पुरी की जगन्नाथ रथयात्रा न केवल एक त्योहार है, बल्कि आस्था का महासंगम, संस्कृति का प्रतीक और एक आध्यात्मिक अनुशासन भी है। इस महापर्व की सबसे आकर्षक बात हैं तीन भव्य रथ- नंदीघोष (जगन्नाथ), तालध्वज (बलभद्र) और दर्पदलन (सुभद्रा)। यह रथ हर साल नए सिरे से बनाए जाते हैं और रथों के निर्माण में कई चीजों का इस्तेमाल किया जाता है, जिनका अपना एक आध्यात्मिक अर्थ है। आइए जानते हैं, रथ यात्रा में इस्तेमाल होने वाली चीजें और उनका धार्मिक अर्थ।
छत्र (चतरा/छतरी)
यह सम्राटों द्वारा उपयोग में लायी जाती थी, जो भगवान को सर्वोपरि दर्शाती है। साथ ही यह रथ पर ईश्वर को सुरक्षा और सम्मान का संकेत देती है। जैसे भगवान शिव कैलाश पर विराजते हैं, वैसे ही छत्र ईश्वर को ऊंचाई और दिव्यता से जोड़ती है।
रंगीन कपड़े और झंडे
रथ पर उपयोग होने वाले रंग (जैसे लाल, पीला, नीला) भगवान के विशेष गुण- प्यार, ज्ञान, विजय का प्रतीक हैं। इसके साथ सभी रथ पर ऊपर की ओर झंडा होता है, जो भगवान की शक्ति, ईश्वरीय सत्ता और आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है।
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घंटियां और सिसलियां
यह रथ को सजाने के साथ-साथ पवित्र संगीत, र्तन और वातावरण में शुद्धता ला देती हैं। घंटियों की आवाज सुनकर भक्त समझते हैं कि प्रभु नजदीक आ गए हैं।
संडलवुड जल और चंदन
गजपति राजा और पुजारी रथ व रास्ते को चंदन जल से छिड़क कर उसे शुद्ध-सेवा के लिए तैयार करते हैं। चंदन की ठंडक भक्तों को राहत देती है और मानसिक शुद्धि का अनुभव कराती है। साथ ही कहा जाता है कि भगवान विष्णु को चंदन बहुत प्रिय है। इसलिए भी चंदन का प्रयोग महत्व रखता है।
चक्र (नीलचक्र / सुदर्शन चक्र)
नीलचक्र भगवान विष्णु/कृष्ण का दिव्य अस्त्र है। यह चक्र समय की गति और ब्रह्मांडीय नियम का प्रतीक भी है।
रथ निर्माण में उपयोगी लकड़ियां
रथ निर्माण में नीम, धौसा, फासी जैसी पवित्र लकड़ियां उपयोग में लाई जाती हैं, जो बैशाखी ऋतु में हाथी, चक्र और रथकारों द्वारा चुनी जाती हैं। यह लकड़ियां धार्मिक रक्षा, कीट-प्रतिरोधकता व आयु का प्रतीक होती हैं।
गुरु सेना – 52 पार्श्व देवता
प्रत्येक रथ में चारों ओर छोटे-छोटे देवताओं की मूर्तियां लगती हैं, जो पार्श्वइश्वर या रक्षा वाहन हैं। यह भौतिक रूप में रथ की रक्षा के साथ-साथ आंतरिक रक्षा (मन की स्थिति) का संकेत भी हैं।
तीर और रथ के सारथि (घोड़े)
सभी रथ के आगे चार घोड़ों की लकड़ी की प्रतिमा होती है, जो इच्छा शक्ति या मनोबल है। रथों के सारथी दारुका, मतली, अर्जुन आदि कर्मयोगी का संदेश देते हैं। जगन्नाथ जी के रथ का सारथी दारुक है, बलभद्र के रथ का सारथी मातलि है, और सुभद्रा के रथ का सारथी अर्जुन है।
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चंदर (रथ का ब्रेक सिस्टम)
सभी रथ में रुकाव व्यवस्था होती है, जिससे रथों की गति नियंत्रित रहती है। यह बताता है कि भले ही हम जीवन में अग्रसर हों, हमें संयम, संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है।
रथ का निर्माण—कैसे तैयार होते हैं?
अक्षय तृतीया के मौके पर रथ निर्माण की शुरुआत होती है। लकड़ियां पारंपरिक तरीकों से नदी में से बहकर लाई जाती हैं, फिर विशेष कारीगर (Dasapalla वंश) इन्हें काट कर तैयार करते हैं। रथ का ढांचा छह हिस्सों में बनता है, जिसमें पूंछ, आठ कोनों की टावर जैसी संरचना, बीच में मैदान आदि शामिल है। फिर कारीगर लकड़ी पर नक्काशी और चित्रकारी करते हैं- जैसे पुष्प, देवी-देवता आदि।
तीनों रथ अलग-अलग रंगों के कपड़ों से ढके जाते हैं- नंदीघोष पर लाल-पीला, तालध्वज पर लाल-नीला, दर्पदलन पर लाल-काला। ऊपर की ओर स्वर्ण-झंडे व चक्र लगाए जाते हैं, जिन्हें उद्घाटन से पहले दिन में झाड़ू और चंदन से शुद्ध किया जाता है। सभी घटकों की जांच की जाती है, जिसमें- घोड़े, ब्रेक, झंडा, घंटियां, पार्श्व देवता, चतरा आदि शामिल हैं। रथ को मंदिर के सामने लेकर आकर अंतिम चंदन जल छिड़काव और गजपति राजा द्वारा छेड़ा पहरा किया जाता है।
छेड़ा पहरा
रथ यात्रा के पहले पूरे विधि-विधान के बाद गजपति राजा स्वर्ण झाड़ू उठाकर स्वयं रथ की सफाई करते हैं। इसे छेड़ा पहरा कहा जाता है। यह कृत्य अभी भी सबसे बड़ा संदेश है कि ईश्वर की सेवा में राजा भी गरीब भक्त जैसा है।