वैदिक पंचांग के अनुसार, आज से चैत्र नवरात्रि का शुभारंभ हो चुका है। शास्त्रों में इस दिन विषय में विस्तार से बताया गया है। नवरात्रि के प्रथम दिन देवी शैलपुत्री की पूजा होती है। वे नवदुर्गाओं में प्रथम स्थान पर हैं और उन्हें हिमालय पुत्री माना जाता है। उनकी पूजा करने से साधक को मूलाधार चक्र की सिद्धि प्राप्त होती है, जो आध्यात्मिक उन्नति का प्रथम चरण है।

शैलपुत्री देवी का जन्म और पूर्व जन्म की कथा

पूर्व जन्म: सती के रूप में

शैलपुत्री देवी अपने पूर्व जन्म में सती थीं, जो राजा दक्ष की पुत्री और भगवान शिव की अर्धांगिनी थीं। सती बचपन से ही शिव की उपासना में लीन रहती थीं और उन्हीं को अपना पति मानती थीं। जब वे युवा हुईं, तो उन्होंने कठिन तपस्या करके शिव को प्रसन्न किया और उनसे विवाह किया। हालांकि, उनके पिता दक्ष प्रजापति शिव को अपना दामाद बनाने से नाखुश थे। वे भगवान शिव का अनादर करते थे और उन्हें सम्मान नहीं देते थे।

 

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दक्ष यज्ञ और सती का आत्मदाह

एक बार, राजा दक्ष ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने सभी देवताओं और ऋषियों को आमंत्रित किया, लेकिन भगवान शिव को निमंत्रण नहीं भेजा। सती को जब इस बात का पता चला, तो वे अपने पति की अनुमति लेकर यज्ञ में जाने के लिए तैयार हुईं। शिव ने उन्हें समझाया कि बिना निमंत्रण जाना उचित नहीं होगा, लेकिन सती अपने पिता के पास जाने के लिए दृढ़ थीं।

 

जब वे यज्ञ स्थल पर पहुंचीं, तो उन्होंने देखा कि सभी देवताओं के लिए श्रेष्ठ आसन रखे गए हैं, लेकिन भगवान शिव के लिए कोई स्थान नहीं दिया गया था। उनके पिता दक्ष ने शिव का अपमान किया और उनके विरुद्ध कटु वचन कहे। यह सब सुनकर सती को अत्यंत दुःख हुआ और वे अपने पति का अपमान सहन नहीं कर सकीं। क्रोध और अपमान के कारण उन्होंने अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म कर लिया।

 

भगवान शिव को जब इस घटना की जानकारी मिली, तो वे अत्यंत क्रोधित हो गए और अपने गण वीरभद्र को भेजकर दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर दिया। इसके बाद शिव सती के जले हुए शरीर को लेकर पूरे ब्रह्मांड में विचरण करने लगे। भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभाजित कर दिया, जो अलग-अलग स्थानों पर गिरे और जिन्हें बाद में शक्तिपीठ कहा गया।

शैलपुत्री के रूप में पुनर्जन्म

सती का यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उन्होंने अगले जन्म में हिमालयराज के घर जन्म लिया और शैलपुत्री के रूप में प्रसिद्ध हुईं। शैलपुत्री का अर्थ है 'पर्वतराज की पुत्री'। उन्होंने अपने पूर्व जन्म की भांति इस जन्म में भी भगवान शिव को ही अपना पति मानकर कठोर तपस्या की।

शिव की घोर तपस्या

जब वे युवा हुईं, तो उन्होंने भगवान शिव को पुनः पति रूप में पाने के लिए कठिन तपस्या की। उन्होंने हजारों वर्षों तक केवल पत्तों पर रहकर तप किया, फिर जल तक का त्याग कर दिया। उनकी कठिन साधना के कारण देवता और ऋषि-मुनि प्रसन्न हुए और भगवान शिव स्वयं प्रकट हुए।

भगवान शिव ने शैलपुत्री को आशीर्वाद दिया और उनसे विवाह किया। इस प्रकार, सती ने पुनः शैलपुत्री के रूप में जन्म लेकर शिव से विवाह कर लिया और पार्वती के रूप में पूजित हुईं।

शैलपुत्री देवी का स्वरूप

शैलपुत्री देवी का स्वरूप अत्यंत दिव्य और सौम्य है। वे नंदी बैल पर सवार रहती हैं और उनके दो हाथ हैं। दाएं हाथ में त्रिशूल होता है, जो शक्ति का प्रतीक है और बाएं हाथ में कमल होता है, जो शुद्धता और ज्ञान का प्रतीक है। उनका वाहन नंदी बैल है, जो धर्म, कर्तव्य और निष्ठा का प्रतीक है।

 

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शैलपुत्री देवी की उपासना और महत्व

नवरात्रि के प्रथम दिन देवी शैलपुत्री की पूजा करने से भक्त को मूलाधार चक्र की सिद्धि प्राप्त होती है। यह चक्र अध्यात्मिक ऊर्जा का पहला केंद्र होता है, जो जागृत होने पर साधक को आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।

देवी शैलपुत्री पूजन विधि

  • प्रातः स्नान कर देवी की मूर्ति या चित्र के सामने दीप जलाएं।
  • लाल पुष्प, अक्षत (चावल) और कुमकुम चढ़ाएं।
  • 'ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः' मंत्र का 108 बार जाप करें।
  • शैलपुत्री को सफेद वस्त्र और दूध से बनी मिठाई अर्पित करें।

शैलपुत्री की कृपा से लाभ

  • मानसिक शांति और स्थिरता प्राप्त होती है।
  • बुरे कर्मों और पापों से मुक्ति मिलती है।
  • जीवन में सकारात्मक ऊर्जा और आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है।

Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारी ज्योतिष शास्त्र, सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं।