इस्लाम में 'आशूरा' का दिन बहुत ही पवित्र और भावनात्मक माना जाता है। यह इस्लामी कैलेंडर के पहले महीने मुहर्रम की 10वीं तारीख को आता है। यह न सिर्फ इस्लाम में एक अहम दिन है, बल्कि इतिहास में हुए एक गहरे दर्दनाक हादसे की याद भी है, जिसने इस्लामी समाज को दो प्रमुख समूह- शिया और सुन्नी में बांट दिया।
सबसे पहले, आशूरा का दिन नबी हजरत मूसा से जुड़ा हुआ माना जाता है। इस्लामी मान्यता के अनुसार, जब हजरत मूसा अपनी कौम को फिरऔन के अत्याचारों से बचाते हुए समुद्र पार कर गए और फिरऔन की सेना समुद्र में डूब गई, वह दिन आशूरा था। इस दिन के सम्मान में हजरत मुहम्मद ने रोजा रखा और अपने अनुयायियों को भी इसकी सलाह दी।
सुन्नी मुसलमान आज भी इस दिन को याद करते हुए रोजा रखते हैं, दुआएं पढ़ते हैं और मस्जिद जाते हैं। वह इसे एक पवित्र दिन के रूप में मनाते हैं, जिसमें अल्लाह की रहमत और नबी मूसा की जीत की याद होती है।
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करबला की घटना और हजरत हुसैन की शहादत
इस दिन का सबसे गहरा असर करबला की घटना से जुड़ा है। इस्लाम में जब नबी हजरत मुहम्मद का इंतकाल हुआ, तब खलीफा चुनने को लेकर मुस्लिम समाज में मतभेद हुआ। कुछ लोग नबी के करीबी सहयोगी अबू बकर को खलीफा मानते थे, जो आगे चलकर सुन्नी कहलाए, जबकि कुछ लोग मानते थे कि नबी के बाद उनका परिवार, खासकर उनके दामाद हजरत अली और फिर उनके बेटे हुसैन, इस्लाम को आगे ले जाने वाले हैं- यह लोग आगे चलकर शिया कहलाए।
करबला की घटना इस मतभेद का एक दुखद मोड़ बन गई। इस्लामी इतिहास के अनुसार, 680 ईस्वी में यजीद नामक व्यक्ति ने अपने पक्ष में जबरन खिलाफत हासिल कर ली। हजरत हुसैन, जो हजरत अली और हजरत फातिमा के बेटे थे और नबी मुहम्मद के नवासे थे, उन्होंने यजीद की बेजा खिलाफत को मानने से इनकार कर दिया।
हजरत हुसैन और उनके कुछ साथी और परिवारजन करबला के मैदान में यजीद की फौज से लड़ते हुए शहीद हो गए। इस युद्ध में हुसैन के साथ उनके छोटे बच्चे, भाई, रिश्तेदार- सभी ने प्यासे रहकर कुरबानी दी। यह घटना मुहर्रम की 10 तारीख को हुई थी और तभी से आशूरा का दिन इस बलिदान की याद में मनाया जाता है।
शिया और सुन्नी में बंटवारा
हजरत हुसैन की शहादत के बाद इस्लामी समाज में एक स्थायी मतभेद शुरू हो गया । शिया मुसलमान मानते हैं कि इस्लामी इमामत नबी के परिवार से ही होना चाहिए और हज़रत अली से लेकर हजरत हुसैन तक के उत्तराधिकारी ही सच्चे खलीफा हैं। दूसरी ओर, सुन्नी मुसलमान मानते हैं कि उम्मत यानी समुदाय की सहमति से जो खलीफा चुने जाएं, वही सही हैं।
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आशूरा पर क्या किया जाता है?
शिया मुसलमान इस दिन को गहरे शोक और मातम के रूप में मनाते हैं। वह हजरत हुसैन की शहादत को याद करते हुए मजलिसें करते हैं, नौहा पढ़ते हैं और जंजीर या सीना-जनी जैसी प्रतीकात्मक मातम के काम करते हैं। वह करबला के दर्द को फिर से जीवित कर इस घटना को याद रखते हैं।
सुन्नी मुसलमान इस दिन रोजा रखते हैं, गरीबों को खाना खिलाते हैं और नेक काम करते हैं। उनके लिए यह एक पुण्यदायक दिन होता है लेकिन करबला की घटना को उतनी भावनात्मक गहराई से नहीं मनाते जैसे शिया समुदाय करता है।