यदुवंशियों के महान राजा शूरसेन के घर एक कन्या जन्मी थी, जिनका नाम पृथा था। पृथा, संसार की सबसे सुंदर स्त्रियों में से एक थीं। शूरसेन के फुफेरे भाई राजा कुंतिभोज संतानहीन थे। शूरसेन ने अपने भाई को वचन दिया था कि अगर उन्हें संतान हुई तो पहली संतान, कुंतिभोज को दे देंगे। शूरसेन की पहली बेटी हुई, जिनका नाम पृथा रखा गया।

 

पृथा को शूरसेन ने कुंतिभोज को गोद दे दिया। कुंतिभोज के घर पर पृथा ने देवताओं की खूब भक्ति की। वे महर्षियों की सेवा करती थीं। एक बार की बात है कि राजा कुंतिभोज के घर महर्षि दुर्वासा आए। दुर्वासा ऋषि अपने क्रोध के लिए जाने जाते थे। धार्मिक कर्मकांड, आतिथ्य में कुछ भी ऊंच-नीच हो तो वे श्राप दे देते थे। पृथा की सेवा से वे इतने संतुष्ट हुए कि उन्होंने राजकुमारी को आशीर्वाद दे दिया। दुर्वासा ने पृथा को एक वशीकरण मंत्र दिया और उसकी विधि समझाई।

 

दुर्वासा का आशीर्वाद ही बना शाप
महर्षि दुर्वासा ने कहा, 'यं यं देवं त्वमेतेन मन्त्रेणावाहयिष्यसि, तस्य तस्य प्रसादेन पुत्रस्तव भविष्यति।' हिंदी में इसका अर्थ है कि इस मंत्र से तुम जिस-जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी-उसी के अनुग्रह से तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा।

जब मंत्र से खिंचे चले आए सूर्य देव
राजा कुंतिभोज के घर रहने की वजह के पृथा का एक नाम कुंती भी था। वे अभी बच्ची थीं, उन्होंने मंत्र की ताकत जानने के लिए भगवान सूर्य का आवाहन कर लिया। दुर्वासा के मंत्रबल की वजह से सूर्य देव प्रकट हो गए। कुंती चकित रह गईं। भगवान सूर्य ने कहा कि बताओ कुंती, मैं क्या करूं? तुम्हारे बुलाने पर मैं आया हूं। तुम्हें पुत्र दूंगा। मैं सूर्य हूं। कुंती सहम जाती हैं। 

कुंती कहती हैं कि भगवान, ऋषि दुर्वासा ने मुझए वरदान में देवताओं के आवाहन का मंत्र दिया है, मैंने मंत्र की परीक्षा लेने के लिए आपका आवाहन किया था। मुझसे यह बड़ी गलती हो गई। मुझे क्षमा कीजिए। 

कुंती और सूर्य का समागम
भगवान सूर्य ने कहा कि मैं जानता हूं तुम्हें सूर्य देवता ने वर दिया है। तुम मेरे साथ समागम करो। मेरा दर्शन अमोघ है, व्यर्थ नहीं जाता है। अगर यह व्यर्थ हुआ तो तुम्हें दोष लगेगा। कुंती कुवांरी थीं। उन्होंने समागम से इनकार कर दिया। उन्हें भय था कि अगर उन्होंने समागम किया तो समाज में कलंक लगेगा। 

सूर्य ने कहा, 'तुम्हारा पुत्र माता अदिति के दिए दिव्य कुंडलों और कवच को लिए पैदा होगा। उसका कवच किसी भी अस्त्र से नहीं टूटेगा। वह दानवीर होगा। वह अधर्म नहीं करेगा। उससे कोई जो मांग लेगा, वह दे देगा। वह स्वाभिमानी होगा। तुम्हें समागम का दोष नहीं लगेगा।' 

ऐसे हुआ कर्ण का जन्म
सूर्य ने कुंती के साथ समागम किया। एक तेजस्वी पुत्र पैदा हुआ। उसने जन्म से ही कवच-कुंडल पहना था। वह देवताओं की तरह सुंदर था। उसका नाम कर्ण पड़ा। भगवान सूर्य ने कुंती को अखंड कौमार्य का वरदान दिया और अपने लोक में लौट गए। 

महाप्रतापी कर्ण का जन्म

सूर्य देव के जाते ही कुंती लोक-लाज के भय से डर गईं। कर्ण की मां कुंती ने अधर्म और लोकनिंदा के भय से अपने पुत्र कर्ण को एक सरोवर के पास छोड़ दिया। कर्ण को जल में पड़ा देखकर अधिरथ और राधा नाम की एक दंपति ने उठा लिया और पुत्र बना लिया। दंपति ने इस पुत्र का नाम वसुषेण रखा। कर्ण बचपन से ही प्रतिभाशआली थे। उन्होंने हर तरह की असत्रविद्या सीखी। सूर्य ने खंड तप किया। पराक्रम कमाया। 

कर्ण पर कभी न मिटने वाला अमर कलंक
महाभारत के युद्ध में कर्ण को पता था कि वह छल से मारा जाएगा लेकिन वह दान के प्रति इतना प्रतिबद्ध था कि उसने अपना अमोघ कवच तक दान दे दिया। द्रौपदी के चीरहरण के वक्त दानवीर कर्ण ने भी पांडवों की पत्नी को अपशब्द कहे थे. महाप्रतापी कर्ण नारी के अपमान पर चुप था। इसका भी महापाप कर्ण को लगा, अंतिम गति कर्ण की अधम रही लेकिन दानवीरों के इतिहास में उसे सबसे महान दानी के रूप में जाना जाता है।