गंगा। नाम से जितनी शीतल उतनी चंचल। एक दिन प्रतापी राजा वहीं, कल-कल बहली गंगा के तट पर गंगाद्वार में आसन लगाकर तपस्या कर रहे थे। तप के कई वर्ष बीत गए। एक दिन उनकी तपस्या चल ही रही थी, तभी गंगा के बीच प्रवाह में एक युवती बाहर आई। उसका रूप अलौकिक था। वह खेल-खेल में राजा प्रतीप के दाहिनी जांघ पर जा बैठी।
 

राजा प्रतीप की आंखें खुल गईं। उन्होंने कहा कि देवी मेरे लिए क्या आज्ञा है। उस स्त्री ने कहा कि मुझे आपसे प्रेम है, आप स्वीकार करें। कामुक स्त्री के अनुरोध को टालना महापाप है। तपस्वी राजा ने कहा कि मैं परायी स्त्री के साथ समागम नहीं करता। यह मेरा धर्मव्रत है।

शांतनु नहीं, उनके पिता से मिली थीं गंगा
स्त्री ने कहा, 'मैं दिव्य कन्या हूं, आपके प्रति प्रेम है, मैं समागम के अनुकूल हूं। राजा प्रतीप धर्महानि होने से डरते हैं। वे बोल पड़ते हैं कि मैं तुम्हारे अनुरोध को पूरा कर दूं तो पाप लगेगा। तुम मेरी दाहिनी जांघ पर बैठी हो। यह पुत्र, पुत्री और पुत्रवधु का आसन है। मैं तुम्हारे साथ स्नेह रख सकता हूं, काम-वासना से नहीं देख सकता। तुम मेरी पुत्रवधु बनो। तुम मेरी गोद में बैठी हो। वह स्त्री, राजा प्रतीप की बात सुनकर प्रभावित हो जाती है और उनके पुत्र से विवाह के लिए तैयार हो जाती है।'

प्रतीप पर दिल हार बैठी थी गंगा
वह स्त्री जानती थी कि राजा प्रतीप, भरतवंश के प्रतापी राजा हैं। स्त्री उनके सामने शर्त रखती है कि वह उनके पुत्र से एक शर्त पर विवाह करेगी अगर उसके हर आचरण को राजा के पुत्र सही मानेंगे। उसका विरोध नहीं करेंगे। वह कहती है कि इससे जो भी पुत्र होंगे, वे भरतवंश का नाम बढ़ाएंगे और पिता को सद्गति देंगे।

राजा प्रतीप ने अपने बेटे से करा दी थी शादी
राजा प्रतीप तैयार हो जाते हैं। प्रतीप की पत्नी कुक्षि गर्भवती हो जाती हैं। 10वें महीने में उन्हें चंद्रमा की तरह एक पुत्र पैदा होता है, जिसका ओज सूर्य की तरह होता है। सभी संस्कारों के बाद उसका नाम शांतनु पड़ता है। वही राजकुमार शांतनु नाम से भारत में विख्यात होता है। राजा प्रतीप शांतनु को एक दिन अपने पास बुलाते हैं। उन्होंने कहा कि यदि तुम्हारे पास कामभाव से एक नारी आए और एकांत में तुमसे पुत्र पाने की इच्छा रखे तो उससे परिचय न पूछना। तुम उसे पत्नी बना लेना। 

वर्षों बाद शांतनु से मिली थीं गंगा
राजा प्रतीप, अपना काम-काज शांतनु को सौंपकर वन चले जाते हैं। एक दिन वे गंगा किनारे पहुंचे। एक अद्भुत देवकन्या उन्हें दिखी। शांतनु उस पर दिल हार बैठे। उन्होंने उसके पास जाकर कहा कि तुम मेरी पत्नी बन जाओ, तुम दानवी, गंधर्वी, अप्सरा, यक्षी, नागकन्या या मानवी, जो भी हो, मुझसे विवाह कर लो। वह स्त्री विवाह के लिए तैयार हो जाती है। वह कहती है कि मैं आपकी पत्नी बनूंगी।

गंगा की शर्तें 
बस स्त्री दो शर्तें रखती है। पहली शर्त होती है कि अगर उसे रोका गया तो वह छोड़कर चली जाएगी। दूसरी शर्त होती है कि राजा क्रोध में कभी उससे कुछ ऐसा न कहें जिससे उसे पीड़ा हो। अगर ऐसा होगा तो वह छोड़कर चली जाएगी। राजा शांतनु को यह नहीं पता था कि इस शर्त की एक बड़ी कीमत उन्हें चुकानी होगी। उन्होंने उस स्त्री से विवाह कर लिया।

एक के बाद एक 8 पुत्रों को गंगा ने मार डाला
राजा शांतनु ने उस स्त्री को विधिपूर्वक विवाह किया, हस्तिनापुर पहुंचे। राजा शांतनु ने उस स्त्री से कुछ भी नहीं पूछा। राजा शांतनु की 8 संतानें हुईं। जो पुत्र होता, वह स्त्री, गंगा में फेंक आती थी। वह स्त्री कहती कि मैं तुम्हें प्रसन्न कर रही हूं। अपनी पत्नी का यह अपराध शांतनु को अच्छा नहीं लगता। वे उसे टोकते नहीं थी। डर था कि उन्हें छोड़कर ये चली न जाए। जब उनका आठवां पुत्र पैदा हुआ तो वह स्त्री हंसने लगी। शांतनु गिड़गिड़ाने लगे कि इस पुत्र का वह वध न करे।  राजा शांतनु कहते हैं, 'तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? क्यों अपने बच्चों को मार डालती हो। तुम हत्यारी हो, यह निंदित कर्म करने का तुम्हें पाप लगेगा।' उस स्त्री को, राजा को छोड़ने का बहाना मिल जाता है। 

शांतनु ने तोड़ा वादा, ऐसे बची भीष्म की जान
वह कहती है, 'मैं तुम्हारे पुत्र को नहीं मारूंगी लेकिन मेरे यहां रहने का समय खत्म हो चुका है। हमने यह शर्त रखी थी। मैं जह्नु पुत्रि हूं और मेरा नाम गंगा है। ऋषि-मुनी मेरी पूजा करते हैं। मैं देवताओं का काम करने के लिए तुम्हारे साथ रह रही थी। तुम्हारे 8 पुत्र, 8 वसु हैं, जो वसिष्ठ के श्राप की वजह से मानव योनि में पैदा हुए थे। तुम्हारे अलावा कोई और राजा इतना पुण्यवान नहीं था, जिसके घर वसु पैदा हों। मेरे अलावा कोई उन्हें गर्भ में रख नहीं सकता था। मैंने इन दिव्य वसुओं को जन्म देने के लिए यह अवतार लिया था। तुम्हें अक्षय लोक मिल गया है। वसु ने यह शर्त रखी थी उन्हें मनुष्य योनि से तत्काल छुटकारा दिला देना। मैं वचनबद्ध थी। वसु शापमुक्त हैं। अब आप महान पुत्र का लालन-पालन करो। इस वसु में सभी वसुओं का अंश होगा, इसका नाम गंगादत्त रखना।'

 

गंगा का पुत्र गंगादत्त कोई और नहीं, कठिन प्रतिज्ञाओं वाले देवव्रत थे। वही देवव्रत जो महाभारत के सबसे प्रतापी योद्धा थे, जिनका नाम भीष्म पितामह था। वे कुरुवंश के सबसे महान योद्धाओं में गिने जाते थे।