सनातन परंपरा में साधु-संत और महात्मा एक अभिन्न हिस्सा कहे जाते हैं। हालांकि, कई लोग इन साधु, संत और अघोरियों को एक ही समझ बैठते हैं, जबकि ऐसा है नहीं है। बता दें कि साधु-संतों की कई श्रेणियां हैं, जो अपने अलग-अलग आचरण, तपस्या और साधना पद्धति के लिए प्रसिद्ध हैं। इनमें अघोरी, नागा साधु, साधु और संत जैसे साधक शामिल हैं, जिन्हें एक मानने की भूल कई लोग कर बैठते हैं। ऐसे में आइए जानते हैं कि अघोरी, नागा साधु, संत इत्यादि में क्या मुख्य अंतर होता है?

अघोरी

अघोरी साधु तांत्रिक मार्ग पर चलते हैं और ये भगवान शिव के अघोर रूप की उपासना करते हैं। अघोरी जीवन और मृत्यु के पार जाकर ब्रह्मांड की उच्चतम सच्चाई को जानने का प्रयास करते हैं। इनका मुख्य उद्देश्य भौतिक सुख-दुख और सामाजिक बंधनों से मुक्त होकर आत्मज्ञान प्राप्त करना है। अघोरी श्मशान घाट, जंगल में और मुख्य रूप से एकांत में साधना करते हैं और मृत्यु को अपना गुरु मानते हैं।

 

अघोरी शव साधना, तंत्र साधना और ध्यान के माध्यम से आत्मा को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं। कई बार देखा जाता है कि अघोरी उपवस्त्र के रूप में कपाल माला पहनते हैं और राख को शरीर पर मलते हैं। अघोरी सामाजिक मान्यताओं और परंपराओं को नकारते हैं। वे सभी चीजों को समान दृष्टि से देखते हैं और मानते हैं कि ब्रह्मांड में कोई भी वस्तु अपवित्र नहीं है।

 

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नागा साधु

नागा साधु अकाल या कुंभ मेले के दौरान दीक्षा लेते हैं। ये अद्वैत वेदांत और भगवान शिव के उपासक मानें जाते हैं। नागा साधु मुख्य रूप से वैराग्य और शारीरिक तपस्या का पालन करते हैं। नागा साधु निर्वस्त्र रहते हैं, जो उनकी पूर्ण वैराग्य का प्रतीक होता है। 

 

नागा कठोर तपस्या करते हैं, जिनमें बर्फीले क्षेत्र में गुफाओं में बैठकर या आग के घेरे में साधना करते हैं। इसके साथ ये योग, ध्यान और शस्त्र विद्या में भी पारंगत होते हैं। नागा साधु धर्मरक्षा के लिए शारीरिक बल का भी उपयोग करते हैं। ये गुरुओं के संरक्षण में दीक्षा प्राप्त कर सामाजिक कल्याण के लिए कार्य करते हैं। नागा साधुओं को अधिकांश समय कुंभ में ही देखा जाता है, अन्यथा ये एकांत और गुप्त रहकर ध्यान-साधना करने में विश्वास रखते हैं।

साधु

साधु वे लोग होते हैं जो सांसारिक जीवन त्यागकर अध्यात्म की राह पर चल पड़ते हैं। हालांकि, साधु भगवान के किसी विशेष रूप, जैसे राम, कृष्ण, शिव, या देवी की आराधना करते हैं। साधु समाज के विभिन्न मठों और आश्रमों में रहते हैं। साधु मुख्य रूप से मंत्र जाप, भजन, कीर्तन और ध्यान के माध्यम से भगवान की आराधना करते हैं। 

 

साथ ही साधु भगवद्गीता, वेद, उपनिषद और अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन और प्रचार करते हैं। साधु समाज में सामान्य रूप से अहिंसा, सत्य और सेवा का पालन करते हैं। वे सांसारिक सुखों से दूर रहते हुए परोपकार और धार्मिक शिक्षाओं का प्रसार करते हैं। साधु विशेष रूप से अपने आश्रम में निवास करते हैं और भक्तों से मिलते हैं।

 

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संत

संत उन्हें कहा जाता है, जिन्होंने उच्च आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति हो चुकी होती है। संतों को आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ सांसारिक ज्ञान भी होता है और वे समाज के कल्याण के लिए प्रेरक होते हैं। अधिकांश संत भक्ति मार्ग का पालन करते हैं और ईश्वर की भक्ति, ध्यान, साधना और ज्ञान के प्रचार के माध्यम से जीवन जीते हैं। 

 

संत अपने ज्ञान से समाज को प्रेम, शांति, और सेवा का मार्ग दिखाते हैं। वे किसी एक धर्म, जाति, या वर्ग के बंधन में नहीं होते, बल्कि उनका उद्देश्य मानवता की सेवा और जनकल्याण होता है। उदाहरण के लिए, संत कबीर और संत तुलसीदास।

क्या कथावाचकों को भी कहा जाएगा संत?

कई बार लोग श्रद्धाभाव से कथावाचकों को भी संत या संन्यासी मानने की गलती कर बैठते हैं। बता दें कि कथावाचक केवल भगवान की कथा को लोगों तक पहुंचाने का कार्य करते हैं और इसके लिए वे शुल्क भी लेते हैं। जबकि संत बिना किसी शुल्क के स्वेच्छा से अपने ज्ञान का प्रसार करते हैं। 

 

हालांकि, कई ऐसे साधु-संन्यासी हैं जो धर्म के प्रचार के लिए कथा करते हैं, लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि उन्हें जगद्गुरु या स्वामी जैसी उपाधियां नियमानुसार और प्राचीन पद्धति का पालन करके प्राप्त हुई होती हैं, इसलिए उन्हें कथावचक की श्रेणी में नहीं आते हैं।

Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारियां सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं। Khabargaon इसकी पुष्टि नहीं करता।