जताई चिंता
फ्रीबीज यानी रेवड़ी कल्चर पर सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अहम टिप्पणी की है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकारों के पास जजों को सैलरी देने के लिए पैसे नहीं हैं, लेकिन मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के पैसे हैं।

सुप्रीम कोर्ट। (File Photo Credit: PTI)
सुप्रीम कोर्ट ने रेवड़ी कल्चर को अहम टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकारों के पास रेवड़ियां बांटने के लिए पैसे हैं, लेकिन जजों की सैलरी और पेंशन देने के लिए नहीं है। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी वादों का भी जिक्र किया।
जो कुछ नहीं करते, उनके लिए पैसा हैः कोर्ट
जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की बेंच ने फ्रीबीज को लेकर टिप्पणी की थी। बेंच ने कहा, 'मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के लिए राज्य सरकारों के पास पैसा है, लेकिन जजों की सैलरी और पेंशन के लिए पैसा नहीं है। सरकारों के पास उनके लिए पैसा है, जो कुछ नहीं करते लेकिन जब बात जजों की सैलरी की आती है तो वित्तीय संकट का बहाना बना दिया जाता है।'
सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए की। एसोसिएशन ने 2015 में याचिका दायर की थी, जिसमें जजों की सैलरी और पेंशन में सुधार की मांग की गई थी।
बेंच ने दिल्ली चुनाव के दौरान की जा रहीं चुनावी घोषणाओं का जिक्र करते हुए कहा, 'जजों की सैलरी की बात पर वित्तीय संकट का बहाना बना दिया जाता है लेकिन चुनाव के दौरान लाडली बहना जैसी योजनाओं की घोषणाएं होती हैं। कोई 2,100 तो कोई 2,500 रुपये देने का वादा कर रहा है।'
ये फ्रीबीज क्या हैं?
फ्रीबीज की कोई परिभाषा तय नहीं है। हालांकि, चुनावी सीजन के दौरान की जाने वाली घोषणाओं को फ्रीबीज माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट में भी इसे लेकर याचिकाएं दायर हैं, जिसपर सुनवाई चल रही है। सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग ने एक हलफनामा दायर कर बताया था कि 'अगर आपदा या महामारी के वक्त मुफ्त दवा, खाना या पैसा बांटा जा रहा है तो ये फ्रीबीज नहीं है। हालांकि, आम दिनों में या चुनावी सीजन में ऐसा होता है तो इसे फ्रीबीज माना जा सकता है।'
वहीं, रिजर्व बैंक (RBI) का मानना है कि 'ऐसी कोई भी स्कीम, जिससे क्रेडिट कल्चर कमजोर हों, सब्सिडी की वजह से कीमतें बिगड़ें या प्राइवेट इन्वेस्टमेंट में गिरावट आए तो वो फ्रीबीज होती हैं।'
राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए बड़े-बड़े वादे करती हैं। चुनाव जीतने के लिए उनके लिए ऐसी योजनाएं लागू करना गले की फांस बन जाता है। इससे बोझ ही बढ़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार कहा था, 'टैक्सपेयर के पैसों से बांटी जा रही फ्रीबीज सरकार को दिवालियेपन की तरफ धकेल सकती हैं।'
कितना खर्चा करती हैं सरकारें फ्रीबीज पर?
फ्रीबीज पर सरकारें हर साल हजारों करोड़ रुपये खर्च करती हैं। सरकारें इसे 'कल्याणकारी योजनाएं' बताती हैं, लेकिन इसका असर आर्थिक सेहत पर पड़ता है।
उदाहरण के लिए, अगर दिल्ली सरकार का बजट उठाकर देख लें तो हर महीने 200 यूनिट की फ्री बिजली के लिए 3,250 करोड़ रुपये सरकार ने रखे थे। जबकि, महिला सम्मान योजना के लिए 2,000 करोड़ रुपये का बजट रखा था। कुल मिलाकर दिल्ली सरकार ने अलग-अलग मिलाकर फ्रीबीज स्कीम के लिए 6,327 करोड़ रुपये का फंड रखा था। ये सरकार के कुल बजट (76,000 करोड़) का 8.3 फीसदी था।
दिल्ली में अभी महिला सम्मान योजना के तहत हर महीने 1,000 रुपये की मदद मिल रही है। आम आदमी पार्टी ने सरकार में वापसी करने के बाद इसे बढ़ाकर 2,500 रुपये करने का वादा किया है। हाल ही में वित्त सचिव एसी वर्मा ने चेतावनी दी थी कि इस योजना से 2025-26 में 4,560 करोड़ रुपये खर्च होंगे। चुनावी वादे पूरे करने के लिए सरकार को अगले साल 8,159 करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी।
ये तो हुई दिल्ली की बात। दो महीने पहले ही महाराष्ट्र में महायुति सरकार की वापसी हुई है। सरकार ने चुनाव से पहले लाड़की बहिन योजना का ऐलान किया था। इसके तहत, महिलाओं को हर महीने 1,500 रुपये दिए जाते हैं। राज्यों के बजट का एनालिसिस कर Emkay Research ने अपनी रिपोर्ट में अनुमान लगाया था कि अकेले इस योजना पर ही अगले वित्त वर्ष में 46 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे। इतना ही नहीं, फ्रीबीज बांटने में सरकार को कुल 96 हजार करोड़ रुपये खर्चा करना पड़ेंगे। Emkay Research की ये रिपोर्ट दिसंबर में ही आई थी।
इसका असर क्या हो रहा है?
अभी कुछ सालों से चुनाव जीतने के लिए फ्रीबीज की घोषणा करना कल्चर बन गया है। हर राजनीतिक पार्टी वोटरों को लुभाने के लिए फ्रीबीज की घोषणाएं कर रहीं हैं। इसका असर ये हो रहा है कि सरकारों का पैसा ऐसी जगह खर्च हो रहा है, जहां से भविष्य में कोई कमाई नहीं होनी। यानी, सरकारें अपनी GDP का 2 से 5 फीसदी इन फ्रीबीज पर खर्च कर रहीं हैं।
2022 में RBI ने अपनी एक रिपोर्ट में सुझाव दिया था कि सरकारों को गैर-जरूरी चीजों पर खर्च करने से बचना चाहिए। सरकारों को पूंजीगत निवेश यानी कैपिटल एक्सपेंडिचर बढ़ाना चाहिए, ताकि आने वाले समय में इससे कमाई हो सके। मगर ऐसा हो नहीं रहा है। सरकारें कैपिटल एक्सपेंडिचर पर मामूली खर्चा कर रही हैं।
उदाहरण के लिए, Emkay Research की रिपोर्ट बताती है कि देश की GDP में महाराष्ट्र की हिस्सेदारी 12.9 फीसदी है। यानी सबसे ज्यादा। मगर कैपिटल एक्सपेंडिचर में महाराष्ट्र सबसे पीछे है। महाराष्ट्र अपनी GDP का सिर्फ 1.5 फीसदी ही कैपिटल एक्सपेंडिचर करता है। महाराष्ट्र के तमिलनाडु है, जिसकी देश की GDP में 9.4 फीसदी की हिस्सेदारी है। तमिलनाडु ने अपनी GDP का सिर्फ 1.6 फीसदी ही पूंजीगत निवेश किया था।
इतना ही नहीं, फ्रीबीज सरकारों को कर्जदार बना रही हैं। पिछले साल हिमाचल प्रदेश पर कर्ज का इतना संकट बढ़ गया था कि मुख्यमंत्री और मंत्रियों को अपनी दो महीने की सैलरी छोड़नी पड़ी थी। सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाली सैलरी और पेंशन भी देरी से मिल रही थी। मार्च 2025 तक हिमाचल पर 96 हजार करोड़ का कर्ज हो जाएगा।
RBI की रिपोर्ट बताती है कि मार्च 2019 तक सभी राज्य सरकारों पर 47.86 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था। मार्च 2024 तक ये कर्ज बढ़कर 75 लाख करोड़ से ज्यादा हो गया। मार्च 2025 तक ये कर्ज और बढ़कर 83 लाख करोड़ से ज्यादा होने का अनुमान है।
RBI का अनुमान है कि 2026-27 तक पंजाह देश का सबसे कर्जदार होगा। उस समय पंजाब पर अपनी GSDP का 45% कर्ज होगा। इसके अलावा राजस्थान, केरल, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, हरियाणा और तमिलनाडु पर 30% से ज्यादा कर्ज होगा।
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