महाराष्ट्र में कॉमेडियन कुणाल कामरा के शो के बाद शिवसेना पुराने रंग में वापस आ गई है। शिव सैनिकों के प्रदर्शन के तरीके दशकों से एक जैसे रहे हैं। उत्तर और दक्षिण भारतीयों के खिलाफ 70 के दशक में हुए अभियानों की बात हो या फिल्मों और कलाकारों पर हमले की, शिवसैनिकों के विरोध प्रदर्शन का तरीका एक सा रहा है। साल 2000 में तो शिवसैनिकों ने उत्तर भारतीयों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था। निशाने पर बिहार और उत्तर प्रदेश के आम लोग थे, जिनके खिलाफ व्यापक प्रदर्शन हुए। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना थोड़ी नम पड़ी तो एकनाथ शिंदे की शिवसेना 'गद्दार' सुनकर सड़कों पर आ गई।

कॉमेडियन कुणाल कामरा ने 'दिल तो पागल है' के मशहूर गाने 'भोली सी सूरत' की तर्ज पर 'ठाणे का रिक्शा, चेहरे पर दाढ़ी...' नाम से एक पैरोडी लिखा। गाने में एक जगह उन्होंने 'गद्दार' शब्द का इस्तेमाल किया। उन्होंने एकनाथ शिंदे का नाम नहीं लिया लेकिन उनके समर्थकों ने जमकर हंगामा किया। कर्यकर्ताओं ने यूनीकॉन्टिनेंटल होटल में जहां कुणाल कामरा ने शो किया था, उस स्टूडियो को ही तोड़ दिया। उनके प्रदर्शन का तरीका ठीक वैसा ही था, जैसा 1998 में सोल्जर की शूटिंग के दौरान शिवसैनिकों ने किया था, मायनेम इज खान और पद्मावत के वक्त भी।

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क्या पुराने रंग में वापस आ गई है शिवसेना?
महाराष्ट्र की सियासत पर नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मुंबई में बीएमसी इलेक्शन होने वाले हैं। उससे पहले एकनाथ शिंदे गुट यह साबित करना चाहता है कि भले ही 'साहब' अब डिप्टी सीएम हो गए हों लेकिन उनके नेतृत्व का न तो अंदाज बदला है, न ही उनके कार्यकर्ताओं का मनोबल कम हुआ है। शिवसेना का BMC पर पारंपरिक तौर पर दबदबा रहा है। महाराष्ट्र के चुनावों ने साबित भी कर दिया है कि शिवसेना का असली वारिस कौन है। ऐसे में कुणाल कामरा विवाद के बाद शिवसैनिकों को अपना दबदबा दिखाने का मौका पहली बार मिला तो जमकर तोड़-फोड़ की गई। 

एकनाथ शिंदे, शिवसेना की रैली में। (Photo Credit: ShivSena/X)

क्या संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं एकनाथ शिंदे?
एकनाथ शिंदे, डिप्टी सीएम बनने के बाद एकनाथ शिंदे ने अपने विरोधियों को बीते महीने ही संदेश दिया था, 'मैं एक साधारा कार्यकर्ता हूं लेकिन बाला साहेब ठाकरे का कार्यकर्ता हूं, मुझे हल्के में मत लीजिए।' नए विवाद पर एकनाथ शिंदे ने कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी सीमाएं होनी चाहिए। 

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हंगामे की इनसाइड स्टोरी क्या है?
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीएमसी चुनाव होने वाला है। निकाय चुनावों में शिवसेना दबदबा कायम रखना चाहती है। जून 2022 के बाद से ही एकनाथ शिंदे को उद्धव गुट 'गद्दार' बता रहा है, जबकि शिंदे गुट का कहना है कि उद्धव ठाकरे हिंदुत्व की राह छोड़कर कांग्रेस की राह पर चल पड़े हैं और उन्होंने बाल ठाकरे की विचारधारा के साथ गद्दारी की है। 


कुणाल कामरा के शो पर शिवसेना का ऐक्शन ही इसी संदेश को देने की कोशिश है कि बीएमसी में भी शिंदे का ही दबदबा रहेगा। अब 'साहेब' उद्धव ठाकरे नहीं, एकनाथ शिंदे हैं।

बीएमसी में 3 दशक से शिवसेना काबिज है। महाराष्ट्र विधानसभा में शिवसेना के पास 57 सीटें हैं, ज्यादा बेहतर प्रदर्शन के बाद भी सीएम न बनने की कसक, शिवसैनिकों के मन में है। अब जानकारों का कहना है कि बीएमसी पर शिवसेना अपना ही हक जमाएगी। 

शिवसेना आधिकारिक तौर पर क्या कह रही है?
शिवसेना सांसद नरेश म्हास्के ने कहा, 'अगर कोई हमारे नेता के खिलाफ अपमानजनक बयान देगा तो हम मूकदर्शक नहीं रहेंगे। हमारे कार्यकर्ता अपनी शैली में प्रतिक्रिया देने के लिए बाध्य हैं।' शिवसेना ने अपनी शैली में वापसी की है।

हंगामे के बाद यूनीकॉन्टिनेंटल होटल के स्टूडियो का नजारा। (Photo Credit: PTI)

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कब कब शिवसैनिकों के हंगामे का गवाह बना महाराष्ट्र

साल 1966  में शिवसेना की स्थापना हुई थी। यह संगठन उग्र हिंदुत्ववादी पार्टी के तौर पर सामने आया। नैतिकता की राजनीति का दावा, हिंसक प्रदर्शन, तोड़फोड़ जैसी कई गतिविधियों में इस संगठन का नाम आया। कभी भारत पाकिस्तान के मैच को रोक देने की धमकी, कभी माय नेम इज खान जैसी फिल्मों के रिलीज पर हंगामा, इस पार्टी के नाम कई मौकों पर सामने आया। अक्टूबर 1991 में तो शिवसैनिकों ने भारत-पाकिस्तान का मैच रोकने के लिए मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम की क्रिकेट पिच खोद दी थी और सिरीज रद्द हो गई। जनवरी 1991 में दिल्ली में भी यही हंगामा करने की कोशिश हुई। 14 फरवरी 2000 को वैलेंटाइन डे मना रहे जोड़ों को शिवसैनिकों ने पीटा, कई जगहों पर हंगामा किया।  

उद्धव नरम, शिंदे गरम, कैसी है दोनों की शिवसेना
उद्धव ठाकरे बाल ठाकरे के बेटे हैं। साल 2012 में पिता के निधन के बाद उन्होंने पार्टी की कमान संभाली। उनका रुख, पिता की तरह आक्रामक नहीं है। उनकी पार्टी अब सेक्युलर राजनीति  करती है। साल 2015 में जब शिवसेना अविभाजित थी, तब उनके नेतृत्व वाली शिवसेना ने भी पाकिस्तानी गायक गुलाम अली के म्युजिक प्रोग्राम पर विरोध जताया था। साल 2020 में कंगना रनौत ने तत्कालीन'MVA सरकार' की आलोचना की थी, कंगना का ऑफिस BMC ने तोड़ दिया था। अब शिंदे खुद को बाल ठाकरे का असली वारिस बताते हैं, उद्धव ठाकरे अपने आपको। अगर मौजूदा राजनीति को देखें तो शिवसेना के पारंपरिक रुख से उद्धव ठाकरे शांत पड़े हैं, कुणाल कामरा के शो के बाद एकनाथ शिंदे की शिवसेना पुराने रंग में लौटती नजर आई है।